Madhya Pradesh: 'फ्रूटी' के सेवन से उपभोक्ता की तबीयत हुई खराब, कंपनी व दुकानदार को देना होगा हर्जाना
Madhya Pradesh पार्ले एग्रो प्राइवेट लिमिटेड और दुकानदार को सेवा में कमी के एक मामले में जिला उपभोक्ता आयोग ने फ्रूटी की 10 छोटी बोतलों की कीमत सहित 13 हजार रुपये का हर्जाना देने का आदेश सुनाया है।
भोपाल, जेएनएन। Madhya Pradesh News: पार्ले एग्रो प्राइवेट लिमिटेड और दुकानदार को सेवा में कमी के एक मामले में जिला उपभोक्ता आयोग ने फ्रूटी (Frooti) की 10 छोटी बोतलों (प्लास्टिक) की कीमत सहित 13 हजार रुपये का हर्जाना देने का आदेश सुनाया है। मामला मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के भोपाल का है।
150 रुपये में खरीदीं थी 10 छोटी बोतलें
भोपाल (Bhopal) के प्रदीप गुप्ता ने 13 अगस्त, 2014 को आयोग में शिकायत कर कहा था कि उनके घर के पास की एक दुकान से फ्रूटी की 10 छोटी बोतलें उन्होंने 150 रुपये में खरीदी थीं। जब उन्होंने पेय पदार्थ का सेवन किया तो उन्हें असहनीय रूप से सीने में दर्द होने लगा। उल्टी, दस्त के साथ तबीयत खराब हो गई। ऐसे में 10 दिन तक अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। पड़ताल करने पर पाया कि पेय पदार्थ के उपयोग की समय सीमा (अंतिम तारीख) तो खत्म नहीं हुई, मगर उसमें कुछ गड़बड़ी जरूर है। जब उन्होंने इस बाबत दुकानदार से शिकायत की तो उसने उनकी बात नहीं सुनी। तब उन्होंने दुकानदार व निर्माता कंपनी के खिलाफ केंद्रीय उपभोक्ता मंत्रालय और जिला उपभोक्ता आयोग में शिकायत की।
मानक के अनुरूप नहीं मिला फ्रूटी का सैंपल
उपभोक्ता की वकील संगीता मोहरिर ने बताया कि शिकायत पर आयोग ने फ्रूटी का सैंपल लेकर जांच कराई तो पेय पदार्थ शुद्धता के उच्चतम मानक के अनुरूप नहीं पाया गया। बोतलें भी फूल रही थीं। आयोग के अध्यक्ष योगेश दत्त शुक्ल, सदस्य सुनील श्रीवास्तव व सदस्य प्रतिभा पांडेय की बेंच ने उपभोक्ता के पक्ष में निर्णय सुनाया। आयोग ने निर्णय के दौरान कहा कि पार्ले एग्रो प्रालि. द्वारा त्रुटियुक्त फ्रूटी का निर्माण कर व दुकानदार द्वारा उपभोक्ता को त्रुटियुक्त फ्रूटी की बोतल बेचकर सेवा में कमी की गई है।
कंपनी के तर्क को किया खारिज
कंपनी का तर्क था कि सुरक्षा व शुद्धता के उच्चतम मानकों के अनुसार फ्रूटी व अन्य उत्पादों का निर्माण व पैकिंग कराई जाती है। इस फ्रूटी का नमूना उसे उपलब्ध नहीं कराया गया है। फ्रूटी को जांच के लिए प्रयोगशाला जब भेजा गया, तब उसके उपयोग की समय सीमा समाप्त हो चुकी थी, इससे प्रयोगशाला के निष्कर्ष मैन्युफैक्चरिंग स्टैंडर्ड के अनुसार नहीं आ सकते हैं। उपभोक्ता ने परेशान करने के लिए ऐसा किया है। इस तर्क को आयोग ने खारिज कर दिया और हर्जाना दो माह के अंदर देने का निर्णय सुनाया।