जंगल की बात : अब नहीं सुनाई देगी सोन की सीटी

Wild Dog Son राजाजी नेशनल पार्क से लेकर तराई पूर्वी क्षेत्र में वाइल्ड डॉग (सोन) की मौजूदगी थी और ये वन्यजीव प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे। भौंकने की बजाए सीटी बजाने जैसी आवाज निकालने वाले सोन डॉग 1990 के आसपास यहां से विलुप्त हो गए।

By Sunil NegiEdited By: Publish:Fri, 27 Nov 2020 03:44 PM (IST) Updated:Fri, 27 Nov 2020 03:44 PM (IST)
जंगल की बात :  अब नहीं सुनाई देगी सोन की सीटी
भौंकने की बजाए सीटी बजाने जैसी आवाज निकालने वाले सोन डॉग 1990 के आसपास यहां से विलुप्त हो गए।

देहरादून, केदार दत्त। Wild Dog Son ज्यादा वक्त नहीं बीता, जब उत्तराखंड के जंगलों में वाइल्ड डॉग (सोन) का बसेरा था। राजाजी नेशनल पार्क से लेकर तराई पूर्वी क्षेत्र में इनकी मौजूदगी थी और ये वन्यजीव प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र भी हुआ करते थे। वक्त ने करवट बदली और भौंकने की बजाए सीटी बजाने जैसी आवाज निकालने वाले सोन डॉग 1990 के आसपास यहां से विलुप्त हो गए। इस बीच राजाजी पार्क में इन्हें फिर से बसाने के मद्देनजर अध्ययन हुआ तो बात सामने आई कि इनके लिए यहां बेहतर पर्यावास है। इस प्रस्ताव को सरकार ने हरी झंडी भी दे दी थी। कहा गया कि सोन डॉग से गुलदारों पर भी प्राकृतिक रूप से नियंत्रण रहेगा। इससे राजाजी पार्क में सोन डॉग की सीटी फिर से सुनाई पड़ने की उम्मीद जगी। इन्हें लाने के मद्देनजर अन्य राज्यों से बात हुई, लेकिन अब राज्य वन्यजीव बोर्ड ने इस प्रस्ताव को ही खारिज कर दिया है।

चीला-मोतीचूर गलियारे में हाथियों की निर्बाध आवाजाही

राष्ट्रीय विरासत पशु हाथी के संरक्षण में उत्तराखंड अग्रणी भूमिका निभा रहा है। हाथियों का लगातार बढ़ता कुनबा इसकी तस्दीक करता है। वर्ष 2012 में यहां हाथियों की संख्या 1559, जो अब 2026 हो गई है। इसके साथ ही चिंता और चुनौतियां दोनों बढ़ गए हैं। जिस हिसाब से हाथी बढ़े हैं, उसके अनुपात में वासस्थलों का विकास होना है। इनकी सुरक्षा के पहलू पर भी खास फोकस जरूरी है। हाथी, जंगल की हद में रहें, इसके लिए इनकी आवाजाही के गलियारे निर्बाध रखना आवश्यक है। इसी चिंता-चुनौती के मद्देनजर अब राजाजी नेशनल पार्क में चीला-मोतीचूर गलियारे को निर्बाध किया जा रहा है। इस गलियारे की जद में आ रहे गांव को दूसरी जगह शिफ्ट करने की कसरत अंतिम चरण में पहुंच गई है। अब जल्द ही इस गलियारे से हाथी स्वच्छ विचरण कर सकेंगे। वन महकमे के मुताबिक अब अन्य गलियारों के मामले में भी ऐसी पहल की जाएगी।

गंगोत्री में नए ट्रैकिंग रूट, नई उम्मीदें

उत्तराखंड की वादियां और यहां का वन्यजीवन हमेशा से सैलानियों के आकर्षण का केंद्र रहा है। हर साल ही बड़ी तादाद में सैलानी कुदरत के नजारों का लुत्फ उठाने यहां पहुंचते हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्रों का नैसर्गिक सौंदर्य तो हर किसी को अपने मोहपाश में बांध लेता है। बावजूद इसके तमाम क्षेत्र ऐसे हैं, जो वन कानूनों की बंदिशों के कारण पर्यटन के लिहाज से अछूते हैं। इनमें गंगोत्री नेशनल पार्क के अंतर्गत आने वाली नेलांग घाटी भी शामिल है। लंबे इंतजार के बाद सरकार ने वहां चार नए टै्रकिंग रूट खोलने को हरी झंडी दी है। इसके साथ ही सैलानियों के लिए प्रतिदिन निर्धारित 30 की संख्या को बढ़ाकर सौ कर दिया है। जाहिर है इन कदमों से इस सीमांत क्षेत्र में पर्यटन के जरिये आर्थिकी संवरने की उम्मीद जगी है। सरकार को चाहिए कि वह बदली परिस्थितियों में अन्य क्षेत्रों में भी इसी तरह के ट्रैकिंग रूट खोले।

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टोंगिया गांवों को राजस्व ग्रामों का दर्जा

विषम भूगोल और 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में संरक्षित और आरक्षित वन क्षेत्रों में स्थित गांव वन कानूनों का दंश झेल रहे हैं। वे न तो जंगलों से अपनी जरूरत पूरी कर सकते हैं और न राजस्व अभिलेखों में दर्ज होने से इन गांवों में मूलभूत सुविधाएं ही पसर पा रही हैं। फिर चाहे राजाजी टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आने वाले टीरा व रसूल गांव हों या फिर हरिद्वार, देहरादून, नैनीताल, ऊधमसिंहनगर चंपावत जिलों के संरक्षित क्षेत्रों में आने वाले टोंगिया गांव (वन ग्राम)। लंबे इंतजार के बाद इन गांवों की सुध लेने की सरकार ने ठानी है। इसके तहत इन गांवों को राजस्व ग्राम का दर्जा देने का निर्णय लिया गया है, ताकि वहां अन्य क्षेत्रों की भांति मूलभूत सुविधाएं पसर सकें। वनाधिकारियों को इसके प्रस्ताव भेजने के निर्देश दिए गए हैं, लेकिन इस कवायद की रफ्तार बेहद धीमी है। इस मुहिम में तेजी की दरकार है।

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