जो मुक्त हो गया, जिसने सत्य को खोज लिया, वही संत है

जो मुक्त हो गया, जिसने सत्य को खोज लिया, वही संत है। इसीलिए संत को परमात्म स्वरूप माना गया है। संत हमारी भाषा और हमारी मजबूरियां अच्छी तरह समझता है। इसलिए जब तक वह संसार में (शरीर में) ठहरा हुआ है, तब तक हम उसका उपयोग सद्गुरु के रूप में

By Preeti jhaEdited By: Publish:Thu, 03 Sep 2015 10:48 AM (IST) Updated:Thu, 03 Sep 2015 10:50 AM (IST)
जो मुक्त हो गया, जिसने सत्य को खोज लिया, वही संत है
जो मुक्त हो गया, जिसने सत्य को खोज लिया, वही संत है

जो मुक्त हो गया, जिसने सत्य को खोज लिया, वही संत है। इसीलिए संत को परमात्म स्वरूप माना गया है। संत हमारी भाषा और हमारी मजबूरियां अच्छी तरह समझता है। इसलिए जब तक वह संसार में (शरीर में) ठहरा हुआ है, तब तक हम उसका उपयोग सद्गुरु के रूप में करके अपना जीवन कृतार्थ कर सकते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि संत दुखी कैसे होता है? जो मुक्त हो गया, वह समस्त सुखों-दुखों को पार करके आनंद (परमानंद) को उपलब्ध हो चुका होता है। इसलिए पुन: सुख में उलझने का प्रश्न ही नहीं उठता। कारण यह कि सुख-दुख सांसारिक हैं और एकदूसरे के विलोम हैं, जबकि आनंद एक तीसरी स्थिति है, जो सुख-दुख के अतिक्रमण से प्राप्त होती है। वहां से वापसी असंभव प्राय: है।
फिर संत दुखी क्यों होता है? क्या वास्तव में उसके दुखी होने की बात सच है? जी हां यह सच है। संत दुखी होता है और वह तब तक दुखी रह सकता है तब जब उसे सत्य उपलब्ध नहींहोता। इसका कारण यह कि जब वह सत्य को उपलब्ध हो जाता, तब वह पाता है कि जिसे वह और पूरा संसार बाहर तलाश रहा है, वह तो उसके भीतर ही निहित है और प्रत्येक व्यक्ति उसे पा सकता है। वह (परमात्मा) उसका अधिकार है। तब वह अपार करुणा से भरकर कबीर, नानक, महात्मा बुद्ध और महावीर आदि की तरह प्रबल रूप से आह्लादित होने लगता है, जिससे पूरे जगत को इस विराट सत्य का पता चल सके।
याद रखें, परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि शक्ति है। इस अदृश्य शक्ति ने ही ब्रrांड का सृजन किया है। विभिन्न प्राणियों, जंतुओं और वनस्पतियों में इसी शक्ति का अंश निहित है। परमात्मा की हम अनुभूति कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए हमें विकारों और नकारात्मक प्रवृत्तियों जैसे क्रोध, लालच, ईष्र्या, अहंकार और असत्य आदि को त्यागना होगा, तभी हम उसकी अंतर्मन में अनुभूति कर सकेंगे। वस्तुत: परमात्मा गूंगे का गुड़ है। हम चाहते हैं कि सबूत के तौर पर कोई परमात्मा को किसी वस्तु की तरह हमारी हथेली पर रख दे, जो असंभव है। परमात्मा हमारे भीतर निहित है इसलिए हम ही उसे प्रकट कर सकते हैं। हमें इस कटु यथार्थ को समझते हुए स्वयं परमात्मा की खोज करनी होगी, तभी संतत्व की नई धारा विकसित हो सकेगी।

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