आज विनोबा भावे के जन्मदिवस पर..

कर्म का फल अवश्य ही मिलता है। लेकिन फल की इच्छा का त्याग करने से काम में गुणवत्ता तो आती है, व्यक्ति का नैतिक उत्थान भी होता है। आचार्य विनोबा भावे के जन्मदिवस (11 सितंबर) पर उनका गीता-चिंतन. विनोबा भावे (11 सितंबर,1

By Edited By: Publish:Thu, 11 Sep 2014 12:24 PM (IST) Updated:Thu, 11 Sep 2014 12:30 PM (IST)
आज विनोबा भावे के जन्मदिवस पर..

कर्म का फल अवश्य ही मिलता है। लेकिन फल की इच्छा का त्याग करने से काम में गुणवत्ता तो आती है, व्यक्ति का नैतिक उत्थान भी होता है। आचार्य विनोबा भावे के जन्मदिवस (11 सितंबर) पर उनका गीता-चिंतन.

विनोबा भावे

(11 सितंबर,1895 - 15 नवंबर,1982)

प्रसिद्ध गांधीवादी, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, 'भूदान यज्ञ' आंदोलन के प्रणेता और विचारक-दार्शनिक आचार्य विनोबा भावे एक संत के रूप में विख्यात हुए। उन्होंने वेद, वेदांत, गीता, रामायण, कुरान, बाइबिल आदि अनेक धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन-मनन किया।

कर्म करते हैं, उनकी दोहरी भावना होती है। एक तो यह कि अपने कर्म का फल हम अवश्य चखेंगे, यह हमारा अधिकार है। इसके विपरीत, दूसरी यह कि यदि हमें फल चखने को न मिले, तो हम कर्म ही नहीं करेंगे। गीता इन दोनों के अतिरिक्त एक तीसरी ही भावना या वृत्ति बताती है। वह कहती है - 'कर्म तो अवश्य करो, पर फल में अपना अधिकार मत मानो।' जो कर्म करता है, उसे फल का अधिकार अवश्य है, परंतु तुम उस अधिकार को स्वेच्छा से छोड़ दो। रजोगुण कहता है- लूंगा तो फल के सहित ही और तमोगुण कहता है- छोड़ूंगा तो कर्म समेत ही। ये दोनों एक-दूसरे के भाई ही हैं। अत: तुम इन दोनों से ऊपर उठकर शुद्ध सत्वगुणी बनो अर्थात कर्म तो करो, पर फल को छोड़ दो। पहले या बाद में कभी भी फल की आशा मत रखो।

गीता सिर्फ इतना ही नहीं कहती। इसके साथ गीता यह भी बताती है कि कर्म को उत्तमता और दक्षता से करना चाहिए। सकाम व्यक्ति की अपेक्षा निष्काम व्यक्ति का कर्म अधिक अच्छा होना चाहिए। यह अपेक्षा उचित ही है, क्योंकि सकाम पुरुष तो फलासक्त है। फल संबंधी स्वप्न-चिंतन में उसका थोड़ा-बहुत समय और शक्ति अवश्य लगेगी। परंतु फल की इच्छा रहित व्यक्ति का प्रत्येक क्षण और सारी शक्ति कर्म में लगी रहेगी। जिस प्रकार नदी को छु˜ी नहीं, हवा को विश्राम नहीं, सूर्य सदैव जलता ही रहना जानता है, इसी प्रकार निष्काम कर्म करने वाला सतत सेवा कर्म को ही जानता है। अब यदि ऐसे निरंतर कर्मरत व्यक्ति का कर्म उत्कृष्ट न होगा, तो किसका होगा? फिर चित्त की समता एक बड़ा ही उत्तम गुण है और वह तो निष्काम व्यक्ति की बपौती ही है। किसी कारीगरी के काम में कुशलता के साथ ही यदि चित्त के समत्व का भी योग हो, तो यह प्रकट है कि वह काम और भी सुंदर बन जाएगा। इसके अतिरिक्त सकाम और निष्काम व्यक्ति की कर्म-दृष्टि में जो अंतर है, वह भी निष्काम व्यक्ति के कर्म के अधिक अनुकूल है। सकाम व्यक्ति कर्म की ओर स्वार्थ-दृष्टि से देखता है। परंतु निष्काम व्यक्ति की तो अपने कर्म के विषय में नैतिक कर्तव्य बुद्धि रहती है। अत: वह तत्परता से इस बात की सावधानी रखता है कि अपने काम में थोड़ी सी भी कमी न रह जाए। इसलिए भी उसका कर्म अधिक निर्दोष होगा। किसी भी तरह देखिए, फल-त्याग अत्यंत कुशल एवं यशस्वी तत्व सिद्ध होता है। अत: फल-त्याग को योग अथवा जीवन की कला कहना चाहिए।

यदि निष्काम कर्म की बात छोड़ दें, तो भी खुद कर्म में जो आनंद है, वह उसके फल में नहीं है। अपना कर्म करते हुए जो एक प्रकार की तन्मयता होती है, वह आनंद का एक श्चोत ही है। चित्रकार से कहिए- चित्र मत बनाओ, इसके लिए तुम चाहे जितने पैसे ले लो, तो वह नहीं मानेगा। किसान से कहिए- खेत पर मत जाओ, हल मत चलाओ, जितना अनाज तुम्हें चाहिए हम दे देंगे। यदि वह सच्चा किसान होगा तो वह यह सौदा

पसंद नहीं करेगा। किसान प्रात:काल खेत पर जाता है। सूर्यनारायण उसका स्वागत करते हैं। पक्षी उसके लिए गाना गाते हैं। गाय-बैल उसके आसपास घिरे रहते हैं। वह प्रेम से उन्हें सहलाता है। जो झाड़-पेड़ लगाए हैं, उनको भर-नजर देखता है। इन सब कामों में एक सात्विक आनंद है। यह आनंद ही उस कर्म का मुख्य और सच्चा फल है। इसकी तुलना में उसका बाच् फल बिल्कुल ही गौण है।

गीता जब मनुष्य की दृष्टि कर्म-फल से हटा लेती है, तो वह इस तरकीब से कर्म में उसकी तन्मयता सौगुनी बढ़ा देती है। फल-निरपेक्ष व्यक्ति की कर्म-विषयक तन्मयता समाधि जैसी होती है। इसलिए उसका आनंद औरों से सौगुना अधिक होता है। इस तरह देखें तो यह बात तुरंत समझ में आ जाती है कि निष्काम कर्म स्वयं ही एक महान फल है। ज्ञानदेव ने ठीक ही कहा है - वृक्ष में फल लगते हैं, फल में और क्या फल लगेंगे। इस देह रूपी वृक्ष में निष्काम स्वधर्माचरण जैसा सुंदर फल लग चुकने पर अब अन्य

किसी फल की क्यों अपेक्षा रखें? किसान खेत में गेहूं बोए और गेहूं बेचकर ज्वार की रोटी क्यों खाए? सुस्वादु केले लगाए और उन्हें बेचकर मिर्च क्यों खाए? अरे भाई केले ही खाओ न। पर लोकमत को यह स्वीकार नहीं है। केले खाने का भाग्य लेकर भी लोग मिर्च पर टूटते हैं। गीता कहती है - तुम ऐसा मत करो, कर्म को ही खाओ, कर्म को ही पियो और कर्म को ही पचाओ। कर्म करने में ही सब कुछ आ जाता है। बच्चा खेलने के आनंद के लिए खेलता है। इससे उसे व्यायाम का फल अपने आप ही मिल जाता है। परंतु उस फल की ओर उसका ध्यान नहीं रहता। उसका सारा आनंद उस खेल में ही रहता है।

पुंडलीक का चरित्र फलत्याग का गहरा आदर्श सामने रखता है। पुंडलीक अपने मां-बाप की सेवा कर रहा था। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर पांडुरंग (ईश्वर) दौड़े आए। परंतु पुंडलीक ने पांडुरंग के चक्कर में पड़कर अपने उस सेवा कार्य को छोड़ने से इनकार कर दिया। अपने मां-बाप की सेवा उसके लिए सच्ची ईश्वर भक्ति थी। कोई लड़का यदि दूसरों को लूट-खसोटकर अपने मां-बाप को सुख पहुंचाता हो अथवा कोई देश सेवक दूसरे देश से द्रोह करके अपने देश का उत्कर्ष चाहता हो, तो दोनों की वह भक्ति नहीं कहलाएगी। वह तो आसक्ति हुई। पुंडलीक ऐसी आसक्ति में फंसा नहीं। वह भगवान से बोला - 'आप स्वयं मुझे दर्शन देने के लिए आए हैं, यह मैं समझता हूं, पर मेरे लिए तो आप भी भगवान हैं और ये माता-पिता भी। इनकी सेवा में लगे रहने के कारण मैं आपकी ओर ध्यान नहीं दे सकता, इसके लिए क्षमा कीजिए।

पुंडलीक की यह भावना भी फल त्याग की युक्ति का अंग है। फल-त्यागी पुरुष का कर्म समाधि जैसा होता है। वैसी ही उसकी वृत्ति व्यापक, उदार और सम हो जाती है। इस कारण वह विविध तत्वज्ञान के जंजाल में नहीं पड़ता और न अपना सिद्धांत छोड़ता है। नान्यदस्तीति वादिन - यही है, दूसरा बिल्कुल नहीं। ऐसे विवाद में वह नहीं पड़ता। यह भी सही है और वह भी सही है, परंतु मेरे लिए तो यही सही है। ऐसी उसकी नम्र और निश्चयी वृत्ति रहती है।

( 'गीता प्रवचन' से)

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