संवाद के बजाय विवाद, आवश्यकता की पूर्ति के लिए पहल नहीं होना निराशाजनक
यह समझ आता कि न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार के हिसाब से न हो लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं हो सकता कि वह पूरी तरह सुप्रीम कोर्ट की मनमर्जी से हो। फिलहाल ऐसी ही स्थिति है। न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका पोस्ट मास्टर सरीखी ही है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच विवाद जिस तरह बढ़ता जा रहा है, वह शुभ संकेत नहीं। दोनों ही पक्षों को यह समझना होगा कि इस मामले में विवाद की नहीं, संवाद की आवश्यकता है। यह निराशाजनक है कि इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए कोई पहल होती नहीं दिख रही है। ऐसी किसी पहल के स्थान पर दोनों ही पक्ष और विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट अपने रवैये पर कुछ अधिक ही अडिग और आक्रामक है। इसका प्रमाण तब मिला जब उसने उस रपट के अंश सार्वजिनक कर दिए, जो नियुक्त किए जाने वाले न्यायाधीशों के संदर्भ में सरकार की ओर से उसे सौंपी गई थी। इस रपट में खुफिया एजेंसियों की ओर से दी गई जानकारी थी।
इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि खुफिया एजेंसियों के आकलन को सार्वजनिक करने का काम सुप्रीम कोर्ट करे। इस पर केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने उचित ही आपत्ति जताई। सुप्रीम कोर्ट ने यह काम भले ही स्वयं को सही सिद्ध करने के लिए किया हो, लेकिन उसे समझना होगा कि वह कलेजियम को संविधानसम्मत साबित नहीं कर सकता। इसलिए नहीं करता, क्योंकि संविधान में यह कहा ही नहीं गया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट की ओर से बनाए गए कलेजियम के माध्यम से की जाएगी। कलेजियम व्यवस्था न केवल संविधान की मूल भावना, बल्कि लोकतांत्रिक मर्यादा के भी विरुद्ध है।
यह समझ आता कि न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार के हिसाब से न हो, लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं हो सकता कि वह पूरी तरह सुप्रीम कोर्ट की मनमर्जी से हो। फिलहाल ऐसी ही स्थिति है। न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका पोस्ट मास्टर सरीखी ही है। सुप्रीम कोर्ट ने सब कुछ अपने हाथ में ले रखा है। सबसे विचित्र यह है कि वह न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया से संबंधित मेमोरंडम आफ प्रोसीजर को भी दुरुस्त करने के लिए तैयार नहीं, जबकि उसने स्वयं माना था कि इसमें सुधार की आवश्यकता है।
वास्तव में इसी कारण यह कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया का हरण कर लिया है। आखिर न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में ऐसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के साथ सरकार की भी भागीदारी हो? विश्व के अन्य अनेक देशों में ऐसा ही है। कहीं-कहीं तो न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार ही करती है। क्या ऐसे देशों के बारे में यह कहा जा सकता है कि वहां भारत से खराब न्याय व्यवस्था है? सच्चाई तो इसके विपरीत है। भारत न केवल अपनी दोषपूर्ण न्याय व्यवस्था के लिए जाना जाता है, बल्कि लंबित मुकदमों के भारी बोझ और तारीख पर तारीख के अंतहीन सिलसिले के लिए भी। निःसंदेह इसके लिए सुप्रीम कोर्ट भी जवाबदेह है।