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महाराष्ट्र में शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस की तिकड़ी से निपटने के लिए ‘नरम दल’ के साथ-साथ ‘गरम दल’ की आवश्यकता

Maharashtra Politics हाल ही में उद्धव ठाकरे पर दिए अपने एक बयान के कारण गिरफ्तार हुए राणो के साथ भाजपा का प्रदेश नेतृत्व भले यह कहकर पल्ला झाड़ता दिखा हो कि ‘हम व्यक्ति का समर्थन करते हैं वक्तव्य का नहीं।’

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 28 Aug 2021 11:45 AM (IST)Updated: Sat, 28 Aug 2021 03:35 PM (IST)
महाराष्ट्र में शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस की तिकड़ी से निपटने के लिए ‘नरम दल’ के साथ-साथ ‘गरम दल’ की आवश्यकता
जैसे को तैसे वाली शैली में दिया करारा जवाब: नारायण राणो। फाइल

मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। Maharashtra Politics भारत में आजादी की लड़ाई के समय दो भिन्न सोच के समूह काम कर रहे थे। एक था ‘नरम दल’, दूसरा था ‘गरम दल’। ये दोनों दल अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए अपने अपने तरीके से काम करना चाहते थे। आजादी दिलाने का श्रेय चाहे जिसने लिया हो, लेकिन काम तो दोनों ने ही किया। इसी तरह आजादी के 19 साल बाद महाराष्ट्र में एक ऐसा संगठन बना, जिसे राज्य से भी देश के ही दूसरे हिस्से से आए लोगों को भगाने की जरूरत महसूस होने लगी। यह संगठन था शिवसेना। इसने दक्षिण भारत से आए लोगों को मुंबई से भगाने के लिए नारा दिया- बजाओ पुंगी, भगाओ लुंगी।

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शिवसेना ने अपने स्थापना काल से ही मराठी समुदाय के बीच अपनी जगह बनाने के लिए उग्र यानी गरम पंथ का सहारा लिया। कभी दक्षिण भारतीयों पर निशाना साधा, कभी उत्तर भारतीयों पर, तो कभी गुजरातियों पर। इसलिए शिवसेना की पहचान ही ‘गरम दल’ के रूप में स्थापित हो गई। इसके संस्थापक शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे की छवि भी पूरे देश में एक उग्र नेता की ही बनी। शिवसेना भले ही केवल महाराष्ट्र तक सीमित रही, लेकिन बाला साहब ठाकरे की इस छवि के कारण उनके चाहने वाले देश भर में रहे।

दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छत्रछाया में पलनेवाली भाजपा (पहले जनसंघ) पर सौम्यता की परत चढ़ी थी। चूंकि किसी आंदोलन में सिर्फ सौम्यता के हथियार से नहीं लड़ा जा सकता, इसलिए श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए संघ को उसकी कमान विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों को देनी पड़ी और बजरंग दल जैसे संगठन की रचना करनी पड़ी। उस दौर में भाजपा के तेजतर्रार एवं महत्वाकांक्षी नेता प्रमोद महाजन को लगा कि कांग्रेस के मजबूत गढ़ महाराष्ट्र में पांव जमाने के लिए शिवसेना जैसे किसी गरम दल के साथ जाने की जरूरत है। उनकी यह सोच कामयाब भी हुई। भाजपा की ‘नरमी’ और शिवसेना की ‘गरमी’ लोगों को रास आई।

अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंस, मुंबई में सांप्रदायिक दंगे, फिर 12 मार्च, 1993 का सिलसिलेवार विस्फोट आदि घटनाओं की प्रतिक्रिया भी हुई और 1995 में शिवसेना-भाजपा गठबंधन की सरकार बन गई। मुख्यमंत्री शिवसेना का बना, जबकि उपमुख्यमंत्री भाजपा का। यहीं से शिवसेना को ऐसा लगने लगा कि गठबंधन में मुख्यमंत्री पद की प्राकृतिक दावेदार तो सिर्फ वही है। लेकिन वह 20वीं सदी का आखिरी दशक था। अब भाजपा 21वीं सदी के तीसरे दशक में प्रवेश कर चुकी है। अब भाजपा का नेतृत्व नरेन्द्र मोदी और अमित शाह जैसे नेताओं के हाथ में है। यह जोड़ी 2014 में न सिर्फ केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार लाने में सफल रही, बल्कि महाराष्ट्र में भी 15 साल से वनवास ङोल रही भाजपा को बिना शिवसेना के ही सत्ता के करीब तक ले आई। शिवसेना को उसी समय आभास हो गया था कि अब भाजपा को उसकी जरूरत नहीं है। उसने तभी से भाजपा के विरुद्ध घात करने की रणनीति बनानी शुरू कर दी थी। लेकिन भाजपा का प्रदेश नेतृत्व उसकी इस चाल को समझने में न सिर्फ नाकामयाब रहा, बल्कि उसकी हर जली-कटी सुनता भी रहा।

वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना-भाजपा गठबंधन टूटने के बाद शिवसेना की तरफ से नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह को अफजलखान की संज्ञा से नवाजा गया। लेकिन भाजपा चुप रही। विधानसभा चुनाव के कुछ ही दिनों बाद भाजपानीत सरकार में शामिल होने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर करारे प्रहार किए जाते रहे। लेकिन प्रदेश नेतृत्व चुप रहा। इसी सरकार के कार्यकाल में उद्धव ठाकरे ने 2018 की दशहरा रैली में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उन्हीं की चप्पल से पीटने की बात कही। इस अपमानजनक टिप्पणी को भी प्रदेश नेतृत्व चुपचाप सुनता रहा। वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद जब शिवसेना ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद लेने पर अड़ी थी, उस दौरान भी कई बार शिवसेना नेताओं की ओर से अमित शाह को झूठा और बेशर्म तक कहा गया, लेकिन प्रदेश भाजपा नेतृत्व की ओर से कोई तीखी प्रतिक्रिया सुनाई नहीं दी। इस बीच प्रदेश नेतृत्व की कई और खामियां भी भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की नजर में आई होंगी।

मसलन, अजीत पवार को साथ लेकर अत्यंत अल्पजीवी सरकार बनाना। एकनाथ खडसे जैसे पुराने नेताओं को किनारे लगाकर पार्टी छोड़ने पर मजबूर करना। साथ ही पिछले वर्ष सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत के बाद जिस समय दिशा सालियान की संदिग्ध मौत के मामले में ठाकरे परिवार घिरा नजर आ रहा था, ठीक उसी समय नेता प्रतिपक्ष देवेंद्र फडणवीस का संजय राऊत के साथ एक पांचसितारा होटल में बैठक करना।

यह सच है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद देवेंद्र फडणवीस महाराष्ट्र में एक ताकतवर नेता के रूप में उभरे हैं। लेकिन शिवसेना के प्रति बार-बार दिखाई जानेवाली उनकी ‘नरमी’ भी आश्चर्यजनक है। संभवत: इसीलिए केंद्रीय नेतृत्व को याद आई होगी शिवसेना संस्कृति में पले-बढ़े नारायण राणो की। केंद्रीय नेतृत्व नारायण राणो और उनके दोनों पुत्र नीतेश और नीलेश को ठाकरे को उन्हीं की शैली में जवाब देते देख रहा है। संभवत: इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राणो को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर उनका वजन बढ़ा दिया है।

हाल ही में उद्धव ठाकरे पर दिए अपने एक बयान के कारण गिरफ्तार हुए राणो के साथ भाजपा का प्रदेश नेतृत्व भले यह कहकर पल्ला झाड़ता दिखा हो कि ‘हम व्यक्ति का समर्थन करते हैं, वक्तव्य का नहीं’, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने स्वयं उनसे बात कर न सिर्फ उनका हौसला बढ़ाया है, बल्कि उनके पीछे चट्टान की तरह खड़े रहने का वादा भी किया है, क्योंकि केंद्रीय नेतृत्व को लग रहा है कि महाराष्ट्र में शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस की तिकड़ी से निपटने के लिए एक नख-दंतविहीन ‘नरम दल’ के साथ-साथ ‘गरम दल’ की भी आवश्यकता है।

[मुंबई ब्यूरो प्रमुख]


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