अक्टूबर-नवंबर में उत्तराखंड में झुलसा 133.55 हेक्टेयर वन क्षेत्र, आंकी गई महज 3.54 लाख रुपये की क्षति
उत्तराखंड वन विभाग के नोडल अधिकारी (वनाग्नि एवं आपदा प्रबंधन) मान सिंह ने बताया कि अब तक प्रत्यक्ष क्षति का ही हम आकलन करते हैं। माइक्रो लेवल पर पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंच रहा है या फिर कितनी क्षति होगी ऐसा कोई अध्ययन नहीं है।
केदार दत्त, देहरादून। पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद संवेदनशील उत्तराखंड में इस बार सर्दियों से ही जंगल सुलगने लगे हैं। एक अक्टूबर से नौ नवंबर तक का आंकड़ा देखें तो राज्य में आग की 92 घटनाओं में 133.55 हेक्टेयर जंगल झुलस चुका है। लेकिन क्षति के आकलन से आप चौंक जाएंगे। महज 3.54 लाख रुपये की क्षति आंकी गई है। यह उपेक्षा पर्यावरण के प्रति बेहद लापरवाह दृष्टिकोण को उजागर करती है। क्योंकि जंगल में आग लगने से केवल घास-फूस, झाड़ियां या पौधे ही भस्म नहीं होते हैं, वरन समूचे पर्यावरण तंत्र को अपूरणीय क्षति पहुंचती है।
उत्तराखंड का ताजा उदाहरण यह बताने को पर्याप्त है कि औपचारिक और सतही आकलन हो रहा है। आग से नष्ट हुए लाखों नए पौधों, पनप चुके पौधों, छोटे वृक्षों, औषधीय पेड़-पौधों के अलावा वन संपदा के रख-रखाव पर होने वाले भारीभरकम खर्च के सापेक्ष आकलन इसमें सम्मिलित नहीं होता है। वहीं, आग और धुएं से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव, मृदा पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव, भूजल को पहुंचने वाली क्षति, प्राकृतिक पुनरोत्पादन के अलावा जैवविविधता के संरक्षण में योगदान देने वाले छोटे जीवों को पहुंचने वाली क्षति इत्यादि का आकलन भी नहीं किया जा रहा है।
साफ है कि आग से हुए नुकसान को आंकने का वन विभाग का यह पैमाना पर्यावरणीय क्षति की अवहेलना को प्रेरित करने वाला है। यह चिंता पर्यावरणविदों और विशेषज्ञों को भी निरंतर साल रही है। बावजूद इसके, वनों को आग से होने वाली क्षति का पैमाना हैरत में डालने वाला है। आइये, अब जरा क्षति के मानकों पर नजर डालते हैं। पहले बात रोपे गए पौधों के जलने की। इसमें एक वर्ष के हो चुके पौधे के नष्ट होने पर उसकी क्षति आंकी जाती है महज 20 रुपये।
इसी प्रकार दो साल के पौधे के लिए 22.40 रुपये, तीन साल के 24.96 रुपये, चार साल के 28 रुपये और पांच साल के लिए 32 रुपये प्रति पौधा क्षति का आकलन किया जाता है। इसके अलावा चीड़ वनों में आग से पहुंचने वाली क्षति प्रति हेक्टेयर तीन हजार रुपये, साल वन के लिए दो हजार और विविध (मिश्रित) वन के लिए एक हजार रुपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आंकी जाती है। इससे इतर आग से होने वाली किसी प्रकार की क्षति के आकलन की कोई व्यवस्था नहीं है। जबकि प्राकृतिक रूप से उगने वाले पौधों, ईको सिस्टम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले छोटे जीवजंतुओं, पक्षियों को भी भारी क्षति पहुंचती है।
जंगलों में हर साल लगने वाली आग से बड़े दायरे में धुएं-धुंध के पसरे रहने के साथ ही वायुमंडल में घुलने वाली कार्बन की मात्रा पर्यावरण को सीधे चुनौती देती है। तस्वीर से साफ है कि क्षति के मानकों में पर्यावरण को खास तवज्जो नहीं दी गई है।यह कैसे संभव है कि नर्सरी में जिस पौधे की लागत 20 रुपये आती है, रोपे जाने के बाद एक साल तक जीवित रहने पर भी उसकी कीमत 20 रुपये ही रहेगी। इसी तरह की खामी साल के वनों को पहुंचने वाली क्षति के आकलन की भी है। आग से इन वनों में प्राकृतिक पुनरोत्पादन सबसे अधिक प्रभावित होता है। फिर भी वहां क्षति का मानक महज दो हजार रुपये प्रति हेक्टेयर रखा गया है। यही नहीं, जमीन पर रहने वाले जो सूक्ष्म जीव जैवविविधता को बचाते हैं, उनके नुकसान की भरपाई कैसे होगी, सवाल अनुत्तरित है।
पर्यावरणविद पद्मभूषण डॉ.अनिल प्रकाश जोशी ने बताया कि यह पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है। ऐसे में गंभीर चिंतन-मनन की जरूरत है। पर्यावरण को पहुंचने वाली क्षति के आकलन और इसकी रोकथाम के मद्देनजर गहन अध्ययन कर व्यापक रणनीति तैयार करनी होगी।
उत्तर भारत के पीपुल्स बॉयोडायर्विसटी रजिस्टर मॉनीटरिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ.आरबीएस रावत ने बताया कि आग की रोकथाम के लिए हर वक्त प्रभावी रणनीति के साथ तत्पर रहना जरूरी है। आग से पेड़-पौधों व घास को क्षति नहीं पहुंचती, बल्कि जैवविविधता को भी भारी नुकसान पहुंचता है। इसे लेकर शोध की दरकार है और फिर इसी के आधार पर कदम उठाए जाने आवश्यक है।