देववाणी की आराधना ने दिलाया महर्षि बाल्मिकी सम्मान

जागरण संवाददाता, कानपुर देहात : मेधा किसी की मोहताज नहीं होती, इस सच साबित करके दिखाया

By JagranEdited By: Publish:Thu, 08 Feb 2018 01:39 AM (IST) Updated:Thu, 08 Feb 2018 01:39 AM (IST)
देववाणी की आराधना ने दिलाया महर्षि बाल्मिकी सम्मान
देववाणी की आराधना ने दिलाया महर्षि बाल्मिकी सम्मान

जागरण संवाददाता, कानपुर देहात : मेधा किसी की मोहताज नहीं होती, इस सच साबित करके दिखाया है औनहां निवासी डा. रामशंकर अवस्थी ने, उन्होंने अपनी काबिलियत के बल पर प्रदेश में महर्षि बाल्मिकी पुरस्कार हासिल किया। सम्मान से प्रफुल्लित डॉ. अवस्थी कहते हैं कि अब देववाणी संस्कृत को जनभाषा बनाने के प्रयास में अधिक मजबूती से जुटेंगे।

जनपद की मैथा तहसील के औनहां निवासी डॉ. रामशंकर अवस्थी को संस्कृत भाषा पर काम करने के लिए बुधवार को लखनऊ के उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान में राज्यपाल राम नाईक व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने महर्षि बाल्मिकी सम्मान से सम्मानित किया। 76 वर्षीय डॉ. अवस्थी ने संस्कृत में 21 ग्रंथों की रचना की और आठ हिन्दी ग्रंथ भी लिखे। मुख्य रूप से पांच महाकाव्यों में वनदेवी, अहुति स्वातंत्रय यज्ञेय, दामिनीपर्यस्फुरत्, कारगिलयुद्धम व चिदविलास शामिल हैं। डॉ. अवस्थी कहते हैं कि वनदेवी मूल रूप से सीता वनवास का सुखांत महाकाव्य है। इस महाकाव्य को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है। अजीजनबाई यामिनी सहित चार खंडकाव्यों की रचना की। यमिनी को यूजीसी 2012 के तहत कानपुर विश्वविद्यालय में बीए द्वितीय वर्ष के छात्रों के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है। उनकी कई रचनाओं पर कई विश्वविद्यालयों में शोध जारी है। महर्षि बाल्मिकी सम्मान में उन्हें सरस्वती प्रतिमा, ताम्रपत्र और 2.01 लाख रुपये मिले हैं।

औनहां में 15 नवंबर 1942 में जन्मे डॉ. अवस्थी का नाम 2016 का राष्ट्रपति पुरस्कार और 2017 दूरदर्शन पुरस्कार भी घोषित हुआ है, जो अभी मिलना है। उनकी पत्नी राजाबेटी गृहणी हैं और औनहां में ही रहती हैं। बड़े पुत्र डॉ. आलोक अवस्थी शाहजहांपुर केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक और छोटे पुत्र शेखर अवस्थी अमेठी हिन्दुस्तान एरोनाटिक्स लिमिटेड में अवर अभियंता हैं। डॉ. अवस्थी ने बताया कि उन्होंने पढ़ाई के समय संस्कृत विषय नहीं लिया। पढ़ाई पूरी कर 1971 में जनपद के काशीपुर स्थित श्री अयोध्या ¨सह सार्वजनिक इंटर कालेज में शिक्षक की नौकरी की और 2003 में सेवानिवृत्त हुए। शिक्षण कार्य के दौरान उन्होंने संस्कृत से पीएचडी की और ग्रंथों की रचना शुरू की। अब उनकी इच्छा है कि संस्कृत जनभाषा बने और बच्चों को सरल तरीके से पढ़ाने के लिए छोटी पुस्तकें उपलब्ध कराई जाएं।

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