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हर रोज पैदा हो रहा है लगभग 600 टन तक बायो मेडिकल वेस्ट, बदलनी होगी यूज एज थ्रो की सोच

वर्तमान में हम हर रोज कितना बायोमेडिकल वेस्‍ट पैदा कर रहे हैं? क्‍या आपको इसका कोई अंदाजा है। यदि नहीं तो इस पर ध्‍यान देने की जरूरत है। इस टनों कचरे की वजह से हमें कई तरह की समस्‍या भी हो रही हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 11 Nov 2020 08:03 AM (IST)Updated: Wed, 11 Nov 2020 08:03 AM (IST)
हर रोज पैदा हो रहा है लगभग 600 टन तक बायो मेडिकल वेस्ट, बदलनी होगी यूज एज थ्रो की सोच
देश में हर रोज पैदा लगभग 600 टन तक बायो मेडिकल वेस्ट हो रहा है

शुभम कुमार सानू। एकल उपयोग की सामग्रियां बस कुछ मिनट घंटे या दिन के लिए हमारे उपयोग में आती हैं, परंतु नकारात्मक रूप से यह हमारे पर्यावरण को हजारों वर्षो तक प्रभावित कर सकती हैं। हालांकि भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही एकल सामग्रियों यानी सिंगल यूज प्रोडक्ट्स के प्रयोग के बनिस्पत बहुपयोगी सामग्रियों पर जोर दिया जाता रहा है, मगर बढ़ते आधुनिकीकरण ने सिंगल यूज प्रोडक्ट्स के उपयोग एवं उपभोग में काफी वृद्धि की है। चाहे वह प्लास्टिक के पानी के बोतल के रूप में हो या खाद्य कंटेनर एवं कप हो या एकल प्रयोग वाले कोरोना सुरक्षा का उपकरण या फिर पेंट के पैकिंग में प्रयोग होने वाला टीन या प्लास्टिक का डब्बा। 

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ये सभी एवं अन्य बहुतेरे सर्वव्यापी आधुनिक उपयोगिता की सामग्रियां क्षणिक प्रयोग के बाद इतनी जल्दी अनुपयुक्त और अपशिष्ट के रूप में परिणत हो जाती हैं कि शायद ही हम इस पर गौर कर पाते हैं। मुंबई स्थित एक पर्यावरण संस्थान के अनुसार हाल में दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु एवं पुणे में लगभग 45 प्रतिशत सिंगल यूज प्लास्टिक के प्रयोग में वृद्धि हुई है और इसमें अन्य एकल उपयोग वाली सामग्रियों को भी जोड़ दिया जाए तो यह 50 प्रतिशत से अधिक हो जाएगा। ये सभी एकल उपयोग की सामग्रियां बहुत सारे पर्यावरणीय मूल्यों को ताक पर रखकर हमारे उपयोग में आती हैं, जो महासागरों, जीव-जंतुओं एवं मानव स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव डालता है।

बदलना होगा यूज एंड थ्रो- कल्चर :

कोरोनाकाल के प्रारंभिक दौर में लॉकडाउन के दौरान प्रकृति ने जहां स्वयं को हील किया, वहीं कुछ ही दिनों बाद एक नई विभीषिका एकल प्रयोग वाले प्लास्टिक एवं अन्य सामग्रियों के रूप में सामने आई है। चाहे वह पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट यानी पीपीई कीट के रूप में हो या मास्क या फिर दस्ताने या फिर फेस शिल्ड के रूप में हो। कोरोना के कारण आजकल प्रतिदिन लगभग 600 टन तक बायो मेडिकल वेस्ट पैदा हो रहा है। एकल प्रयोग वाले सामानों को कोरोना के प्रति सुरक्षा से जोड़ने वाली बात ने इसे और भी खतरनाक बना दिया है। आज के समय में जब लोग एकल इस्तेमाल वाली सामग्रियों का उपयोग करते हैं तो वे स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं। इस प्रकार की मानसिकता के विकास ने यूज एंड थ्रो कल्चर को बढ़ावा दिया है, जिसमें बदलाव की जरूरत है। हम जितनी अधिक सफाई का ध्यान रखेंगे, उतना ही कोरोना से सुरक्षित होंगे, न कि एकल प्रयोग वाली सामग्रियों के अत्यधिक उपयोग से।

कुछ सामान्य उदाहरणों के जरिये इस समस्या की गंभीरता को समझा जा सकता है। द वल्र्ड अकाउंट की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रतिदिन दुनिया में लगभग 10 करोड़ प्लास्टिक बोतल का इस्तेमाल होता है। इसमें एक गौर करने वाली बात यह है कि पानी के बोतल का 90 प्रतिशत दाम उसके पैकिंग खर्च पर निर्धारित होता है, न कि पानी की गुणवत्ता पर। दूसरा, हम अपने घरों को पेंट कराने से पैदा हुए अपशिष्टों पर शायद ही गौर करते हैं। वर्तमान समय में भारतीय पेंट इंडस्ट्री की वैल्यू 50 हजार करोड़ रुपये की है, जो लगातार बढ़ रही है। अर्थव्यवस्था के लिए यह अच्छी बात है, परंतु इस इंडस्ट्री में एकल प्रयोग वाली सामग्रियों की पैकिंग में टीन या प्लास्टिक आदि का ही प्रयोग होता है।

अमूमन एक बार प्रयोग के बाद इन्हें कूड़े के रूप में फेंक दिया जाता है, जो पर्यावरण पर अपशिष्टों का बोझ बढ़ाता है। सभी प्रकार की एकल प्रयोग वाली वस्तुएं जब इस्तेमाल के बाद अपशिष्ट के रूप में पर्यावरण में आती हैं तो यह कूड़े एवं ठोस अपशिष्ट के रूप में जल एवं वायु को प्रदूषित करती हैं। इसके अनुपयुक्त प्रबंधन एवं जगह-जगह पर कूड़ा जलाकर खत्म करने की प्रथा के कारण वातावरण में कार्बन, मिथेन आदि जैसे गैस द्वारा प्रदूषण होता है, जिसकी मार अभी दिल्ली व उत्तर भारत के कई शहर ङोल रहे हैं।

क्यों विकराल समस्या हैं एकल प्रयोग की सामग्रियां :

दुनिया में हर साल लगभग 30 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है, जिनमें से 50 प्रतिशत एकल प्रयोग वाले हैं। सीपीसीबी की वार्षकि रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग छह करोड़ टन नगरीय ठोस अपशिष्ट पैदा होता है। देश के पर्यावरण मंत्रलय के अनुसार रोजाना करीब 20 हजार टन प्लास्टिक अपशिष्ट पैदा होता है जिसमें से केवल 13 से 14 हजार टन को ही एकत्रित किया जाता है। इनमें से अधिकांश अपशिष्ट नदियों के रास्ते समुद्रों में बहाए जा रहे हैं। एक शोध रिपोर्ट के अनुसार समुद्र में वर्ष 2050 तक मछलियों से कहीं ज्यादा प्लास्टिक अपशिष्ट होगा। एक अनुमान के अनुसार इन अपशिष्टों के कारण प्रतिवर्ष लगभग एक लाख जलीय स्तनपाई एवं 10 लाख समुद्री पक्षियों को जान से हाथ धोना पड़ता है। प्रशांत महासागर में गार्बेज पैच की समस्या तो और भी भयावह होती जा रही है।

द वर्ल्‍ड अकाउंट के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2020 में इस गार्बेज पैच का क्षेत्रफल 20 लाख वर्ग किमी से अधिक हो गया है। इसके अलावा इसका जैव निम्नीकरण आसानी से नहीं होने के कारण यह मृदा में मिलकर उसे निम्नीकृत करता है। समुचित निस्तारण के अभाव में इसे जला दिया जाता है जिससे वायुमंडल में विषैली गैसें उत्सर्जति होती हैं।

रॉयल स्टैटिस्टिकल सोसाइटी के आंकड़ों के अनुसार वर्तमान में लगभग 90 प्रतिशत प्लास्टिक अपशिष्ट को रीसाइकल नहीं किया जाता है, जो इसकी गंभीरता को दर्शाता है। एकल प्रयोग वाली सामग्रियों का उत्पादन न हो या फिर कम से कम हो या उन्हें रिफिल किया जा सके, इस पर सरकार को ध्यान देने के साथ एक नीति बनाने की आवश्यकता है। भारत में जूट की उत्पादकता बढ़ाने के साथ उसे एकल प्रयोग की सामग्रियों के विकल्प के रूप में लाने की जरूरत है।

इस प्रक्रिया में एमपीआरपी यानी मैक्सिमम प्राइस फॉर रिटìनग प्लास्टिक तय कर उपयोग की गई सामग्रियों को उस उत्पाद को बनाने वाली कंपनियों द्वारा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। एकल सामग्रियों की उत्पादक कंपनियां इन सामग्रियों से काफी लाभ कमाती हैं। ऐसे में पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में यह उनका नैतिक कर्तव्य बनता है कि वह इसका सही तरीके से निस्तारण करें। उपभोक्ताओं को आíथक लाभ मिलने यानी पैकेजिंग में इस्तेमाल की गई वस्तु की कुछ न कुछ कीमत मिलने पर वे उसे कूड़े में नहीं डालेंगे, और कंपनियों को ही वे वापस करेंगे। एक सतत पोषणीय एवं पर्यावरण संतुलित भविष्य के लिए हमें यूज एंड थ्रो के कल्चर एवं सामग्रियों से दूरी बनाने का सख्ती से पालन करना होगा।

दिल्ली एनसीआर समेत समूचे उत्तर भारत में वायु प्रदूषण चरम पर है। हमें इस समस्या के स्थायी समाधान की ओर ध्यान देना चाहिए। सबसे पहले स्वयं के स्तर पर एकल प्रयोग वाली सामग्रियों से बचना होगा, क्योंकि सिंगल यूज प्रोडक्ट्स संसाधनों की बर्बादी के साथ प्रदूषण का बड़ा कारक भी है। इसके स्थान पर दोबारा से उपयोग में आने वाली सामग्रियों के इस्तेमाल एवं पुनर्चक्रण पर पर जोर देना होगा, ताकि इन सामग्रियों को एक बार उपयोग के बाद नष्ट होने से बचाते हुए प्रकृति एवं वायु को भी स्वच्छ बनाए रखा जा सके

दिल्ली में बढ़ते ठंड एवं गिरते पारे के साथ घटती वायु गुणवत्ता इस कोरोनाकाल में गंभीर चिंता का विषय है। दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण स्तर के कारण कोरोना संक्रमितों की संख्या में बीते एक सप्ताह में अचानक उछाल आया है। वहीं दूसरी ओर कंटेनमेंट जोन की संख्या एक अक्टूबर को 2,615 थी, जो बढ़कर तीन हजार तक पहुंच गई है। ये सभी प्रदूषण के विपरीत प्रभाव को दर्शाते हैं। यूं तो हर वर्ष दिल्ली सरकार दिल्लीवासियों को आश्वस्त करती है कि वायु गुणवत्ता को सुधारने की दिशा में ठोस काम किया जा रहा है, पर धरातल पर इसका प्रभाव नहीं के बराबर महसूस होता है।

ठंड बढ़ने के साथ दिल्ली में प्रदूषण के लिए मुख्य तौर पर एक कारक को कथित तौर पर प्रमुख माना जाता है, वह है पड़ोसी राज्यों पंजाब एवं हरियाणा में जलाई जाने वाली पराली। पर हाल ही में आई पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की एक रिपोर्ट दर्शाती है कि पिछले तीन साल के दौरान अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर में हवा की दिशा एवं रफ्तार पर किए गए शोध के अनुसार इन दिनों दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण के लिए पंजाब की पराली की भूमिका बहुत ही कम है। चूंकि पंजाब और दिल्ली की दूरी लगभग 300 से 400 किमी है, जिस कारण पंजाब के प्रदूषण को दिल्ली पहुंचने के लिए हवा की गति चार से पांच किमी प्रति घंटा से अधिक एवं दिशा दक्षिण पूर्व की होनी चाहिए, लेकिन बीते तीन वर्षो में इन महीनों में ऐसा एक भी दिन नहीं आया, जब दोनों ही परिस्थितियां एकसाथ मौजूद हों।

इसलिए दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण स्तर के लिए मुख्य रूप से दिल्ली में पैदा होने वाला प्रदूषण ही जिम्मेदार कहा जा सकता है। वैसे भी ठंड के मौसम में तापमान में गिरावट के साथ इन क्षेत्रों में स्थिर वातावरण का निर्माण होता है जिसमें हवा की ऊध्र्वाधर और क्षैतिज गति न के बराबर होती है। इस कारण इन क्षेत्रों में स्वयं पैदा किए गए प्रदूषण वायुमंडल के निचले स्तर में जमा होकर वायु को प्रदूषित करते हैं।

उल्लेखनीय है कि दिल्ली को गैस चैंबर बनाने में दो प्रमुख कारक धूलकण 45 प्रतिशत भागीदारी के साथ एवं गाड़ियों से निकला हुआ धुआं 17 प्रतिशत भागीदारी के साथ प्रदूषण के मुख्य कारण हैं। इसके अलावा, पेटकॉक जैसे पेट्रो ईंधन की भागीदारी 16 प्रतिशत है। साथ ही खुली जगह पर कूड़ा जलाना भी हवा को प्रदूषित करता है। कोरोनाकाल में अनलॉक के दौर में ऑटोमोबाइल सेक्टर ने काफी जल्दी अपनी रिकवरी शुरू कर दी, जो अर्थव्यवस्था के लिहाज से तो बेहतर है, परंतु दिल्ली जैसे नगरीय क्षेत्र जो पहले से ही अत्यधिक वाहनों के बोझ से दबा है, यहां पर पिछले चार महीने में चार गुना से अधिक वाहन बिक्री में वृद्धि बढ़ते प्रदूषण के दृष्टिकोण से चिंताजनक है। दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करने के लिए निजी वाहनों से इतर पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर निर्भरता बढ़ानी होगी।

इस समस्या की गंभीरता को समझते हुए सरकारों के स्तर पर दिल्ली एनसीआर के लिए लाया गया अध्यादेश कमीशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट इन नेशनल कैपिटल रीजन एंड एडवाइजरी एरिया ऑíडनेंस 2020 व गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए लाया गया बीएस4 स्वच्छ ईंधन, इलेक्टिक वाहनों को बढ़ावा, पूर्वी और पश्चिमी पेरिफेरल एक्सप्रेस-वे का निर्माण एवं समय-समय पर सम-विषय योजना सराहनीय कदम हैं। पर अभी काफी कुछ करना बाकी है जिसमें सबसे पहले दिल्ली के पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम को दुरुस्त बनाना होगा, ताकि सड़कों पर निजी वाहनों का भार कम हो सके और दिल्ली की हवा को स्वच्छ बनाया जा सके।

(लेखक दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के शोधार्थी हैं)  

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