घर में घुसकर करते जांच महिलाओें से भी बदतमीजी

आपातकाल के दौरान जिले में संघ विचारधारा से जुड़े लोगों को चुन-चुनकर जेल भेजने का काम किया गया। उस समय वे परिवार भी दहशत में जीने को मजबूर रहे जिनके घर से कोई गिरफ्तारी की जाती थी। जिले में सौ से ज्यादा लोगों को मीसा के तहत निरुद्ध किया गया तो उनके परिवारों को भी आपातकाल का दंश झेलना पड़ा। पुलिस के अधिकारी जब क्षेत्र में आते थे तो घरों के दरवाजे खिड़कियां तक बंद हो जाती।

By JagranEdited By: Publish:Mon, 24 Jun 2019 08:54 PM (IST) Updated:Tue, 25 Jun 2019 06:22 AM (IST)
घर में घुसकर करते जांच  महिलाओें से भी बदतमीजी
घर में घुसकर करते जांच महिलाओें से भी बदतमीजी

जागरण संवाददाता, मीरजापुर : आपातकाल के दौरान जिले में संघ विचारधारा से जुड़े लोगों को चुन-चुनकर जेल भेजने का काम किया गया। उस समय वे परिवार भी दहशत में जीने को मजबूर रहे जिनके घर से कोई गिरफ्तारी की जाती थी। जिले में सौ से ज्यादा लोगों को मीसा के तहत निरुद्ध किया गया तो उनके परिवारों को भी आपातकाल का दंश झेलना पड़ा। पुलिस के अधिकारी जब क्षेत्र में आते थे तो घरों के दरवाजे, खिड़कियां तक बंद हो जाती। 12 अगस्त 1975 की भोर में पूर्व जिलाध्यक्ष त्रिकोकीनाथ पुरवार को पुलिस ने पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। छह महीने बाद जेल से छूटने के बाद वह जेपी आंदोलन से जुड़े रहे। उन दिनों की दहशत को बयां करते हुए वह कहते हैं कि बस यह पता चल जाए कि फलां आदमी जनसंघ का कार्यकर्ता है तो पुलिस उसके घर धमक जाती थी। लाठी, बंदूक और भाले से लैस पुलिसकर्मी घर के बक्से तक को भाले से तोड़कर तलाशी लेते। आलमारी व बेड को भी तहस नहस कर दिया जाता और उनके नीचे झांककर देखते कि कहीं कोई छिपा तो नहीं है। परिवार की महिलाओं को भी पुलिसकर्मी भला-बुरा कहते थे। उन्होंने बताया कि राब‌र्ट्सगंज से उन्हें पकड़कर लाया गया और जेल में ठूंस दिया गया। अगले ही दिन जेल से बाहर भेजा गया फिर शाम को गिरफ्तारी हो गई। कुल मिलाकर उस समय का माहौल बेहद खतरनाक और डरावना बन गया था। साहित्य भी कर देते बर्बाद पूर्व पालिका अध्यक्ष त्रिलोकी नाथ पुरवार बताते हैं कि संघ विचारधारा से जुड़े होने के नाते घर में रखे साहित्य को भी पुलिसकर्मी बर्बाद कर देते। उनका मानना था कि कांग्रेस विरोधी विचारधारा को कहीं भी प्रश्रय न दिया जाए। बच्चों से भी ऐसी बातें पूछी जातीं जिनका इन मसलों से कोई लेना-देना नहीं था। परिवार के लोग कुछ भी बोलने से डरने लगे थे और पुलिस की हर उल्टी-सीधी कार्रवाई का विरोध नहीं हो पाता। बंदियों के परिवार से नहीं होती बातउस दौर में डर और भय का ऐसा वातावरण बन गया था कि कोई भी बंदियों के परिवार वालों से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। कई बार लोग रास्ता बदल देते थे और यह दिखाने की कोशिश होती कि वे बंदियों के साथ नहीं हैं। दूर-दराज के नाते-रिश्तेदारों को भी पुलिस की यातना का शिकार होना पड़ता था।

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