ऐतिहासिक है प्रयागराज की होली, हुड़दंग में बरसता है प्रेम का रंग

अपने शहर की होली का ऐतिहासिक महत्‍व है। पहले सांस्कृतिक व साहित्यिक आयोजन में हरिवंश राय बच्‍चन महादेवी वर्मा जैसी दिग्‍गज हस्तियां भी होली के हुड़दंग में शामिल होती थीं।

By Brijesh SrivastavaEdited By: Publish:Wed, 20 Mar 2019 10:59 PM (IST) Updated:Thu, 21 Mar 2019 11:11 AM (IST)
ऐतिहासिक है प्रयागराज की होली, हुड़दंग में बरसता है प्रेम का रंग
ऐतिहासिक है प्रयागराज की होली, हुड़दंग में बरसता है प्रेम का रंग

प्रयागराज : होली पर चहुंओर नाना प्रकार के सांस्कृतिक आयोजनों का दौर चलने लगा है। तब के दौर में होली के हड़दंग में प्रेम का रस बरसता था। सांस्कृतिक व साहित्यिक आयोन होते थे, जिनमें अनेक हस्तियां शामिल होती थीं। आज भी उसी परंपरा को कई जगह निभाया जा रहा है।

'महालंठ सम्मेलन' की धूम

प्रयाग में 1960 के दशक में जीरो रोड स्थित स्वरूपरानी पार्क में हास्य कवि सम्मेलन के रूप में होली का विशिष्ठ आयोजन 'महालंठ सम्मेलन' खुले वातावरण में पहली बार हुआ जो 1975 तक चलता रहा। इसके बाद विकास स्वरूप इस सम्मेलन को खुल्दाबाद चौराहे पर ले गए। इसी बीच 1993-94 से जीरो रोड की अमृत कलश संस्था ने पुन: स्वरूपरानी पार्क में हुड़दंग शीर्षक पर अखिल भारतीय कवि सम्मेलन की परंपरा शुरू की जो अब भी चल रही है।

ठठेरी बाजार की कपड़ा फाड़ होली

दारागंज का धकाधक, प्रीतमनगर की ठिठोली, ठठेरी बाजार की कपड़ा फाड़ होली, लोकनाथ का हुड़दंग पूरी दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता। खासकर ठठेरी बाजार में होली के तीसरे दिन कपड़ा फाड़कर लोगों को रंग में डुबोया जाता है। ये कपड़ा फाड़ होली पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। ये ऐसी होली है जहां हेमवती नंदन बहुगुणा, छुन्नन गुरु, हरिवंशराय बच्चन जैसी हस्तियां भी अपने समय में आकर लोगों के साथ रंग खेलते थे। ठठेरी बाजार की गली में आकर ङ्क्षहदू, मुस्लिम, सिख, इसाई के सारे भेद अपने आप ही मिट जाते हैं। सबके ऊपर सिर्फ प्रेम और भाईचारा का रंग चढ़ जाता है।

खूब हुड़दंग मचाते थे बच्चन

होली पर साहित्यकार कभी पीछे नहीं रहे। साहित्यकारों के यहां होली मनाने का वृतांत महाकवि निराला, हरिवंश राय बच्चन, फिराक, महादेवी वर्मा, उमाकांत मालवीय, सुमित्रा नंदन पंत से लेकर कैलाश गौतम और आज के साहित्यकारों के यहां सुनाई पड़ती है। बच्चन जी तो जीरो रोड, ठठेरी बाजार, चक मोहल्ले की गलियों में गले में ढोलक टांगकर खूब हुड़दंग मचाया करते थे।

निराला के घर भांग की बूटी वाली होली

वहीं निराला जी के यहां भांग बूटी वाली होली होती थी। साहित्यकार उनके यहां बैठक कर अपनी रचनाओं से मस्ती का रस और रंग घोलने का काम करते थे। हास्य-व्यंग की रचनाओं और गोष्ठियां भी होती थी।

'महादेवी के घर होता था जमघट'

कवि यश मालवीय कहते हैं कि होली पर महादेवी वर्मा जी का बहुरंगी व्यक्तित्व बरबस याद आता है। वह 1986 की होली थी। बात 1986 की है। अमृत राय जी के घर पर होली की घनघोर ठंडाई हो गई थी। वहां से हम लोग महादेवी के आवास पहुंचे। भांग का नशा सीढिय़ां चढ़ उतर रहा था। चेहरा लाल, नीले, पीले रंगों में पुता एकदम बामची पंतग जैसा लग रहा था। उस पर एक न खत्म होने वाली उजड्ड हंसी का सिलसिला भी शुरू हो गया था। महादेवी जी ने भी लगभग खिलखिलाते हुए कहा 'जाना होता ये रूप-रंग है तो अपनी बिटिया काहे ब्याहते'। आज भी होली पर उनकी वह हंसी और चुटीली टिप्पणी याद आती है।

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