EXCLUSIVE: सहमी मानवता की सिसकन का गवाह है बांग्लादेश का रोहिंग्या शरणार्थी कैंप

दुनिया के सबसे बड़े शरणार्थी कैंप के रुप में शुमार किये जा रहे कुतुपालन मेगा कैंप में 21वीं सदी में मनुष्य के पलायन की विकरालता व भयावहता की तस्वीर हर जगह दिखाई देती है।

By Vikas JangraEdited By: Publish:Wed, 10 Oct 2018 10:41 PM (IST) Updated:Thu, 11 Oct 2018 12:06 AM (IST)
EXCLUSIVE: सहमी मानवता की सिसकन का गवाह है बांग्लादेश का रोहिंग्या शरणार्थी कैंप
EXCLUSIVE: सहमी मानवता की सिसकन का गवाह है बांग्लादेश का रोहिंग्या शरणार्थी कैंप

संजय मिश्र, कॉक्स बाजार (बांग्लादेश)। बांग्लादेश के सबसे प्रमुख पर्यटन शहर कॉक्स बाजार में रोहिंग्या शरणार्थियों की हालत भले ही सामान्य हो गई है मगर जिंदगी की जद्दोजहद से जुड़ी दिल दहलाने वाली कहानियों की सिसकन अब भी रूह कंपाने वाली हैं।

दुनिया के सबसे बड़े शरणार्थी कैंप के रुप में शुमार किये जा रहे कुतुपालन मेगा कैंप में 21वीं सदी में मनुष्य के पलायन की विकरालता व भयावहता की तस्वीर हर जगह दिखाई देती है। म्यांमार सैनिकों की बर्बरता और हिंसा से सहमी मानवता की झलक यहां के मासूम चेहरों पर भी साफ नजर आती है।

दुनिया भर से बढ़े मदद के हाथों ने बेशक रोहिंग्या शरणार्थियों की सामान्य जिंदगी को पटरी पर ला दिया है मगर न जमीन अपनी और न आसमान अपना होने की कसक उन्हें अपने भविष्य को लेकर हर पल डरा रही है। कॉक्स बाजार जिले के उखिया सब डिविजन की पहाड़ी पर करीब 6000 एकड़ में बने कुतुपालन मेगा कैंप में लगभग 12 लाख रोहिंग्या शरणार्थियों में से 80 फीसद यहीं रहते हैं।

इसके अलावा 20 फीसद शरणार्थी टेकना के कैंपों में हैं। इन दोनों जगहों पर कुल 30 कैंप हैं और सभी 12 लाख रोहिंग्यिा शरणार्थियों की पूरी दुनिया इसी कैंप के भीतर है। बांग्लादेश ने मानवता की मिसाल पेश करते हुए इन पीडि़त रोहिंग्या लोगों को शरण देने से लेकर जिंदगी सामान्य बनाने के लिए सारी मदद दी है मगर इन्हें कैंपों से बाहर दुनिया तलाशने की इजाजत नहीं है। इतनी बड़ी संख्या में शरणार्थियों के दबाव को स्वाभाविक रूप से बांग्लादेश अपनी मुख्यधारा से जोड़ना नहीं चाहता ताकि इनकी म्यांमार वापसी में और मुश्किलें न बढ़ जाए।

म्यांमार के रखाइन प्रांत के मुस्लिम रोहिंग्या लोगों का बांग्लादेश पलायन 2017 के अगस्त में शुरू हुआ और एक साल में यह आंकड़ा 12 लाख पहुंच गया है। रखाइन से इनका पलायन म्यांमार सैनिकों की हिंसा और नरसंहार से शुरू हुआ जिसके गवाह यहां के लाखों लोग हैं।


खुद की आंखों के सामने पति और बेटे की म्यांमार सैनिकों द्वारा की गई हत्या की कहानी बयान करते हुए बिलखती जोमिला ने कहा कि उनका बेटा दसवीं में पढ़ता था और सैनिकों ने मां की ममता की भीख की भी सुनवाई नहीं की। तीन बेटियों और एक दामाद के साथ रखाइन के बुचीदांग मोनुपारा से आयीं जोमिला इस हादसे से इतनी सहम चुकी हैं कि बोलते हुए उनके हाथ-पैर सिरहने लगते हैं फिर भी वह हालात सामान्य होने पर म्यांमार वापस जाना चाहती हैं।

रखाइन के ही क्वीनपारा से आये युवा शरणार्थी जाहिद हुसैन कहते हैं कि उनके माता-पिता को सैनिकों ने मार डाला। तो खेतों में छिपी अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ वे घर से बिना कुछ लिये ही 15 दिन भूखे-प्यासे संघर्ष करते बांग्लादेश पहुंचे। इसी तरह 50 वर्षीय नाहिद ने बताया कि उनके गांव को ही सैनिकों ने जला डाला और दर्जनों लोगों की हत्या कर दी जिसमें बच्चे भी शामिल थे तो छिपे लोगों ने दुबारा गांव में जाने की हिम्मत नहीं की और यहां आ गए। हालांकि म्यांमार सैनिकों की इस वहशी हिंसा के अनुभव के बाद भी इन सभी लोगों ने एक बात जरूर कही कि वे वापस अपने घर लौटना चाहते हैं।

मोहम्मद खालिद ने कहा कि यह सही है कि बांग्लादेश और दुनिया की दरियादिली से पीडि़त रोहिंग्या लोगों की जिंदगी पटरी पर आयी है मगर हमें कैंप से बाहर कोई भविष्य यहां नहीं दिखता। म्यांमार में ही उनकी जमीन जायदाद से लेकर सब कुछ है और वही उनका वतन भी मगर जाने की हिम्मत वे तभी जुटा पाएंगे जब सेना वहां हमारे साथ ऐसी हिंसा दोहराने का भरोसा न दे।

बांग्लादेश सरकार की तरफ से हर कैंप के लिए एक अधिकारी को इंचार्ज बनाया गया है और उन सबके उपर उखिया के यूएनओ जो भारत में एसडीएम के बराबर है उन्हें सभी कैंपों का प्रधान बनाया गया है। कुतुपालन कैंपा के प्रधान मोहम्मद निकारूल जमां कहते हैं कि जब एक साल पहले रोहिंग्या अचानक उखिया की सड़कों के किनारे बारिश में भीगते बैठे और खड़े दिखे तो हम हैरान थे कि मानव समुद्र के इस सैलाब का सामना कैसे किया जाए। मगर एक साल के भीतर स्थाई कैंपों में इतनी बड़ी आबादी को आश्रय समेत पूरी बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराना वाकई बांग्लादेश के लिए किसी अचरज कम नहीं है।

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