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आखिर दिल्ली को हम कब चुनेंगे?

मीडियम क्लास सरकारी मुलाजिम जितेंद्र कुमार को यह चिंता सता रही है कि क्या इस बार वोट फीसद विधानसभा चुनाव जैसा ही रहेगा? उनसे सवाल मेरा था कि वो क्या सोच कर वोट डालेंगे? जवाब में उन्होंने उलट सवाल दाग दिया। 'आपको यह चिंता क्यों सता रही है कि इस बार विधानसभा चुनाव जैसे वोट नहीं पड़ेंगे?' वो थोड़ा सा खु

By Edited By: Published: Wed, 09 Apr 2014 08:11 PM (IST)Updated: Wed, 09 Apr 2014 08:36 PM (IST)
आखिर दिल्ली को हम कब चुनेंगे?
आखिर दिल्ली को हम कब चुनेंगे?

नई दिल्ली, [विष्णु प्रकाश त्रिपाठी]। मीडियम क्लास सरकारी मुलाजिम जितेंद्र कुमार को यह चिंता सता रही है कि क्या इस बार वोट फीसद विधानसभा चुनाव जैसा ही रहेगा? उनसे सवाल मेरा था कि वो क्या सोच कर वोट डालेंगे? जवाब में उन्होंने उलट सवाल दाग दिया। 'आपको यह चिंता क्यों सता रही है कि इस बार विधानसभा चुनाव जैसे वोट नहीं पड़ेंगे?' वो थोड़ा सा खुले, 'मुझे फिक्र इस बात की है कि जब कोई मुफ्तखोरी की चाशनी में पगे वादे ही नहीं कर रहा है तो भला लोग वोट डालने क्यों निकलेंगे?'

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सवाल पर जवाबी सवाल

जितेंद्र कुमार का यह जवाबी सवाल वाकई फिक्र में डालने वाला है।..और यह सवाल पूरी दिल्ली से है, दिल्ली के वोटरों से है। आखिर हम कब तक दिल्ली को इस हालात तक पहुंचाने वालों को चुनते रहेंगे? हम अपने सपनों में बसी दिल्ली को कब चुनेंगे? गुलाम और आजाद 'भारत' की कुल मिलाकर सौ साल से ज्यादा की हो चुकी राजधानी क्या वाकई विश्वस्तरीय शहर है? जैसा कि दावा करते-करते शीला मैम अब सुकून से तिरुअनंतपुरम के राजभवन में विराजमान हैं और उनके लाड़ले इसी दिल्ली के एक हिस्से पर सियासी कब्जा बरकरार रखने के लिए 'सादगी से' पसीना पोंछते हुए जूझ रहे हैं।

रामनवमी की छुंट्टी का दिन और भरी दोपहरी के बावजूद दिल्ली में दाखिल होने की हमारी जद्दोजहद बहुत आसान नहीं थी। नेशनल हाइवे 24, यूपी- दिल्ली बार्डर पर एक बड़ी कुमुक तैनात थी, सुबह से एक-एक वाहन की खिड़की में झांकते-झांकते हलकान। मानो कोई बड़ा हमला होने वाला है। 35 मिनट से 'झक' मार रहे मेरठ के कौशल खुराना स्टीयरिंग पर जोरों का दोहत्थड़ जड़ते हैं 'शिट'। इसके बाद के उनके तीन शब्दों के स्टेटमेंट को हम यहां लिख नहीं सकते। उन्हें गुस्सा इस बात पर आ रहा है कि जितना वक्त गाजियाबाद शहर को पार करने में लगा उससे ज्यादा सिर्फ इस बार्डर चौराहे को क्रास करने में जाया हो रहा है। 'क्या हुआ सर?' मैंने पूरे अदब से दिल्ली पुलिस के जवान से पूछा। उसका अलसाया सा जवाब था, 'अरे वो कर्बला वालों ने टेंशन क्रियेट कर रखी है।' केंद्र-राज्य सरकार, नगर निगम-विकास प्राधिकरण जैसे निकायों के गोल पोस्टों के बीच ढुंनगती दिल्ली में ही ये संभव है कि हर हफ्ते जमीन के एक छोटे से (किंतु कीमती) टुकड़े की वजह से पड़ोसी सूबे से कुछ लोग आते हैं और राजधानी के एक बड़े हिस्से का पूरा सिस्टम हाइजैक हो जाता है।

हलक में अटके गांव

'दरअस्ल, पूरी दिल्ली ही हाइजैक है। आप कहां-कहां देख कर अपना बीपी हाइ करेंगे।' समसपुर जागीर गांव में दर सड़क पान मसाला के खोखे पर सिगरेट के छल्ले उड़ाते हुए अमरेश चौहान ने हमारे स्वास्थ्य की चिंता की। यूपी से दिल्ली में घुसते हुए यमुना से ठीक पहले राष्ट्रीय राजमार्ग के एक तरफ समसपुर और दूसरी तरफ पटपड़गंज। लोग अभी भी इन्हें गांव ही कहते हैं। भले ही यहां जमीन की कीमत नोएडा केमुकाबले ऊंची उछाहें मारती हो लेकिन जब लुटियन दिल्ली से तुलना करेंगे तो ये गांव ही हैं। ऐसे तमाम गांव जो सियासी-माफियोसी शह पर लाल डोरा सार्टिफिकेट के बूते दिल्ली के सीने पर मूंग दलते हैं, राष्ट्रीय राजधानी नामक इकाई के हलक में अटके हुए हैं, अटके रहेंगे।

'ये लाल डोरा ना तो इस दिल्ली को जीने देगा और ना ही मरने देगा। ये दिल्ली को इसी शक्ल-ओ-सीरत में रखेगा।' हम गंदी-संदी मैली-कुचैली यमुना की तलहटी की पैदावार खीरे-ककड़ियों की रेहड़ पर थे। ठेके पर तलहटी की जमीन पर नकदी फसल लेने वाले अब्दुल समद हमसे मुखातिब थे और हम उनसे लाल डोरा का अर्थशास्त्र समझने की कोशिश कर रहे थे। समझते-समझते मुझे लगा कि इस लाल डोरे का सिर्फ अर्थशास्त्र ही नहीं है, राजनीतिशास्त्र भी है और समाजशास्त्र भी है। गांवों के पुश्तैनी बाशिंदों से लेकर चलायमान किरायेदार, जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा खरीदने की जुगत में जूझते-जुगाड़ते 'बिहारी-एनआरआई' (इसमें यूपी और झारखंड भी शामिल), इलाकाई ठेकेदार, गोत्रोत्पन्न: पंच प्रधान, माननीय पार्षद-विधायक जी और डीडीए के काइयां कारकून..ये पूरा समूह, इन शास्त्रों का शास्त्रीय तंत्र है। मौलिक दिल्ली के इन मूलभूत गांवों में छोटे-छोटे बिहार और यूपी बसते हैं। इन्होंने राजनीति और समाज की शास्त्रीय परिभाषाएं बदल दी हैं। जाट और गूजरों का दखल झीना पड़ता जा रहा है। कांग्रेसी महाबल मिश्र या भाजपाई अनिल झा जैसे लोग नई किसिम की सियासी इबारत लिख रहे हैं। लेकिन लाल डोरे की बिनाह पर उपजी बीमारी और ज्यादा मुंह फाड़ती जा रही है। अवैध बस्तियों को वैध करने के धंधे में क्या कांग्रेसी और क्या भाजपाई सब बगलगीर हैं और दिल्ली के हिस्से में आता है बाबा जी का ..?

यमुना और अप्रेजल कार्ड

'चुनावों में ट्रंप कार्ड तो बहुत से मुद्दे बनते हैं, लेकिन क्या ये बदसूरत यमुना इन चुनावों में पोलटिकिल पार्टीज का अप्रेजल कार्ड बनेगी?' मार्च-अप्रैल के महीने में अप्रेजल शब्द चौंकाता भी है, सतर्क करता है और उम्मीद भी बंधाता है। लेकिन, काजल राय का यह प्रश्न जेहन में काफी देर तक कौंधता है। काजल खुद को काजोल कहलाना ज्यादा पसंद करती हैं, कोलकाता से दिल्ली घूमने आयी हैं। आइटीओ पुल की रेलिंग से यमुना का नजारा लेते हुए कुछ वैसी ही भंगिमा बनाती हैं, जैसी दिल्ली में यमुना की हालत है। 'मैं यमुना पाल्यूशन के बारे में न्यूज पेपर्स में पढ़ती तो थी लेकिन इतनी बैड सिचुयेशन होगी, ये तो सोचा भी नहीं था।' मैं भी यमुना को देखकर सोच रहा था कि जब सूरदास ब्रज की महिमा में 'देखियत कालिंदी अति कारी' लिखा होगा तो क्या उनके मनो-मस्तिष्क में भी इतनी काली यमुना की कल्पना रही होगी। 'यहां के लोग कुछ करते क्यों नहीं हैं?' काजल बनाम काजोल का दूसरा सवाल था। 'लोग क्या करेंगे, करना तो सरकार को होता है'। मैंने उनका समाधान करने की कोशिश की। 'लेकिन सरकार तो यहां के लोग ही चुनते होंगे।' मेरे पास उनके इस सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं था। मैंने उनसे कहा कल सुबह के अखबार के जरिये मैं दिल्ली के लोगों से ही ये पूछ लूंगा। उन्हें जवाब देना होगा तो 10 अप्रैल को पोलिंग बूथ में दे देंगे।

दिल्ली की समस्याएं पूरे देश की मिली-जुली समस्याओं को प्रतिबिंबित करती हैं। यहां की किसी घटना का पूरे देश के जनमानस पर किसी अन्य शहर के मुकाबले ज्यादा और प्रभावी असर पड़ता है। सदियों से यह शासक वर्ग का शहर रहा है। लिहाजा, विकास के हर पैमाने पर न केवल खरा उतरने की लोगों की अपेक्षाएं होती हैं, बल्कि सबको ललचाती भी हैं। ये बात अलग है कि दिल्ली उन अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती है।

-पुष्पेश पंत, राजनीतिक चिंतक

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