सेहत के राज: साहब ने किया कोरोना हिजाब का आविष्कार

दैनिक जागरण का विशेष कॉलम सेहत के राज संदीप पांडेय की कलम से।

By Anurag GuptaEdited By: Publish:Tue, 31 Mar 2020 01:32 PM (IST) Updated:Tue, 31 Mar 2020 01:32 PM (IST)
सेहत के राज: साहब ने किया कोरोना हिजाब का आविष्कार
सेहत के राज: साहब ने किया कोरोना हिजाब का आविष्कार

लखनऊ [संदीप पांडेय]। शहर के एक बड़े जिला अस्पताल के साहब अपनी धुन में मगन रहते हैं। हर रोज कुछ न कुछ करने का जुनून रहता है। भले ही राउंड के वक्त कुर्सी-बेंच इधर से उधर ही करा डालें। छोटे-छोटे प्रयासों से कैंपस साफ-सुथरा हुआ। ग्रीनरी भी बढ़ी। इलाज वाले अस्पताल में पढ़ाई शुरू हो गई। पीजी डिप्लोमा छात्र आए तो शोध करने की उमंग भी उमड़ी। रिसर्च सेल का गठन कर डाला। इसी बीच कोरोना आ गया। मास्क, पीपीई किट का संकट मंडराया। अब उन्हें अपने शोध का लोहा मनवाने का मौका मिल गया। लिहाजा, साहब ने कई मीटर पॉलीथिन मंगवा डाली। खुद ही दफ्तर में बैठकर पॉलीथिन से बुर्का टाइप के फेस कवर बना डाले और फीवर क्लीनिक तथा ओपीडी में डॉक्टरों को पहनने का फरमान सुना दिया। साहब ने आविष्कार को आई शील्ड नाम दिया, मगर डॉक्टर उसे कोरोना हिजाब कह रहे हैं। इस आविष्कार की चर्चा दूसरे अस्पतालों तक में बनी हुई है।

छोटे मियां सुबहान अल्लाह

केजीएमयू के ट्रॉमा सेंटर से मरीजों को प्राइवेट अस्पताल में भेजने का धंधा पुराना है। डॉक्टर धंधे में रंगे हाथ लिप्त पाए गए। मामला गर्माया तो अफसरों ने डॉक्टर को बाहर का रास्ता दिखा दिया। मगर, अब यहां तैनात एक बड़े डॉक्टर व एक छोटे डॉक्टर साहब की चर्चा निजी नर्सिग होम के चलते जोरों पर है। बड़े डॉक्टर साहब घरवाली और भाई के नाम पर धंधा चमका रहे हैं। वहीं, छोटे वाले डॉक्टर निजी धंधे में नए-नए कूदे हैं। एक ही विभाग में तैनाती के चलते दोनों की ट्रॉमा आने वाले मरीजों पर गिद्ध दृष्टि रहती है। अपने अस्पतालों में मरीज रेफर करने की होड़ रहती है। खींचतान बढ़ गई। मगर, दोनों का लक्ष्य एक होने की वजह से टेबल पर बैठने का फैसला किया। सुना है कि इसमें मरीज बंटवारे की बात पक्की हो गई। ऐसे में छोटे मियां-बड़े मियां की जोड़ी क्या करेगी, अल्लाह ही जाने।

आखिरकार सवा लाख का निकला मरा हाथी

शहर के एक चिकित्सा संस्थान में पिछले कुछ वर्षो से हर तरफ से बैक गियर लगता रहा। नई सुविधाएं शुरू होने की कम, बंद होने की चर्चाएं अधिक छाई रही। विश्व प्रसिद्ध संस्था की वार्षिक उपलब्धियां रैंप निर्माण, स्वास्थ्य शिविर की संख्या तक सिमट गईं। बड़े गुमान के साथ प्रेस विज्ञप्ति में भी इन्हें जगह दी गई। डॉक्टरों का पलायन हुआ तो कई विभागों में सिर्फ बोर्ड ही लगे रह गए हैं। लटके तालों से रैंकिंग धड़ाम हो गई। तमाम जतन के बाद शासन के अफसरों तक ने उम्मीद छोड़ दी। यकायक कोरोना की दस्तक हुई। राष्ट्र प्रेमी-कर्तव्यनिष्ठ डॉक्टर जीवन बचाने में जी-जान से जुट गए। डॉक्टरों की मेहनत की चमक अंधेरे में बैठे साहब को भी रोशन कर गई। शासन-सत्ता का भी मूड कुछ हल्का हुआ। अब इस मुश्किल घड़ी में डॉक्टरों ने जो बीड़ा संभाला..तो यह जुमला आम हो गया। अरे.. चलो भाई, मरा हाथी भी सवा लाख का निकला।

दो बाला अब दोस्त दोस्त ना रहे

बॉलीवुड फिल्म ‘बाला’ उजड़े चमन वालों का दिल छू गई। वहीं, केजीएमयू में सिर पर गायब बालों वाले दो बड़े डॉक्टरों को जिगरी दोस्त बना गई। पुराने जॉर्जियंस पर जब ढलती उम्र में प्रकृति का एक ही कोप पड़ा तो और नजदीक आ गए। हालांकि, एक की कुर्सी बड़ी, तो दूसरे ने छोटी-छोटी कई कुर्सियां लगाकर अपना पॉवर चलाया। अफसर दोस्त के चलते डॉक्टर साहब की हनक भी चली। कागजों पर उनकी चिड़िया बैठाने के लिए चिकित्सकों को मशक्कत करनी पड़ती रही। मगर, साहब को एक दिन जहाज डूबने का आभास हुआ। भितरघातियों पर नजर दौड़ाई, इस बीच दोस्त बाला पर भी दिमाग ठनका। कोरोना की महामारी में सटीक मौका उन्हें मिल गया। खुन्नस भरे अफसर दोस्त ने उन्हें दूसरे विभाग में कुछ बेड देकर शरणार्थी बना दिया। वहां बैठने तक की उनके लिए कक्ष नहीं है। ऐसे में कैंपस में चर्चा आम हो गई, दोस्त-दोस्त ना रहा..।

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