यूपी डायरी : घर के अखाड़े में नेताजी का चरखा दांव फुस्स

मुलायम सिंह यादव का कुश्ती, दंगल और अखाड़ों से उनका लगाव इस हद तक है कि उनके प्रभाव से पिछले तीन दशक से उत्तर प्रदेश की राजनीति भी अखाड़े और कुश्ती के तर्ज पर चल रही है।

By Dharmendra PandeyEdited By: Publish:Mon, 22 Oct 2018 12:08 PM (IST) Updated:Mon, 22 Oct 2018 07:14 PM (IST)
यूपी डायरी : घर के अखाड़े में नेताजी का चरखा दांव फुस्स
यूपी डायरी : घर के अखाड़े में नेताजी का चरखा दांव फुस्स

पहलवानी मुलायम सिंह यादव की संस्कारजनित प्रकृति है। कुश्ती, दंगल और अखाड़ों से उनका लगाव इस हद तक है कि उनके प्रभाव से पिछले तीन दशक से उत्तर प्रदेश की राजनीति भी अखाड़े और कुश्ती के तर्ज पर चल रही है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह आक्रामकता लाने का श्रेय मुलायम सिंह यादव को ही दिया जाएगा। शायद ही कोई असहमत हो कि इस दरम्यान नेताजी (घर से लेकर राजनीति तक मुलायम सिंह का लोकप्रिय नाम) से बड़ा लड़ाका पहलवान सूबे की सियासत में दूसरा नहीं हुआ।

वर्ष 1995 का स्टेट गेस्ट हाउस कांड उदाहरण है। जब मायावती और उनके विधायक मनमानी पर उतारू हो गए तो नेताजी ने अपनी खास ब्रिगेड भेजकर जो पराक्रम दिखाया था, उसकी नजीर अन्यत्र नहीं मिलती। जब तक दम-खम रहा मुलायम सिंह ने राजनीति को अपनी अंगुलियों पर नचाया। वह मौका मिलते ही चरखा दांव में अपनी निपुणता, और इसके जरिये बड़े-बड़े पहलवानों को मिट्टी चटाने के किस्से सुनाना नहीं भूलते थे। सब उनका लोहा मानते थे, पर वक्त के अपने दांव हैं। नेताजी 80 के करीब पहुंचे तो उनका घर ही अखाड़ा बन गया। इस अखाड़े में एक तरफ उनके भाई शिवपाल सिंह यादव, जिन पर वह खुद से ज्यादा भरोसा करते हैं। दूसरी तरफ बेटा अखिलेश जो स्वाभाविक रूप से उनकी भावनात्मक कमजोरी हैं। दोनों उनके ही सियासी चेले। किसी को छोड़ नहीं सकते, पर वे दोनों एक-दूसरे को फूटी आंख देखने को तैयार नहीं।

नेताजी ने चरखा समेत सारे दांव आजमा लिए, पर घर के अखाड़े में कुछ काम नहीं आ रहा। अब हालत यह है कि वह एक दिन अखिलेश की पीठ थपथपाते हैं तो दूसरे दिन शिवपाल को आशीर्वाद देते हैं।

कार्यकर्ता भ्रमित हैं कि क्या करें। सभी दल मिशन-2019 की तैयारी में जुटे हैं, पर समाजवादी पार्टी के पहलवान फिलहाल आपस में ही निपट रहे हैं। प्रदेश का सबसे बड़ा और ताकतवर राजनीतिक परिवार खंड-खंड होकर यह संदेश दे रहा है कि काल ही नियामक और नियंता है। उसके आगे कोई दांव नहीं चलता।

बुआ की नसीहत

शिवपाल सिंह यादव समाजवादी पार्टी को गर्त में पहुंचाने के लिए भले ही अखिलेश यादव को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, पर तटस्थ लोगों को आज भी इस युवा नेता से हमदर्दी है। पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर वह कोई क्रांति तो नहीं कर पाए यद्यपि अपने कई फैसलों, खासकर बुनियादी ढांचों के विकास संबंधी विजन के जरिये वह यह भरोसा जरूर दिलाते थे कि उनकी राजनीतिक दृष्टि अपने पिता और चाचा से भिन्न है। उनके कार्यकाल में निर्मित बेहतरीन सड़कों से गुजरते हुए लोग अफसोस करते हैं कि मतदाताओं ने पिछले चुनाव में उन्हें वोट क्यों नहीं दिए। शायद खुद अखिलेश यादव के लिए भी यह यक्षप्रश्न है कि उनसे कहां चूक हुई यद्यपि यह भी कटुसत्य है कि मुलायम सिंह यादव की लोकप्रियता के बूते असाधारण बहुमत प्राप्त कर मुख्यमंत्री बने अखिलेश यादव के ही कार्यकाल में देखते ही देखते ताकतवर समाजवादी पार्टी खंडित और कमजोर हो गई।

शिवपाल यादव व रामगोपाल यादव पहले भी थे, पर मुलायम सिंह उन्हें संभालकर रखते थे। अखिलेश यह नहीं कर पाए। इसका नतीजा सामने है। हालत यह कि मिशन-2019 के लिए जो महागठबंधन प्रस्तावित है, उसमें समाजवादी पार्टी का भाव फिलहाल बहुत डाउन चल रहा है। तय है कि मायावती 40 से कम सीटों पर नहीं मानेंगी। बची 40 में कम से कम 20 सीटें कांग्रेस चाहती है। बाकी 20 में सपा और रालोद एडजस्ट होंगे। कुछ दिन पहले बुआ-भतीजे की जो केमिस्ट्री बन रही थी, वह सीट शेयरिंग की वजह से डिस्टर्ब होने लगी है। बिचौलिए बताते हैं कि बुआ ने भतीजे को 12-14 सीटों से संतोष करने की नसीहत के साथ यह भी समझा दिया है कि बसपा का साथ न मिला तो सपा अपने बूते एक भी सीट नहीं जीत पाएगी। कई लोगों को यह मायावती का अति- आत्मविश्वास प्रतीत होगा, पर अंतद्र्वन्द्वों में उलझी सपा के लिए बसपा से पंगा लेना फिलहाल संभव नहीं दिखता। जो भी हो, प्रदेश की विपक्षी राजनीति बड़े दिलचस्प दौर से गुजर रही है। जाहिर है, मिशन-2019 भी थ्रिल, एक्शन और सस्पेंस से भरपूर होगा।

मेढकी को भी जुकाम

सॉफ्ट हिंदुत्व के लिए दीवानी हो रही कांग्रेस की यूपी इकाई राहुल को इंप्रेस करने के लिए ओवर- एक्टिंग कर रही है। नवरात्र अष्टमी पर पार्टी के प्रदेश मुख्यालय में बाकायदा कन्याभोज आयोजित किया गया। अध्यक्ष जी को कन्याभोज की सलाह किसने दी, वही जानते होंगे, पर इस आयोजन के लिए पार्टी की लाचारी व कमजोरी का मजाक ही उड़ाया जा रहा है।

राजनीतिक दलों की यह पुरानी समस्या है कि वे आम आदमी को बेवकूफ समझते हैं। दरअसल आम आदमी सीधा और सपाट होता है। वह कांग्रेस मुख्यालय में कन्याभोज का मतलब अच्छी तरह समझता है। वैसे कांग्रेस नेतृत्व को इस खतरे के प्रति सचेत रहना चाहिए कि सॉफ्ट हिंदुत्व के लोभ में पार्टी का रहा-बचा आधार भी न खिसक जाए। कांग्रेस आखिर कहां तक भाजपा की नकल करेगी?

तिवारी जी की अनंत यात्रा

पृथक उत्तराखंड से पहले एनडी तिवारी उत्तर प्रदेश की राजनीति के अपरिहार्य अंग हुआ करते थे। बाद में वह उत्तराखंड की राजनीति में ज्यादा रच-बस गए, पर कुछ दिन पहले जब पारिवारिक विवाद गहराया तो शांति की तलाश में वह यूपी लौटे।

यहां उन्हें शांति तो नहीं मिली, पर जीवन के अंतिम दिनों में इस राज्य के प्रति उनका प्रेम छलकता दिखता था। उनके निधन की सूचना से यूपी उसी तरह शोकाकुल हुआ, जैसे उत्तराखंड। जब-जब यूपी के विकास की चर्चा होगी, एनडी हमेशा महसूस किए जाएंगे। उनके जैसा विकास-प्रिय, सहज-सरल और विद्वान नेता अब आसानी से नहीं मिलेगा। कृतज्ञ यूपी उन्हें हमेशा याद रखेगा। 

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