विवेकानंद का चिंतन: स्थूल द्वारा सूक्ष्म की खोज

मनुष्य भावों के स्थूल रूपों या प्रतीकों द्वारा सूक्ष्म को ग्रहण करने का प्रयत्न कर रहा है। घंटी, भजन, अनुष्ठान और मूर्तियां आदि धर्म के ऐसे ही बाहय उपकरण हैं। स्वामी विवेकानंद का चिंतन.. कुछ थोड़े से धर्र्मो को छोड़कर प्राय: हर एक धर्म में सगुण ईश्वर की कल्पना प्रचलित रही है और उसी के

By Edited By: Publish:Mon, 02 Sep 2013 03:14 PM (IST) Updated:Mon, 02 Sep 2013 03:47 PM (IST)
विवेकानंद का चिंतन: स्थूल द्वारा सूक्ष्म की खोज

मनुष्य भावों के स्थूल रूपों या प्रतीकों द्वारा सूक्ष्म को ग्रहण करने का प्रयत्न कर रहा है। घंटी, भजन, अनुष्ठान और मूर्तियां आदि धर्म के ऐसे ही बाहय उपकरण हैं। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..

कुछ थोड़े से धर्र्मो को छोड़कर प्राय: हर एक धर्म में सगुण ईश्वर की कल्पना प्रचलित रही है और उसी के साथ भक्ति और पूजा की कल्पना प्रचलित है। यद्यपि बौद्ध और जैन जैसे धर्र्मो में सगुण ईश्वर की उपासना नहीं की जाती, तथापि वे लोग अपने धर्म के प्रवर्तकों को ही लेकर उनकी पूजा वैसे ही करते हैं, जैसे सगुण ईश्वर की पूजा की जाती है। प्रेम के उत्तर में जो प्रेम करने वाले मनुष्य पर भी प्रेम कर सकता है, ऐसे प्रेमास्पद उच्चस्तरीय व्यक्ति की भक्ति और पूजा की कल्पना सार्वभौम है। प्रेम और भक्ति की यह कल्पना भिन्न-भिन्न धर्र्मो में विभिन्न मात्रा तथा भिन्न-भिन्न श्रेणियों में पाई जाती है।

बाहरी अनुष्ठान की श्रेणी सबसे निकृष्ट है, जहां सूक्ष्म विचारों का होना प्राय: असंभव है। अत: वह इन सब को स्थूल रूप में परिणत कर देना चाहता है। इसी से कई प्रकार के अनुष्ठान और उनके साथ ही भिन्न-भिन्न प्रतीकों का उद्भव होता है। संसार के इतिहास में हम पाते हैं कि मनुष्य भावों के स्थूल रूपों या प्रतीकों द्वारा सूक्ष्म को ग्रहण करने का प्रयत्न कर रहा है। धर्म के सभी बाच् उपकरण - घंटी, भजन, अनुष्ठान, पुस्तक और मूर्तियां इसी के अंतर्गत आती हैं। जो भी वस्तुएं इंद्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य हैं और जिनके द्वारा सूक्ष्म को स्थूल रूप देने में मनुष्य को सहायता मिलती है, उनमें से किसी भी वस्तु का आश्रय पूजा या उपासना के लिए किया जाता है। समय-समय पर प्रत्येक धर्म में ऐसे सुधारक उत्पन्न हुए हैं, जो सब प्रकार के प्रतीकों और अनुष्ठानों का विरोध करते आए हैं, पर उनके प्रयत्न निष्फल रहे हैं। कारण, जब तक मनुष्य मनुष्य बना रहेगा, तब तक मानव-जाति के अधिकांश को किसी न किसी स्थूल आलंबन की जरूरत होगी, जिसके चारों ओर वह अपनी सारी भावनाओं को स्थापित कर सके। जो मन के सभी भावनात्मक आकारों का केंद्र हो सके। कुछ धर्र्मो ने इस उद्देश्य से बड़े-बड़े प्रयत्न किए हैं कि सब अनुष्ठान-क्रियाएं बंद हो जाएं, पर उनमें भी बहुत-सा अनुष्ठान प्रवेश कर गया है। ये अनुष्ठान हटाए नहीं जा सकते। अत: प्रतीकों के उपयोग के विरुद्ध उपदेश करना निरर्थक है। हम उनके विरुद्ध प्रचार करें भी तो क्यों? संसार में मनुष्यों के सामने जो प्रतीक हैं, उसके पीछे जो वस्तु या तत्व है, उस तत्व के प्रतिनिधि रूप में वे उन प्रतीकों का उपयोग न करें, इसमें तो कोई युक्तिसंगत बात दिखाई नहीं देती। यह विश्व भी तो एक प्रतीक ही है, जिसमें और जिसके द्वारा हम उसकी उस उपलक्षित वस्तु को ग्रहण करने का प्रयत्न कर रहे हैं, जो उसके पीछे है, उसके अतीत है।

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