Year Ender 2021: उत्‍तराखंड के चमोली में आई रैणी आपदा ने सिखाया जलवायु परिवर्तन का सबक

साल 2021 को रैणी आपदा की दुखद यादों के लिए भी जाना जाएगा। शायद जो सबक हम वर्ष 2013 की कैदारनाथ आपदा में नहीं सीख पाए उसी के चलते रैणी आपदा हमें गहरे जख्म दे गई। सरकार ने इससे जलवायु परिवर्तन का सबक सीखने का प्रयास किया है।

By Sunil NegiEdited By: Publish:Fri, 31 Dec 2021 04:08 PM (IST) Updated:Fri, 31 Dec 2021 04:08 PM (IST)
Year Ender 2021: उत्‍तराखंड के चमोली में आई रैणी आपदा ने सिखाया जलवायु परिवर्तन का सबक
साल 2021 को रैणी आपदा की दुखद यादों के लिए भी जाना जाएगा।

समुन सेमवाल, देहरादून। साल 2021 को रैणी आपदा की दुखद यादों के लिए भी जाना जाएगा। शायद जो सबक हम वर्ष 2013 की कैदारनाथ आपदा में नहीं सीख पाए, उसी के चलते रैणी आपदा हमें गहरे जख्म दे गई। हालांकि, अच्छी बात यह रही कि सरकार ने रैणी आपदा से जलवायु परिवर्तन का सबक सीखने का प्रयास जरूर किया है। पहली दफा तय किया गया कि ग्लेशियरों की निरंतर निगरानी जरूरी है। लिहाजा, राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने सुदूर संवेदन संस्थान (आइआइआरएस) के साथ एमओयू किया। ताकि आइआइआरएस सेटेलाइट से हमारे ग्लेशियरों की निरंतर निगरानी कर सके और किसी भी असमान्य बदलाव की तत्काल जानकारी दी जा सके।

वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा हो या फरवरी 2021 की चमोली (रैणी) आपदा, हमारा तंत्र आपदा के बाद ही जागा है। आपदा के बाद सिर्फ हम कारणों की पड़ताल करते रह गए। विज्ञानियों ने यह तो बताया कि चमोली के जिस क्षेत्र में आपदा आई है, वहां के ग्लेशियर पिछले 37 सालों में 26 वर्ग किलोमीटर पीछे खिसके हैं। मगर, किस ग्लेशियर में कब एवलांच आएगी, कहां ग्लेशियर झील फटेगी, इसका पता लगाने के लिए हम कभी गंभीर नहीं दिखे।

चमोली आपदा के बाद तमाम विज्ञानियों ने यह भी बताया कि ऋषिगंगा कैचमेंट से निकली जलप्रलय महज एक घटना नहीं, बल्कि इसमें कई घटनाक्रम शामिल थे। विज्ञानियों ने विस्तार से बताया कि रौंथी पर्वत पर 5600 मीटर की ऊंचाई पर एक हैंगिंग ग्लेशियर के टूटने के चलते जलप्रलय की शुरुआत हुई। आपदा के बाद हमारी सरकार व विज्ञानी इसी तरह जागते हैं, मगर आपदा की संभावना की जानकारी देने व इसका पता लगाने के लिए कभी तंत्र विकसित नहीं किया जा सका। मगर, बीते साल ने जो सबक हमें सिखाया है, शायद वह भविष्य में प्रदेश के काम आ सके। क्योंकि इस सबक के तहत

आपदा से पहले ही ग्लेशियर, ग्लेशियर झीलों व भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की निगरानी का निर्णय ले लिया गया है। वास्तव में यदि ग्लेशियरों से होने वाले हिमस्खलन व ग्लेशियरों झीलों के बनने की प्रक्रिया की निरंतर निगरानी की जाए तो पहले ही यह पता लगाया जा सकता है कि किस ग्लेशियर से हिमस्खलन होने वाला है या कौन सी ग्लेशियर झील टूटने के कगार पर आ चुकी है। इसके साथ ही भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की निगरानी से आपदा के प्रभाव को कम किया जा सकता है। एमओयू के तहत आइआइआरएस उत्तराखंड के ग्लेशियरों आदि की सेटेलाइट के माध्यम से निरंतर निगरानी करेगा और समय-समय पर उसका डेटा राज्य सरकार को उपलब्ध कराया जाएगा।

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