शिक्षा प्रणाली: परीक्षा में बढ़ता फीसद और रटंत विद्या, क्या भारत को फिर से बनाएगी विश्व गुरु!
राजनीति और अर्थव्यवस्था के तमाम विकार शिक्षा में मूल्यों तथा संस्कारों के घनघोर अभाव से ही उपजे हैं। बहु वैकल्पिक प्रश्नों के आदर्श उत्तरों की कुंजी से प्राप्त नहीं किए जा सकते।
प्रो पुष्पेश पंत। पिछले कई साल से बोर्ड की परीक्षा में पास होने वाले छात्र अंकों के नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। इस साल दो छात्रों ने आइसीएसई की परीक्षा में शत प्रतिशत अंक हासिल कर नया शिखर छू लिया है। इस उपलब्धि के लिए वे, उनके अध्यापक तथा अभिभावक बधाई के पात्र हैं परंतु कुछ विकट सवाल भी मुंह बाए खडे हैं जिनको नजरअंदाज करना असंभव है।
क्या नई पीढ़ी अपने अग्रजों-पूर्वजों से कहीं अधिक जहीन है या फिर परीक्षा का स्तर इतना गिर गया है कि 95-99 प्रतिशत हासिल करना बहुत आसान हो गया है? औसत छात्र भी इम्तिहान पहले दर्जे में पास करते हैं और कॉलेज में दाखिले के वक्त 90 प्रतिशत अंक वाले भी दर-दर मारे-मारे भटकते हैं। कुछ अव्वल दर्जे वाले बेचारे पत्राचार से ही आगे की पढ़ाई जारी रखने को मजबूर होते हैं।
एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार का मानना है कि सबसे बडा दोष उस परीक्षा प्रणाली का है जिसमें बहु विकल्पीय प्रश्न पूछे जाते हैं जिनका मॉडल उत्तर रटने वाले छात्र ही सर्वाधिक अंक पाते हैं। साल भर पढ़ाई इसी चुनौती का सामना करने के लिए करवाई जाती है। ‘रटंत विद्या घोटंत पाणि’ का सूत्र नौका पार लगा सकता है। न तो विषय वस्तु से छात्र -छात्राओं का वास्ता रह गया है और न ही मौलिकता , सृजनात्मक प्रतिभा या राजमर्रा की जिंदगी के लिए परमावश्यक व्यावहारिक ज्ञान की चिंता किसी को बची है। सहिष्णुता, मानवीय संवेदना, सहानुभूति, नैतिकता का स्कूली शिक्षा से कोई नाता नहीं रह गया है। हर परीक्षा अगली परीक्षा की तैयारी वाली सीढ़ी की एक पायदान भर बन गई है। आगे बढ़ने के लिए अधिकतम नंबर जुटाने के लिए कोचिंग और ट्यूशन ही डूबते का सहारा हैं। सबसे बडा दुर्भाग्य यह है कि प्राथमिक स्तर से अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की प्रतियोगिताओं तथा शोध के लिए प्रत्याशियों को कसौटी पर कसने के लिए भी ‘बहु विकल्पीय प्रश्न’ ही इम्तिहान में आते हैं। पीएमटी हो या आइआइटी का दाखिला, कहीं कोई दूसरी गाय की पूंछ नहीं जो परीक्षा की वैतरणी पार कराए।
हमारी समझ में और कुछ मुद्दे हैं जिन्हें हम अनदेखा करते हैं। क्या स्कूली शिक्षा की दुर्गति के लिए सरकारी तथा निजी स्कूलों के बीच भेदभाव करने वाली जाति व्यवस्था सरीखी मानसिकता जिम्मेदार नहीं? वंचित शोषित तबके के बच्चे ही प्रांतीय बोर्डों की मान्यता वाले सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। यहीं अध्यापकों की जिंदगी भी सबसे दयनीय नजर आती है। फिर नंबर आता है सीबीएसई के पाठ्यक्रम के अनुसार संचालित निजी (महंगे) तथा केंद्रीय-सैनिक, नवोदय विद्यालयों का।
कुछ समय पहले तक इनके भी ऊपर बिराजरते थे मशहूर पब्लिक स्कूल जिनका आम जनता से कोई वास्ता न था- दून स्कूल, मायो कॉलेज, सेंट पॉल, लव डेल, लॉरेंस स्कूल आदि। आज यह भी ताकतवर रईसों की पहली पसंद नहीं। सर्वश्रेष्ठ की सूची में सबसे ऊपर ‘इंटरनेशनल बैकोलरेट’ की तैयारी करवाने वाले स्कूल हैं, जिसके छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में बिना झंझट प्रवेश ले सकते हैं। शासक वर्ग इसीलिए न तो आम स्कूलों की लाइलाज बीमारी से चिंतित है और न ही आसमान छूते अंकों की महामारी से।
समस्या तो उन किशोर-किशोरियों की है जो 98-99 प्रतिशत अंक हासिल नहीं कर पाते। उनके मन में भयंकर हीनता की भावना जडें जमाने लगती हैं। अभिभावकों की निराशा के लिए वह खुद को जिम्मेदार समझने लगते हैं, हर जगह कम अंकों की वजह से प्रताड़ित होते हैं और कुंठित, तनावग्रस्त हो या तो नशे में डूबते उतराते जीवन नष्ट करते हैं या असामाजिक आचरण की दिशा में अग्रसर हो अनपढ़ की असली ‘सफलता’ से पढे़ लिखों को निकम्मा साबित करने में जुट जाते हैं। यह स्थिति समाज के लिए बेहद चिंताजनक है।
राजनीति और अर्थव्यवस्था के तमाम विकार शिक्षा में मूल्यों तथा संस्कारों के घनघोर अभाव से ही उपजे हैं। मूल्य और संस्कार बहु वैकल्पिक प्रश्नों के आदर्श उत्तरों की कुंजी से प्राप्त नहीं किए जा सकते। न ही गलाकाट प्रतिस्पर्धा की तैयारी करवाने वाले कोचिंग संस्थान या कुशल ट्यूटर यह उपहार या वरदान दे सकते हैं। यह बेहद जरूरी है कि हम मातृभाषा की शिक्षा माध्यम को उपेक्षित समझ पारिवारिक-स्थानीय विरासत से वंचित करते हुए अपने बच्चों को पंगु न बनाएं। सरकारी मान्यता तथा पाठ्यक्रम के साथ राजनीतिक दबाव में छेड़छाड़ ने भी कम नुकसान नहीं पहुंचाया है। साक्षरता को शिक्षा का पर्याय समझना आत्मघातक है। बोर्ड की परीक्षा में अंकों की मरीचिका से मुक्ति के बिना हमारा कल्याण नहीं!
(स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू)
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