उत्तराखंड: 98 हजार करोड़ की पर्यावरणीय सेवाएं, बखूबी समझा जा सकता है जंगलों का महत्व

कृति की ओर से प्रदान की गई अमूल्य निधि हैं वन। ये हमारी सभ्यता संस्कृति समृद्धि व प्रगति के भी प्रतीक हैं। प्राकृतिक सौंदर्य को चार चांद लगाने के साथ ही ये पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाते हैं।

By Raksha PanthariEdited By: Publish:Sat, 14 Nov 2020 06:45 AM (IST) Updated:Sat, 14 Nov 2020 06:45 AM (IST)
उत्तराखंड: 98 हजार करोड़ की पर्यावरणीय सेवाएं, बखूबी समझा जा सकता है जंगलों का महत्व
उत्तराखंड: 98 हजार करोड़ की पर्यावरणीय सेवाएं।

देहरादून, केदार दत्त। प्रकृति की ओर से प्रदान की गई अमूल्य निधि हैं वन। ये हमारी सभ्यता, संस्कृति, समृद्धि व प्रगति के भी प्रतीक हैं। प्राकृतिक सौंदर्य को चार चांद लगाने के साथ ही ये पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाते हैं, जलवायु को संयत रखते हैं और भूमि, जल संरक्षण में भूमिका निभाते हैं। उत्तराखंड के नजरिये से देखें तो 71.05 फीसद वन भूभाग वाले इस राज्य की पर्यावरणीय सेवाओं में अहम भूमिका है। सरकारी आकलन पर ही गौर करें तो उत्तराखंड प्रतिवर्ष लगभग तीन लाख करोड़ रुपये की पर्यावरणीय सेवाएं दे रहा है। इसमें अकेले वनों की भागीदारी 98 हजार करोड़ रुपये की है। ऐसे में यहां के जंगलों के महत्व को बखूबी समझा जा सकता है। जंगलों में हाथी, बाघ समेत दूसरे वन्यजीवों को पनपाने में भी सूबे का योगदान किसी से छिपा नहीं है। साफ है कि बदली परिस्थितियों में वनों को लेकर ज्यादा संजीदा होने की जरूरत है।

अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न हैं जंगल

जंगल हैं तो जीवन है। बिन जंगल सब सून। उत्तराखंड इस बात को बखूबी समझता है। यही वजह है कि जंगलों का संरक्षण-संवर्धन यहां की परंपरा का हिस्सा रहा है। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो स्थानीय निवासी न सिर्फ जंगल पनपाते थे, बल्कि इनसे जरूरतें भी पूरी करते थे। वक्त ने करवट बदली और 40 साल पहले आए वन कानूनों की बंदिशों ने जन और वन के रिश्तों के बीच खटास पैदा कर डाली। इसे दूर करने की दिशा में वन महकमे को अभी सफलता नहीं मिल पाई है। वह भी ये जानते हुए कि बिना जनसहयोग वनों की सुरक्षा असंभव है। खैर, लंबे इंतजार के बाद अब इस दिशा में पहल हो रही है। स्थानीय समुदाय को यह अहसास कराने की कोशिशें की जा रही है कि जंगल सरकारी नहीं बल्कि, उसके अपने हैं। देखना होगा कि अस्तित्व से जुड़े इस प्रश्न पर विभाग कितना कामयाब हो पाता है।

जंगलों के लिए आग बनी मुसीबत

उत्तराखंड के जंगलों के लिए आग एक बड़ी मुसीबत बनकर उभरी है। हर साल फायर सीजन (15 फरवरी से मानसून के आगमन तक की अवधि) में बड़े पैमाने पर जंगल धधकते हैं और इसमें तबाह होती है वन संपदा। इस साल तो सर्दियों से ही जंगल सुलगने लगे हैं। एक अक्टूबर से अब तक वनों में आग की 115 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 170.47 हेक्टेयर जंगल को नुकसान पहुंचा है। ऐसे में चिंता सताने लगी है कि अभी से ये हाल है तो गर्मियों में क्या स्थिति रहेगी। हालांकि, वर्तमान में आग के लिए बारिश न होने से वनों में नमी घटने को कारण बताया जा रहा हो, लेकिन वन महकमा अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। मौसम के रुख को देखते हुए समय रहते प्रभावी कदम क्यों नहीं उठाए गए। ये खुद में बड़ा सवाल है। जाहिर है कि वन महकमे को अपनी रणनीति में बदलाव लाना होगा।

संसाधनों का बेहतर उपयोग करना जरूरी

विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में जंगलों की सुरक्षा किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। बावजूद इसके यह ऐसी नहीं कि पार न पाई जा सके। यदि वन विभाग उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग करे और आमजन का सहयोग भी ले तो समस्या काफी हद तक हल हो सकती है। इसी मोर्चे पर ध्यान देने की आवश्यकता है। जंगलों की आग को ही लें तो इससे निबटने को महकमा आसमान की ओर ताकता रहता है। आग बुझाने को संसाधनों के नाम पर आज भी झांपा (हरी टहनियों को तोड़कर बना झाडू़) कारगर हथियार है। संभवत: विभाग को इससे आगे बढऩा गवारा नहीं है। यह उदासीनता हर किसी को कचोटती है। यही नहीं, राज्य में 12089 वन पंचायतों से जुड़े एक लाख से ज्यादा व्यक्तियों की फौज भी है, मगर इसका उपयोग नहीं हो रहा। कहने का आशय ये कि विभाग को संसाधनों के बेहतर उपयोग पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

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