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यूपी में दिखे नए समीकरण, ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचीं मोदी सरकार की योजनाओं का चुनाव में भाजपा को मिल रहा लाभ

ग्रामीण क्षेत्रों में ही एक और चर्चा बिजली आपूर्ति की भी हर जगह सुनाई देती रही। किसान हों या विद्यार्थी टांडा और मऊ के बुनकर हों या भदोही के कालीन उत्पादक बिजली की बढ़ी आपूर्ति ने सभी को राहत दी है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Wed, 09 Mar 2022 02:15 PM (IST)Updated: Wed, 09 Mar 2022 06:42 PM (IST)
यूपी में दिखे नए समीकरण, ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचीं मोदी सरकार की योजनाओं का चुनाव में भाजपा को मिल रहा लाभ
यूपी में दिखे नए समीकरण। रायटर्स फाइल फोटो

मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव संपन्न हो गया। सभी एक्जिट पोल भाजपा के दोबारा सत्ता में आने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। हालांकि इसकी हकीकत 10 मार्च को सामने आ जाएगा। इस चुनाव के दौरान प्रदेश के अवध और पूर्वांचल के कई जिलों में जाने का अवसर मिला। उत्तर प्रदेश में कांशीराम के उदय के बाद संभवत: यह पहला अवसर होगा, जब दलित वर्ग के मतदाता बड़ी संख्या में बसपा को छोड़ किसी अन्य दल की ओर जाते दिखाई दिए।

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कुछ लोग इसे मायावती की उस अपील से जोड़कर देख सकते हैं, जिसमें उन्होंने सपा को हराने के लिए भाजपा को समर्थन देने की बात कही, लेकिन इसका एक बड़ा कारण ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंची केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं का सीधा लाभ है। हो सकता है कि मायावती मजबूती से लड़तीं तो दलित मतदाता ये लाभ भी भूलकर उनकी ओर चले जाते, लेकिन फिलहाल तो वे बड़ी संख्या में भाजपा की ओर ही जाते दिखाई दे रहे हैं। चुनाव विश्लेषकों के अनुसार यदि एक फीसद मतदाता भी इधर से उधर ‘शिफ्ट’ हों तो सीटों की संख्या पर बड़ा फर्क पड़ जाता है। इस तथ्य को सत्य मानें तो इस बार ग्रामीण क्षेत्रों में 50 से 80 फीसद तक मतदाता बसपा का परंपरागत घर छोड़ भाजपा की ओर जाते दिखे हैं। इसके परिणाम का अंदाजा लगाया जा सकता है।

इस बार चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत होते ही सपा प्रमुख अखिलेश यादव की ओर से यह हवा बांधी गई कि मुसलमान तो उनके साथ हैं ही, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की अन्य सभी जातियां भी उनके साथ हैं, लेकिन जमीन पर यह दावा हवा-हवाई साबित होता दिखा। ग्रामीण क्षेत्रों में यादव के अलावा नाई, बढ़ई, कुम्हार, कहांर, लोहार, दर्जी, बरई, मौर्या जैसी अन्य पिछड़ा वर्ग की कई जातियां और हैं, जो इस चुनाव में अखिलेश के ‘एम-वाई गठबंधन’ के साथ खड़ी दिखाई नहीं दीं। मजे की बात यह कि इन जातियों को लेकर किसी भी टीवी चैनल या अखबार को कोई विश्लेषण करते भी नहीं देखा गया। जबकि इनकी संख्या भी निर्णायक है। इसका एक कारण चुनाव के पहले से ही इस गठबंधन की ओर से शुरू कर दी गई दबंगई भी रही। मुख्तार अंसारी के पुत्र अब्बास अंसारी की सार्वजनिक धमकी जैसी घटनाएं चुनाव के पहले से ही कमजोर वर्गों को डराने लगी थीं।

जाहिर है इन दबंगों का शिकार हमेशा से ब्राह्मण-क्षत्रीय कम, कमजोर वर्ग ही अधिक होता रहा है। पिछले पांच वर्षों से वह अपेक्षाकृत निश्चिंत रहा है। संभवत: वह दोबारा इस दुर्गति में नहीं फंसना चाहता। छुट्टा पशु निश्चित रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में एक बड़ी समस्या रहे हैं। समाजवादी पार्टी शुरुआत में इस समस्या को उभारने में कामयाब भी रही, लेकिन जैसे-जैसे जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण का पारा चढ़ता गया, वैसे-वैसे यह समस्या नेपथ्य में जाती दिखाई दी। संभवत: तीसरे चरण के मतदान के बाद इस समस्या पर प्रधानमंत्री द्वारा दिया गया आश्वासन भी काम करता दिखा। उनके इस कथन ने लोगों का भरोसा बढ़ाया कि ‘छुट्टा पशुओं की समस्या मेरे ध्यान में आ चुकी है।

हम 10 मार्च के बाद इसका हल निकालेंगे।’ एक और बात। बसपा के जिस मतदाता समुदाय के भाजपा की ओर शिफ्ट होने की बात हमने ऊपर की है, उसके पास या तो खेत हैं ही नहीं या इतने कम हैं कि उसे मिल रहे मुफ्त राशन एवं अन्य फायदों का पलड़ा छुट्टा पशुओं की समस्या पर भारी पड़ता दिखाई दिया है। यह राहत बिजली की आपूर्ति तक ही सीमित नहीं रही है, ट्रांसफार्मर जल जाने पर उसके बदले जाने की व्यवस्था में भी जो परिवर्तन लोगों ने महसूस किया है, उसके बारे में बताते हुए वे हिचकते नहीं। निश्चित रूप से बिजली व्यवस्था में सुधार भी मतदान के समय छुट्टा पशुओं की समस्या का असर कम करने में कामयाब रहा है।

अब शहर की ओर आते हैं। शहरी क्षेत्र भाजपा के लिए हमेशा सकारात्मक रहे हैं। शहरों में छुट्टा पशुओं की समस्या की कोई चर्चा नहीं होती, लेकिन बेहतर हुई कानून-व्यवस्था की चर्चा पश्चिम से पूरब तक समान रूप से सुनाई पड़ती रही। इसका बड़ा लाभ व्यापारियों, उद्यमियों और महिलाओं को हुआ है। यह वर्ग इस सुख को कतई गंवाना नहीं चाहता। एक विशेष बात यह कि ध्रुवीकरण जातीय हो, चाहे धार्मिक यह कभी भी एकतरफा नहीं होता। एक शहर या गांव में रहनेवाले दो वर्गों में से एक यदि गोलबंद होकर किसी दल विशेष की ओर जाता दिखाई देता है तो दूसरा अपने लिए चुपचाप उसके विपरीत रास्ता चुन लेता है। इसके लिए उसे किसी प्रेरणा की जरूरत नहीं पड़ती। उपरोक्त सारी बातों के अलावा भाजपा एक मोर्चे पर कमजोर पड़ती भी दिखाई दी। वह थी अखिलेश यादव द्वारा घोषित की गई पेंशन की योजना। सरकारी कर्मचारियों से लेकर स्कूली अध्यापकों और पुलिस कर्मियों तक पर अखिलेश की इस घोषणा का असर बखूबी नजर आता रहा। यह और बात है कि सरकारी कर्मचारी होने के कारण वे इस मुद्दे पर खुलकर बोल पाने की स्थिति में नहीं थे।


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