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अक्षय की पैडमैन गांव की महिलाओं को समर्पित

पैडमैन महिलाओं की माहवारी से जुड़ी संवेदना को बयां करती है, जिस पर अब तक पुरुष तो क्या घर की महिलाएं भी बातें करने में संकोच किया करती थीं।

By BabitaEdited By: Published: Mon, 12 Feb 2018 01:52 PM (IST)Updated: Mon, 12 Feb 2018 01:52 PM (IST)
अक्षय की पैडमैन गांव की महिलाओं को समर्पित
अक्षय की पैडमैन गांव की महिलाओं को समर्पित

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v style="text-align: justify;">मुंबई, राज्य ब्यूरो। इस शुक्रवार को रिलीज हुई अक्षय कुमार की फिल्म पैडमैन देश और दुनिया के सिनेमाघरों में धूम मचा रही है । खास तौर पर महिला वर्ग इस फिल्म को लेकर खासा उत्साहित है, क्योंकि ये फिल्म उनसे जुड़े संवेदनशील मुद्दे को सामने लेकर आती है। जहां हर वर्ग के दर्शकों को ये फिल्म पसंद आ रही है। वहीं कुछ ग्रामीण इलाकों में फिल्म को लेकर संकोच है, क्योंकि कुछ लोग इसे महिला विरोधी फिल्म मान रहे हैं।
 
अगर इन खबरों में सच्चाई है, तो ये दुर्भाग्यपूर्ण है। पैडमैन महिलाओं की माहवारी से जुड़ी संवेदना को बयां करती है, जिस पर अब तक पुरुष तो क्या घर की महिलाएं भी बातें करने में संकोच किया करती थीं। माहवारी के दौरान पुराने कपड़े से लेकर राख और न जाने किसकिस चीज का इस्तेमाल करने से उनकी सेहत पर इसका बुरा असर पड़ता था और महिलाएं इस वजह से गंभीर बीमारियों की शिकार हो जाया करती थीं। ये फिल्म इसीलिए बनी है, ताकि महिलाएं खुलकर इस बारे में बात करें और खुद की सेहत के लिए सस्ते पैड का  स्तेमाल करें। साथ ही ये फिल्म समाज के पुरुषों से भी आह्वान करती है कि वे महिलाओं से जुड़े इस मुद्दे की संवेदनाओं को समझें और उनकी सेहत का ध्यान रखते हुए उनको खुद पैड लाकर दें, ताकि बिना किसी शर्म या संकोच के महिलाएं इन पैड का इस्तेमाल करें और खुद को सुरक्षित रखें।
 
ये फिल्म बड़े शहरों से लेकर छोटे से छोटे गांव तक में रहने वाली हमारी महिला शक्ति को सलाम करती है, जो इन परेशानियों का सामना करती हैं और किसी से कुछ नहीं कहतीं। बड़े शहरों में तो महिलाएं पैड का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन गांव की महिलाएं अभी तक इसे लेकर संकोचवश आगे नहीं आतीं। सरकारी आंकड़े भी इसी तरफ इशारा करते हैं कि ये देशभर में सिर्फ 12 प्रतिशत महिलाएं ही पैड का इस्तेमाल करती हैं और बाकी 88 प्रतिशत महिलाओं में ज्यादातर महिलाएं ग्रामीण अंचलों से जुड़ी हैं, जो पुराने दौर की चीजें अपनाकर अपने स्वास्थ्य को खतरे में डाल देती हैं।
 
फिल्म के क्लाइमेक्स में वो सीन दर्शकों की आत्मा को झिंझोडऩे वाला है, जब अमेरिका में संयुक्त राष्ट्र के मंच से फिल्म का नायक कहता है कि किसी आदमी को आधे घंटे से ज्यादा खून निकले, तो उसकी जिंदगी को खतरा हो सकता है और हमारी महिलाएं पांच दिनों तक इस दर्द को सहती हैं और किसी से कोई शिकायत नहीं करतीं। इस फिल्म के नायक के जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और वो संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ता है, तो महिलाएं ही उसका साथ देने के लिए आगे आती हैं। उसके द्वारा बनाया गया सस्ता पैड एक महिला ही इस्तेमाल करती है और एक महिला ही उसे छोटे से गांव से संयुक्त राष्ट्र के मंच पर पहुंचाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाती है और सबसे बड़ी बात ये है कि फिल्म का नायक इस कहानी में खुद के लिए कुछ नहीं करना चाहता। उसे अपने घर की महिलाओं की चिंता होती है। उनके स्वास्थ की चिंता होती है। वो घर में अपनी बहनों से भी इसलिए बात करने में संकोच नहीं करता और महिलाओं का दर्द कम करने और उनको सुरक्षित करने के मिशन पर सब कुछ दांव पर लगा देता है।
 
छोटे और बड़े शहरों की महिलाएं इस फिल्म को लेकर गदगद हैं। इसीलिए बड़ी संख्या में फिल्म देखने सनेमाघरों तक जा रही हैं। सोशल मीडिया पर फिल्म को जबरदस्त समर्थन मिल रहा है। देश के प्रधानमंत्री तक इस फिल्म की प्रशंसा कर रहे हैं। जो लोग इसे महिला विरोधी बता रहे हैं या इसके विषय को महिलाओं के सम्मान से जोडऩे की कोशिश कर रहे हैं, उनको खुद जाकर ये फिल्म देखनी चाहिए। जो इस फिल्म को देखेगा, वो अगली बार परिवार की महिलाओं को दिखाने लाएगा। गांव से रिश्ता रखने वाला एक व्यक्ति अपनी बेटी को ये फिल्म दिखाने लाया और कहा कि इस फिल्म ने मेरी आंखें खोल दीं कि हम उन पांच दिनों केलिए अपने घर की महिलाओं को अकेला न छोड़ें और उनका साथ दें। ये फिल्म हरेक पुरुष को अपनी महिलाओं का साथ देने, उनका सम्मान करने और उनके दर्द को समझने का आह्वान करती है। इस आह्वान में किसी शहर-गांव की बंदिशें नहीं लगाई जा सकतीं हैं। 

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