Hathras News: समाजसेवी जगदीश ने कैसे खड़ा किया किराने का कारोबार, इस तरह किया कठिनाइयों का सामना
विभाजन की विभीषिका का दंश झेलने वाले इसे याद कर आज भी सहम जाते हैं। बंटवारे के चलते लूटपाट के साथ कत्लेआम शुरू हो गया था। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में हिंदुओं की संपत्तियों को लूटकर उन्हें जिंदा जलाया जाने लगा।
हाथरस.आकाश राज सिंह। विभाजन की विभीषिका का दंश झेलने वाले इसे याद कर आज भी सहम जाते हैं। बंटवारे के चलते लूटपाट के साथ कत्लेआम शुरू हो गया था। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में हिंदुओं की संपत्तियों को लूटकर उन्हें जिंदा जलाया जाने लगा। इस विभीषिका को देख हिंदुओं ने पलायन शुरू कर दिया। लाहोर के इलाके शहर मियांवाली में रह रहीं मायादेवी अपने तीन पुत्र व एक पुत्री को लेकर अमृतसर से हाथरस पहुंची। इसके बाद यहीं की होकर रही गईं।
साेहार्द के साथ रहते हिंदु-मुस्लिम परिवार
जगदीश अरोरा बताते हैं कि उनका जन्म लाहौर के पास जिला मियावली में जून 1933 को हुआ था। उनके पिता गुरुमुख दास अंग्रेजों की फौज में थे। फौजी परिवार में उनकी परिवरिश मां माया देवी करती थीं। उन्हें अधिकतर नौकरी के चलते बाहर ही रहना पड़ता था। मियांवली भले ही मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र था, उसके बाद भी सभी लोग मिलजुल कर यहां रहा करते थे।
चार बच्चों को लेकर अकेली निकल पड़ीं मां
जगदीश बताते हैं कि दो भाई अमीरचंद, सेवाराम, बहन शीला व मुझे लेकर मां बहुत परेशान थीं। उन्होंने रात के समय मियावली स्थित घर छोड़ दिया। हम लोगों को लेकर मां किसी तरह फौजियों के शिविर में पहुंची। उस समय पिताजी आंध्रप्रदेश के हैदराबाद में तैनात थे। रास्ते में कई जगह हमें पकड़ने की कोशिश की।
फौजियों के संरक्षण में पहुंचे अमृतसर
जगदीश बताते हैं कि दो दिन बाद दस अगस्त को फौजियों के संरक्षण में माताजी चारों बच्चों को लेकर रात के करीब नौ बजे ट्रेन से निकल पड़ीं। रास्ते में कई जगह ट्रेन जली हुई मिलीं। लोको पायलट ने रास्ते में कहीं भी ट्रेन को नहीं रोका। वहां से हम ट्रेन द्वारा अमृतसर पहुंचे। यहां पर शरणार्थियों के शिविर करीब दस दिन बिताए। यहां पर शिविर में हमे खाना मिलता था।
हरिद्वार में बिताए आठ माह
जगदीश बताते हैं कि पिताजी अमृतसर से हमें कोलकाता ले गए। यहां छह माह रहे। इसके बाद हम हरिद्वार आए। यहां करीब एक साल रहे। इसके बाद हमारे रिश्तेदारों ने बताया कि जीवन यापन के लिए हाथरस सबसे अच्छा ही सस्ता भी शहर है। पिताजी के मृत्यु के बाद कोई देखभाल करने वाला नहीं था। माताजी सभी बच्चों को लेकर ट्रेन से हाथरस किला पहुंची। एक दिन स्टेशन पर ही बिताया।
नयागंज में की चाय की दुकान
जगदीश बताते हैं कि यहां स्टेशन से सीधे नयागंज स्थित एक धर्मशाला में पहुंचे। यहां पहले से ही कई परिवार ठहरे हुए थे। कुछ दिन तो इधर-उधर से खाना मिलता रहा। इसके बाद हमने काम की तलाश शुरू की। कई जगह नौकरी भी की। इसके बाद नयागंज चौराहे पर चाय की दुकान लगाई। करीब तीन साल तक चाय की दुकान यहां चलाते रहे। इसी से परिवार का पालन पोषण हो रहा था।
खड़ा किया किराने का व्यापार
जगदीश बताते हैं कि इसके बाद अलीगढ़ रोड पर बिजली मिल के कर्मियों के लिए लेबर कालोनी बनी। इसमें कई क्वार्टर खाली पड़े हुए थे। ढाई सौ रुपये में एक मकान लिया। गिर्राज पेट्रोल पंप के पास चाय की दुकान की। इसके बाद यहीं पक्की दुकान लेकर उसमें किराने का सामान बेचना शुरू किया। दो भाई नौकरी करने लगे थे। शहर की रहने वाली कांता के साथ विवाह हुआ। अब दुकान को पुत्र राजीव संभाल रहे हैं।
आज भी झकझोर देती विभाजन विभीषिका की यादें
उस समय अखंड भारत की सीमाएं अफगानिस्तान तक फैली हुई थीं। यहां हिंदु व मुस्लिम सभी भारतवासी बनकर रहा करते थे। एक दूसरे के घरों में उनका आना-जाना था। विवाह व अन्य आयोजनों में भी सहभागिता दोनों धर्मों के लोग करते। आजादी के बाद भारत-पाकिस्तान के बंटवारे ने दाेंनो को बांट दिया। उस दौरान हुई लूटपाट व कत्लेआम की घटनाएं आज भी झकझोर कर रख देती हैं। अब तो वहां जाने की बात भी नहीं सोचते हैं।
- जगदीश अरोड़ा, भारत-पाकिस्तान बंटवारे की त्रासदी के प्रत्यक्षदर्शी