तालिबान को लेकर भारत के रुख में बदलाव के संकेत, मास्को फार्मेट वार्ता के क्या है निहितार्थ, जानें एक्सपर्ट व्यू
रूस में हुए मास्को फार्मेट वार्ता में तालिबान और भारत के प्रतिनिधियों की मुलाकात के बाद एक बार फिर से यह सवाल उठ रहे हैं। आखिर भारत ऐसा क्यों कर रहा है। तालिबान हुकूमत के साथ भारत की वार्ता क्यों महत्वपूर्ण है। वैश्विक स्तर पर क्या कुछ बदलने वाला है।
नई दिल्ली, आनलाइन डेस्क। अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद भारत और तालिबान के बीच कूटनीतिक रिश्तों को लेकर एक बहस चल रही है। यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या भारत को तालिबान हुकूमत के साथ अपने रिश्तों को सामान्य बनाना चाहिए या उनसे एक दूरी बनाकर रखना चाहिए। हालांकि, भारत का रुख अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार का समर्थक और तालिबान का विरोधी रहा है। रूस में हुए मास्को फार्मेट वार्ता में तालिबान और भारत के प्रतिनिधियों की मुलाकात के बाद एक बार फिर से यह सवाल उठ रहे हैं। आखिर भारत ऐसा क्यों कर रहा है। तालिबान हुकूमत के साथ भारत की वार्ता क्यों महत्वपूर्ण है। वैश्विक स्तर पर इससे क्या कुछ बदलने वाला है। आइए जानते हैं कि इस पूरे मामले में एक्सपर्ट की क्या राय है।
अनुच्छे-370 के बाद भारत के रुख में आया बड़ा बदलाव
1- प्रो. हर्ष वी पंत ने कहा कि अफगानिस्तान में भारत की स्थिति दुविधापूर्ण है। भारत को तालिबान हुकूमत के साथ वार्ता करनी चाहिए या नहीं यह बड़ा कूटनीतिक सवाल है। यह प्रश्न इसलिए अहम है क्यों कि भारत ने अफगानिस्तान में बड़े पैमने पर निवेश किया है। अगर भारत ने तालिबान के साथ पूरी तरह से रिश्ते खत्म कर दिए तो इसका प्रभाव सीधे उसके निवेश पर पड़ेगा। इसके अलावा कश्मीर में आतंकवादी संगठनों की सक्रियता को देखते हुए तालिबान भारत के लिए खास बन गया है। प्रो. पंत ने कहा कि अफगानिस्तान में तालिबान शासन एक सच्चाई है। भारत को इस सत्य को स्वीकार करना होगा और अपनी कूटनीति में बदलाव करना चाहिए। उन्होंने कहा कि हालांकि, भारत ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है।
2- उन्होंने कहा कि भारत के प्रति तालिबान के नजरिए में एक बड़ा बदलाव देखा गया है। खासकर अनुच्छेद 370 को लेकर तालिबान का रवैया बेहद सकारात्मक था। अनुच्छेद 370 के मामले में तालिबान ने कहा था कि यह भारत का आंतरिक मामला है। पाकिस्तान के हो-हल्ला मचाने के बावजूद तालिबान ने भारत की निंदा नहीं की। तालिबान ने यह संदेश दिया कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच किसी का पक्ष नहीं लेगा। तालिबान के इस बयान के बाद भारत का रुख भी नरम पड़ा है। यह कहा जा सकता है कि वर्ष 2019 से ही भारत ने तालिबान के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना शुरू कर दिया था। इसके पूर्व भारत का रुख आतंकवादियों के साथ वार्ता करने का नहीं था। भारत अफगानिस्तान में ऐसी सरकार का समर्थन करता रहा है जो निर्वाचित है।
3- प्रो. पंत ने कहा कि तालिबान अफगानिस्तान में एक उभरता हुआ स्टेकहोल्डर है। वर्ष 2021 में अमेरिका पूरी तरह अफगानिस्तान से लौट गया और अब तालिबान ही अफगानिस्तान की नई हकीकत है। भारत यह जानता है कि उसे विश्वास में लिए बिना अफगानिस्तान में एंगेजमेंट नहीं किया जा सकता। उधर, तालिबान को भी यह बात समझ में आ गई है कि समावेशी सरकार बनाना अब उसकी एक मजबूरी है। तालिबान यह जानता है कि उसे अपने वादे को पूरा ही करना होगा। ऐसा करके ही दुनिया के दूसरे देश उसके साथ एंगेजमेंट करेंगे।
4- तालिबान से वार्ता करने का यह मतलब नहीं है कि भारत ने उसके सामने घुटने टेक दिए हैं या आतंकवादी समूह से बात शुरू कर दी है। तालिबान के साथ एंगेज करना भारत की कूटनीति का हिस्सा है। उन्होंने कहा कि तालिबान ने भारत से आर्थिक सहयोग मांगा है। प्रो. पंत ने कहा कि जहां तक मानवीय मदद का मसला है, भारत को बिलकुल शुरू करना चाहिए। पिछले दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान में अपनी अच्छी साख बनाई है। उसे अपनी इस साफ्ट पावर को बरकरार रखना होगा।
तालिबान सरकार बनाने के बाद मास्को फार्मेट पहली बार
बता दें कि बुधवार को रूस की राजधानी मास्को में अफगानिस्तान को लेकर दस देशों के प्रतिनिधियों ने वार्ता की है। मास्को फार्मेट पहली बार 2017 में बना था। उस समय इसमें कुल छह सदस्य थे, तब भारत एक पर्यवेक्षक की हैसियत से मास्को गया था। तालिबान के सरकार बनाने के बाद मास्को फार्मेट पहली बार हुआ है और इसमें भारत शामिल रहा है। इस बैठक में तालिबान और भारत साथ-साथ मौजूद रहे। लंबे संघर्ष के बाद तालिबान अफगानिस्तान को नियंत्रण में लेने में तो कामयाब हो गया है, लेकिन तालिबान के सामने कई बड़ी समस्याएं हैं। सबसे बड़ी समस्या है अंतरराष्ट्रीय मान्यता और आर्थिक मदद प्राप्त करने की। मास्को फार्मेट के जरिए तालिबान ने अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की कोशिश की है। इसके पूर्व बाइडन प्रशासन और तालिबान के प्रतिनिधियों के बीच दोहा में वार्ता हुई थी। तालिबान ने अमेरिका से मदद मांगी, लेकिन अमेरिका ने समावेशी सरकार बनाने की शर्त रख दी।