पुरस्कार पर विवाद होना वाकई चिंता तो नहीं, पर चिंतन का विषय बनता है
सम्मान की अपनी एक प्रासंगिकता है। प्रत्येक सम्मान अपनी विशेष प्रतिष्ठा और गरिमा समाहित किए होता है और यह किसी के भी हाथों मिले उसका भाव कमजोर नहीं होता है
[सुशील कुमार सिंह]। इसमें कोई दुविधा नहीं कि प्रत्येक सम्मान अपना एक सद्आचरण लिए होता है और सम्मान प्राप्त करने वाले आम से नहीं खास दृष्टि से देखे जाते हैं। इसी दृष्टिकोण से ओत-प्रोत दिल्ली के विज्ञान भवन में बीते 3 मई को 65वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन हुआ। जिसमें 125 विजेताओं को सम्मानित किया जाना था, परंतु परंपरा से हटकर राष्ट्रपति के हाथों इनमें से केवल 11 को ही पुरस्कृत किए जाने का निर्णय था जिसके चलते शेष विजेताओं में से 70 कलाकारों ने इसका बॉयकाट किया जो अपने आप में एक अनूठी परंपरा की नींव डालने जैसा है। दरअसल समारोह में प्रोटोकॉल की वजह से राष्ट्रपति को केवल एक घंटे ही मौजूद रहना था जिसके चलते सभी को पुरस्कार देना संभव नहीं था। कार्यक्रम के अगले चरण में अन्यों को पुरस्कार देने का काम सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्मृति इरानी और राज्यमंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर को करना था और ऐसा हुआ भी। वैसे भी राष्ट्रपति द्वारा इतनी बड़ी मात्रा में प्रत्येक को पुरस्कार दे पाना आसान काज भी नहीं है। पूर्व राष्ट्रपतियों के लिए भी यह सहज नहीं रहा है जिसके चलते कई इस पर आपत्ति भी जता चुके हैं।
तूल देने की आवश्यकता नहीं
पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने बीमारी के चलते एक साल तो पुरस्कार बांटे ही नहीं, जबकि प्रणव मुखर्जी ने पुरस्कार के वितरण के दौरान एक ब्रेक भी लिया था। जो भी हो सम्मान के संदर्भ के निहित परिप्रेक्ष्य को देखते हुए इसे तूल देने की आवश्यकता शायद नहीं थी, बल्कि इसके लिए कोई बेहतर रास्ता चुना जाना चाहिए था। पुरस्कार पर विवाद होना वाकई चिंता तो नहीं, पर चिंतन का विषय बनता है। यहां एक बात यह समझने वाली होगी कि जब सौ से अधिक लोगों को पुरस्कार के लिए चयनित किया जाएगा तो संभव है कि एक घंटे में यह काज कैसे होगा? ऐसे में क्या प्रोटोकॉल की सीमा को लंबा किया जाना जरूरी नहीं है? हालांकि इस पर नियम संगत ही व्यवस्था हो सकती है, पर स्थिति को देखते हुए ऐसा लाजमी प्रतीत हो रहा है। गौरतलब है कि साल 1954 में शुरू नेशनल फिल्म अवॉर्ड्स फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सबसे सम्मानित पुरस्कार है तो इसके प्रति नजरिया भी चौड़ा और कहीं अधिक भिन्न क्यों नहीं होना चाहिए?
विवादों का राजनीति से नाता
पुरस्कारों का विवादों से और विवादों का राजनीति से नाता कहीं अधिक पुराना है। भारत रत्न समेत पद्म सम्मान को लेकर कुछ के मामले में यह संदेह रहा है कि ये सम्मान राजनीति से काफी हद तक प्रेरित होते हैं। हालांकि मोदी शासनकाल में ऐसे सम्मानों को लेकर नए प्रारूप का निर्धारण कुछ हद तक किया गया है शायद ऐसा पारदर्शिता को बनाए रखने के चलते संभव हुआ। संदर्भ यह भी है कि भारत रत्न की परंपरा भी साल 1954 से ही शुरू हुई जिसमें यह देखा गया कि किसी साल तीन, चार लोगों को यह सम्मान मिला है और कभी तो यह कई वर्षो तक किसी को दिया ही नहीं गया। 2001 के बाद भारत रत्न 7 वर्षो बाद 2008 में दिया गया। इसके बाद 2013 में।
सम्मान वापस
साल 2015 में मदन मोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी को एक साथ भारत रत्न मिला तब से अब तक अभी यहां भी ठहराव है। पड़ताल बताती है कि सम्मान को लेकर झंझवात कई प्रकार के हैं सम्मान ग्रहण न करने के अलावा वापसी के भी प्रसंग देश में रहे हैं। गौरतलब है कि मोदी शासनकाल में असहिष्णुता को लेकर साल 2015 में कई साहित्यकारों ने सम्मान वापस कर दिए थे। हालांकि देश में आपात के दौरान भी पद्म सम्मान वापस किए जा चुके हैं, जबकि इसके पहले औपनिवेशिक काल में 1919 में जलियांवाला बाग कांड के विरोध में रविंद्र नाथ टैगोर ने नाइट हुड की उपाधि वापस की थी। जाहिर है प्रसंग और संदर्भ विशेष को लेकर या तो सम्मान का बॉयकाट किया गया है या फिर सम्मान की वापसी की गई है, परंतु यह बात भी लाख टके की है कि इससे सम्मान का कोई असम्मान नहीं होता, बल्कि यह असंतुष्टि मात्र को परिभाषित करता है।
फैसले हैरान करने वाले
सम्मान से जुड़े कई फैसले तो काफी हैरान करने वाले रहे हैं। मशहूर बिलियर्ड्स खिलाड़ी माइकल फेरेरा ने 1981 में पद्मश्री लेने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि वे पद्म भूषण के हकदार हैं जिसे सुनील गावस्कर को दिया गया। फ्लाइंग सिख के नाम से दुनिया में चर्चित मिल्खा सिंह ने 2001 में तमाशा करार देते हुए अजरुन अवॉर्ड लेने से इन्कार किया। सानिया मिर्जा का राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार के लिए चयन ऐसे ही विवादों की कड़ी के रूप में देखा गया। इतना ही नहीं जब साल 2005 में सैफ अली खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया तब भी यह कइयों को हैरान किया था। बॉक्सर मनोज कुमार ने 2014 में जब खुद का नाम अजरुन पुरस्कार के लिए नहीं पाया तो खेल मंत्रलय को कोर्ट में घसीटा और फैसला उनके पक्ष में रहा। बाद में उन्हें अलग से अजरुन पुरस्कार दिया गया।
गले नहीं उतरता
सचिन तेंदुलकर को 2013 में भारत रत्न दिया जाना और ध्यानचंद को इससे वंचित रखना भी कइयों को गले आज भी नहीं उतरता। पुरस्कारों की अपनी एक कथा और व्यथा रही है। राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी विवाद समय-समय पर उत्पन्न हुए हैं। जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा को 2009 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया तब भी इसे लोग संदेह की नजर से देख रहे थे। फिलहाल सम्मान पर उठते सवाल को लेकर रार ठीक नहीं है। हालांकि राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का मामला अलग किस्म का है यहां विवाद राष्ट्रपति के हाथों सम्मान न मिलने के चलते उत्पन्न हुआ। सबके बावजूद यदि इस पर सीमित तार्किकता का उपयोग और बेहतर ढंग से किया जाता तो शायद इस विवाद से बचा जा सकता था, पर ऐसा नहीं हुआ। बावजूद इसके यह उम्मीद जरूर की जानी चाहिए कि सम्मान की अपनी एक प्रासंगिकता है और यह किसी के भी हाथों मिले कमतर नहीं होता है। हां यह बात सही है कि यदि महामहिम से मिले तो सम्मानित व्यक्ति कहीं अधिक सद्भाव और संतुष्टि से भरे होंगे।
[लेखक वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं]
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