एक अर्घ्‍य नई सुबह के पैगामी सूरज के नाम, भारतीय दर्शन में वार्धक्य के भी वंदन-अभिनन्दन की परंपरा

डूबते हुए सूरज व उसके योगदान के वंदन-अभिनन्दन की परंपरा इस्पाती धागों से बुनी भारतीय धर्म-दर्शन की उजली चादर की छांव में ही पुष्पित पल्लवित हो सकती है।

By Abhishek SharmaEdited By: Publish:Fri, 01 Nov 2019 11:33 AM (IST) Updated:Fri, 01 Nov 2019 01:25 PM (IST)
एक अर्घ्‍य नई सुबह के पैगामी सूरज के नाम, भारतीय दर्शन में वार्धक्य के भी वंदन-अभिनन्दन की परंपरा
एक अर्घ्‍य नई सुबह के पैगामी सूरज के नाम, भारतीय दर्शन में वार्धक्य के भी वंदन-अभिनन्दन की परंपरा

वाराणसी [कुमार अजय]। उगते सूरज को पूरी दुनिया सलाम करती है। अलबत्ता डूबते हुए सूरज व उसके योगदान के वंदन-अभिनन्दन की परंपरा इस्पाती धागों से बुनी भारतीय धर्म-दर्शन की उजली चादर की छांव में ही पुष्पित पल्लवित हो सकती है। कारण यह कि इस उदात्त दर्शन में शिव-शव, जन्म-मृत्यु व उदय-अवसान सबको एक दृष्टि व समान भाव से स्वीकार व अंगीकार करने का माद्दा सहज श्रद्धा के रूप में इसी में समाहित है।

इस भावबोध ने उदीयमान सूर्य यदि तिमिर के विजेता के रूप में पूजित है तो वहीं अस्ताचलगामी सूर्य हर रात के बाद की नई अरुणिमा, नये सूरज की नूतन आशाओं के संदेशवाहक के रूप में अर्चनीय है। स्वर्णिम रश्मियों के तेजोमय आभामंडल से घिरा सुबह का सूरज यदि तरुणाई के प्रखर प्रतिमान के रूप में अभिनंदनीय तो पश्चिम के क्षितिज में विलीन होने को उद्यत दिन भर का थका-हारा शाम का बूढ़ा सूरज उस पुरखे के रूप में वंदनीय है जिसने अपने कुल-वंश के योग-क्षेम के लिए अपना सब कुछ वार दिया। स्वयं की ऊर्जा का तिल-तिल अपनों की शक्ति संवर्धन पर निसार दिया। 

सूर्याराधन के महिमामय पर्व सूर्यषष्ठी यानी डाला छठ पर इन्हीं श्रद्धास्पद भावों के साथ लाखों लोग करोड़ों अंजुरियों से पर्व का पहला अघ्र्य अस्ताचलगामी सूर्य की प्रतिष्ठा में ही समर्पित करेंगे। वैदिक आचार्य तथा श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के अर्चक श्रीकांत मिश्र कहते हैं- 'तुला राशि में पदार्पण के बाद पृथ्वी के सन्निकट आ चुके सूर्य की उपासना के पर्व डाला छठ पर डूबते सूर्य को अघ्र्यदान की परंपरा वास्तव में सृष्टि के संरक्षक के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति का ही प्रतीक है। यह आभार प्रदर्शन सिर्फ छठ पर्व तक ही सीमित नहीं है। नियमित संस्कारों की बात करें तो दैनंदिन संध्योपासन क्रम के अंतर्गत प्रात:कालीन सूर्य को ब्रह्म स्वरूप में, मध्याह्न के भास्कर को विष्णु स्वरूप में व अस्त होते सूर्य को रुद्र रूप में नियमित अघ्र्यदान का विधान शास्त्रों में बताया गया है। कहा गया है कि गायत्री मंत्र व सूर्योपासन मंत्र रुद्रस्वरूपिणे सूर्य नारायणाय इदं अघ्‍र्य दतं न मम् के साथ नियमित अघ्र्य तेज व बल प्रदाता बताया गया है।' 

केदारघाट पर अपनी नियमित दिनचर्या के क्रम में शाम को संध्यावंदन कर रहे मेटाफिजिक्स के अध्येता डाक्टर मणि के अपने अलग ही भाव हैं। उनकी आख्या को मानें तो हर दिवस को विराम देकर अस्त होता वृद्ध दिवाकर उन्हें अपने दादाजी की याद दिलाता है। जिन्होंने अपनी वंशबेलि के संवर्धन के लिए अपनी आयु सहित सर्वस्व समर्पित कर दिया। डाक्टर मणि का यह सहज-सरल भाव ही शायद कभी इस पर्व की महत्ता को स्थापित करने वाले शास्त्रों-पुराणों में अस्ताचलगामी सूर्य के प्रति श्रद्धा समर्पण की परंपरा का आधार बना होगा। 

एक जीवन का संदेश, दूजा इन संदेशों का संवाहक

दर्शन शास्त्र के अध्येता व बीएचयू के दर्शन विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक प्रोफेसर देवव्रत चौबे का कहना है- 'डूबते सूरज की लालिमा व प्रात: को अस्तित्व देने वाली अरुणिमा के रंग तथा ऊर्जस्विता में विशेष अंतर नहीं होता। एक अगर जीवन का संदेश है तो दूसरा इस संदेश की आशाओं का संदेशवाहक। इसीलिए सनातन धर्म- दर्शन ने इन दोनों की ही महत्ता को पूरे औदार्य के साथ सम्यक भाव से स्वीकारा है।' 

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