August Kranti: वाराणसी में 13 अगस्त, 1942 को पहली गोलीबारी दशाश्वमेध पर, चार स्वातंत्र्य वीर हुए बलिदान
August Kranti तन समर्पित मन समर्पित और यह जीवन समर्पित चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं मैं... बस यही भाव मन में लिए बनारस के नौजवान गली-गली डोल रहे हैं। अंग्रेजों भारत छोड़ो की हुंकार के साथ मां भारती का जयकारा बोल रहे हैं।
वाराणसी, जागरण संवाददाता। धर्म-अध्यात्म और शिक्षा की नगरी के रूप में दुनिया में विख्यात काशी ने जब अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया तो भी इतिहास रच दिया। जितनी क्रूर यातनाएं, उससे कई गुना बलिदानी। 13 अगस्त, 1942 को दशाश्वमेध पर अंग्रेजों ने क्रांतिवीरों पर गोली तक चला दी।
'तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित, चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं मैं...' बस यही भाव मन में लिए बनारस के नौजवान गली-गली डोल रहे हैं। अंग्रेजों भारत छोड़ो की हुंकार के साथ मां भारती का जयकारा बोल रहे हैं। शहर में एक अजीब सी अकुलाहट-बेचैनी है।
महात्मा गांधी के 'करो या मरो' नारे की घोषणा के साथ ही आंदोलन की अगुवाई करने वाले डा. संपूर्णानंद, श्रीप्रकाश, राम सूरत मिश्र, रामनरेश सिंह, रघुनाथ सिंह जैसे दिग्गज नेता नौ अगस्त की रात ही गिरफ्तार किए जा चुके हैं। समूचा शहर पुलिस और गोरों की गारद की छावनी की शक्ल में तब्दील है। कहीं से कहीं की खबर नहीं मिलती।
प्रशासन की हठधर्मिता के विरोध में आवाज उठाने के खामियाजे में 'आज' अखबार के दफ्तर पर ताला चढ़ चुका है। आंदोलन की सक्रियता व सूचना संजाल बनाए रखने की कोशिश में प्राण-पण से जुटे छात्र-नौजवान ही अब इस अभियान के नाक-कान और आंख हैं। उनके ही प्रयासों के दम पर नेताओं की गैर मौजूदगी के बाद भी आंदोलन का माहौल गर्माया हुआ है। सड़कों-गलियों में रोज जुलूस निकल रहे हैं। हर रोज हो रही हैं हड़तालें।
'करो या मरो' के नारे के तहत दशाश्वमेध से जुलूस निकलकर टाउनहाल तक जाना है। पुलिस और फौज की घेरेबंदी के बाद भी आसपास की गलियों से निकलकर लोग जुटने लगे हैं। बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के बाद भी लोगों का जोश ठंडा नहीं पड़ा है। खासकर छात्रों और युवाओं का उत्साह देखते ही बनता है। सांझ का धुंधलका घिरने से पहले ही नारेबाजी शुरू हो जाती है।
कार्यकर्ता अपनी जेबों से निकालकर तिरंगा फहराते हैं और उसके पीछे रेला उमड़ पड़ता है। आसपास के घरों की छतों और बरामदों से महिलाएं और बच्चे भी जुलूस के नारे के साथ अपने स्वर जोड़ रहे हैं। जुलूस अभी डेढ़सी पुल के मोड़ तक ही पहुंचा है कि फोर्स रास्ता रोक लेती है। नारों की ललकार और तेज होती जाती है।
अरे... आगे कुछ हलचल है। शायद कार्यकर्ताओं की पुलिस से हाथापाई होने लगी है। अंग्रेजों भारत छोड़ो का घोष करती भीड़ पुलिस की घेराबंदी को दबेरती हुई आगे धंसती जाती है। तभी बंदूकों से धांय-धांय की आवाजें और हंगामे का आलम। जुलूस का नेतृत्व कर रहे युवा आंदोलनकारियों की अपील पर जो जहां है, वहीं बैठ जाता है। नारों की गूंज के बीच ही आगे की कतार से पीछे आए कार्यकर्ता बताते हैं कि आगे गोली चल रही है।
काशी प्रसाद, विश्वनाथ मल्लाह, हीरालाल शर्मा तथा बैजनाथ प्रसाद शर्मा देश के नाम बलिदान हुए, यह संदेश सुनाते हैं। यह जानकर कि आगे बहुत लोग घायल भी हुए हैं, भीड़ उन्हें उठाने के लिए आगे बढ़ती है। पुलिस की लाठियों की परवाह किए बगैर लोग घायलों तक पहुंचते हैं और उन्हें लेकर अस्पताल भेजने के जतन में जुट जाते हैं। इधर, नारों के स्वर बदल जाते हैं।
बलिदानियों के नाम जिंदाबाद का उन्वान बन जाते हैं। कुछ पलों की भगदड़ के बाद सबकुछ स्थिर हो जाता है, पर जुलूस रुकता नहीं आगे ही बढ़ता जाता है। कई लोग पास की गलियां पकड़कर टाउनहाल पहुंच जाते हैं और वहां पहले से जुटे आंदोलनकारियों को दशाश्वमेध का हाल बताते हैं।
आक्रोशित भीड़ आपे से बाहर हो जाती है। फोर्स की नाकाबंदी ध्वस्त कर टाउनहाल के मैदान में प्रवेश कर जाती है। बारिश में भीगी शाम मानो ठहर गई है। देश की बलिवेदी पर बलिदान देने वालों के लहू की सुर्खियां हर ओर बिखर जाती है। नारों के साथ हवा में उछलती मुट्ठियों का जोश हर पल पर तारी है। प्रशासनिक मनाही को धता बताकर पूरे शहर में श्रद्धांजलि सभाएं मुहल्ले-मुहल्ले जारी हैं।
ज्वालामुखी फूटा, किंतु मनोबल न टूटा
इस हाहाकारी घटना के बाद भी काशीवासियों का मनोबल नहीं टूटा। अलबत्ता यह कह लें कि बरसों से मन में घुमड़ रहा गुस्से का लावा बाहर करने को एक ज्वालामुखी फूटा है। आधी रात बीत चुकी है, पर टोले-मुहल्ले बलिदानियों की जयकार से गुलजार हैं। हर तरफ जुनूनी समा, हर ओर आजादी की ललकार है।
- पुलिस की गोली से घायल जतनबर स्थित चेतन मठ के स्वामी सुरेंद्र सिंह की मृत्यु एक हफ्ते बाद अस्पताल में हुई।