शंकराचार्य जयंती: आधुनिकता के प्रणेता

आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत दर्शन द्वारा लोगों के बीच खाइयों को पाटने का प्रयास कर धर्म और दर्शन में आधुनिकता की नींव रखी। उनकी जयंती (23 अप्रैल) पर विशेष...

By Preeti jhaEdited By: Publish:Thu, 23 Apr 2015 11:01 AM (IST) Updated:Thu, 23 Apr 2015 11:06 AM (IST)
शंकराचार्य जयंती: आधुनिकता के प्रणेता

आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत दर्शन द्वारा लोगों के बीच खाइयों को पाटने का प्रयास कर धर्म और दर्शन में आधुनिकता की नींव रखी। उनकी जयंती (23 अप्रैल) पर विशेष...

आठवीं शताब्दी की शुरुआत का लगभग दो दशक वैचारिक दृष्टि से भारत के लिए ऐसा क्रांतिकारी समय रहा, जो आज तक भारतीय दर्शन एवं लोक चेतना के केंद्र में बना हुआ है। यही वह काल था, जब आदि शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ था। ये मूलत: थे तो केरल के, लेकिन इन्होंने अपना कार्यक्षेत्र चुना उत्तर-भारत को, और बाद में देश की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित करके अपने विचारों को पूरे भारत तक पहुंचा दिया।

आश्चर्य इस बात पर होता है कि इतने विशाल देश की चेतना पर इतना व्यापक और इतना गहरा प्रभाव डालने का चमत्कार इन्होंने केवल 32 वर्ष की आयु में ही कर दिखाया।

वस्तुत: शंकराचार्य के विचारों की मूल शक्ति भारतीय दर्शन एवं प्रकृति के उस सूक्ष्म तत्व में निहित है, जहां वह अलग-अलग, यहां तक कि एक-दूसरे से विपरीत धाराओं के सम्मिलन से एक महासागर का रूप धारण कर लेती है। शंकराचार्य का वह दर्शन, जिसे हम अद्वैत वेदांत कहते हैं, में उन्होंने ब्रह्म और जीवन को एक ही मानकर उसकी जबर्दस्त भौतिकवादी व्याख्या करके अपने समकालीनों को चमत्कृत कर दिया था। यह खंडन के स्थान पर मंडन को लेकर चला। और भारत ने इसे अपने सिर-माथे पर लिया।

आदि शंकराचार्य ने बताया कि जीव की उत्पत्ति ब्रह्म से ही हुई है। जैसे कि झील में तरंगें पानी से ही उत्पन्न होती हैं, इसलिए ये दोनों अलग-अलग नहीं हैं। एक ही हैं। लेकिन जैसे तरंगें पानी में होते हुए भी पानी नहीं हैं, वैसे ही जीव भी ब्रह्म नहीं है। दरअसल अज्ञानता, जिसे हम सभी 'मायाÓ के नाम से जानते हैं, जीव को ब्रह्म से अलग कर देती है। फलस्वरूप जीव भटकने लगता है। तो फिर इसका उपाय क्या है? उपाय बहुत सरल है और सहज भी। उपाय है-ज्ञान। विवेक से प्राप्त ज्ञान के सहारे जीव फिर से अपने मूल स्वरूप को, जो उसके ब्रह्म का स्वरूप है, प्राप्त कर सकता है। यानी व्यक्ति अंत तक संभावना में बना रहता है। यह अद्भुत है और क्रांतिकारी भी।

जाहिर है कि शंकराचार्य अपने अद्वैत दर्शन द्वारा दो तथ्य प्रतिपादित करने में अत्यंत सफल रहे। पहला था समानता का सिद्धांत, यानी कि यदि सभी में ब्रह्म है, सभी में एक ही तत्व है, तो फिर कैसी ऊंची-नीची जातियां और कौन छोटा-बड़ा धर्म। दूसरे, उन्होंने समाज में ज्ञान की प्रतिष्ठा स्थापित की। ज्ञान को सर्वोपरि माना।

यह ज्ञान डिग्री का ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान ग्रंथों का ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान 'समझदारी का पर्याय है, 'बोधÓ का पर्याय है, जिसे उन्होंने 'विवेकÓ कहा है। अंग्रेजी में इसे 'विज्डमÓ कह सकते हैं, और संस्कृत में 'प्रज्ञाÓ। चूंकि ऐसे विचार शाश्वत होते हैं, इसलिए उनकी प्रासंगिकता पर विचार करने की जरूरत ही नहीं होती है।

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