जोखिम में थी जान फिर भी संक्रमित शवों को पहुंचाया श्मशान, जानिए ऐसे बहादुर के बारे में Aligarh news
कोरोना के खिलाफ यूं तो तमाम डाक्टर व स्टाफ ने मिलकर जंग लड़ी लेकिन दीनदयाल अस्पताल के चालक पप्पू ने एक अलग मिसाल पेश की है। जिस समय कोरोना संक्रमित मरीजों की मृत्यु के बाद उनके शव को कोई चालक श्मशान पहुंचाने के लिए तैयार नहीं था।
विनोद भारती, अलीगढ़ : कोरोना के खिलाफ यूं तो तमाम डाक्टर व स्टाफ ने मिलकर जंग लड़ी, लेकिन दीनदयाल अस्पताल के चालक पप्पू ने एक अलग मिसाल पेश की है। जिस समय कोरोना संक्रमित मरीजों की मृत्यु के बाद उनके शव को कोई चालक श्मशान पहुंचाने के लिए तैयार नहीं था, तब पप्पू ने आगे बढ़कर यह जिम्मेदारी उठाई। जिले में 150 कोरोना संक्रमितों की मौत हुई। इनमें करीब सौ मरीजों की मौत का कारण कार्डिएक अरेस्ट, सारी इंफेक्शन व अन्य बीमारी माना गया, लेकिन सभी का अंतिम संस्कार कोविड प्रोटोकाल के तहत ही किया गया। इनमें से 90 फीसद शव श्मशान तक पप्पूू नेे ही पहुंचाए। वह संविदा पर है, लेकिन उसने इस काम को नौकरी नहीं, अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी माना।दिन हो या रात, अधिकारियों के एक फोन पर वह दौड़ पड़ता। सीधे कोरोना संक्रमित शवों के संपर्क में रहने के कारण उन्हें चार महीनेे तक अपने घर से भी दूर रहना पड़ा। घर वाले उन्हें देखने के लिए तरस गए। आर्थिक समस्या व दूसरी परेशानी भी हुईं, मगर यह योद्धा शवों के यान का चालक बनकर उन्हें अंतिम स्थान पर पहुंचाता रहा। पप्पू का कहना है कि मुझे खुशी है कि मैंने वो कार्य किया, जिसे कोई करने को तैयार नहीं हुआ था।
बचपन से था सेवाभाव
सेवा का भाव बचपन से ही था, लेकिन पप्पू को ऐसे दिनों की कल्पना नहीं थी। वह बताते हैं कि कोरोना से मौत की सूचना पर वह संबंधित अस्पताल पहुंचते तो लोग काफी दूर खड़े हो जाते। ऐसे में शव को वाहन में रखने तक में दिक्कतें हुईं। कई बार तो वह खुद इस काम को अकेले ही करने के लिए तैयार हो गए। इसका उद्देश्य शव की बेकद्री न होने देना था। इसके लिए स्वास्थ्य विभाग ने उन्हें पीपीई किट, मास्क, सैनिटाइजर, दस्ताने उपलब्ध करा रखे थे। किसी को कोई दिक्कत न हो, इसके लिए उन्होंने घर जाना बंद कर दिया। कभी शव वाहन में ही रात गुजारी तो कभी गैराज व लाज के परिसर में। लेकिन, कोरोना की दहशत के चलते मकान मालिक ने उनके बच्चों व बीवी को घर खाली करने का फरमान सुना दिया। इस पर भी पप्पू हिम्मत नहीं हारे और अपने कुछ परिचितों की मदद से दूसरे स्थान मकान में परिवार को शिफ्ट करा कोरोना योद्धा बनकर उभरे। वे अलीगढ़ ही नहीं, एटा, कासगंज, हाथरस व मथुरा तक अकेले शव लेकर गए। अधिकारी भी उनके कायल हो गए।
23 साल पहले छोड़ा गांव
मूलरूप से अलीगढ़ की अतरौली तहसील क्षेत्र के गांव तरैची के 45 वर्षीय प्यारेलाल सिंह पांच भाइयों में सबसे छोटे हैं। पैतृक खेती की जमीन इतनी नहीं कि जीविका चल सके। गांव में रहकर मेहनत मजदूरी व टैक्सी चलाने का वर्षों काम किया। लेकिन, इतनी आय नहीं हो पाती थी कि वह सही तरीके से घर का खर्च चला सके। इसके चलते 23 साल पहले अपनी बीवी व चार बच्चों के साथ शहर आ गए। रामबाग में ही किराये का मकान लेकर रहने लगे। ड्राइविंग सीख रखी थी। इधर-उधर टैक्सी चलाई। कुछ साल डेयरी और नगर निगम में स्वास्थ्य अधिकारी की गाड़ी चलाई। अप्रैल में दीनदयाल अस्पताल आ गए। आउटसोर्सिंग कंपनी के जरिये यहां चालक की नौकरी मिल गई।
बच्चों की फीस रुकी, घर बैठ गए
प्यारेलाल के चार बच्चे हैं। बड़ी बेटी 11वीं, उससे छोटा बेटा नौवीं, उससे छोटी बेटी सातवीं व सबसे छोटा बेटा कक्षा दो में पढ़ता था। मात्र साढ़े सात हजार की पगार से पहले जैसे-तैसे गुजारा हो जाता था। कुछ भाइयों से सहयोग मिल जाता। कोरोना काल में बच्चों की फीस तक नहीं जा पाई। एक बच्ची की मोबाइल के अभाव में आनलाइन परीक्षा छूट गई। अब सभी बच्चे फीस जमा न होने के कारण घर बैठे हैं। इतनी दुश्वारियां झेलने के बाद भी प्यारेलाल का कहना है कि मुझे खुशी है कि मैंने वो कार्य किया, जिसे कोई करने को तैयार नहीं था। अब वे बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैैं।
इनका कहना है
प्यारेलाल ने शव वाहन पर बेहद जिम्मेदारी से कार्य किया। बहुत त्याग किया। ऐसे कोरोना योद्धाओं की वजह से ही हम यह जंग जीतने के कगार पर हैं। मैं व्यक्तिगत तौर पर उसे बधाई देता हूं। सलाम करता हूंं।
डा. एबी सिंंह, सीएमएस दीनदयाल अस्पताल