परोपकार का अर्थ है दूसरों की भलाई करना

कबीरदास कहते हैं कि एक दिन न धन रहेगा, न यौवन ही साथ होगा। घर भी छूट जाएगा, रहेगा तो अपना यश, यह तभी संभव है कि हमने किसी का काम किया हो।

By Preeti jhaEdited By: Publish:Mon, 05 Sep 2016 11:55 AM (IST) Updated:Mon, 05 Sep 2016 11:59 AM (IST)
परोपकार का अर्थ है दूसरों की भलाई करना
परोपकार का अर्थ है दूसरों की भलाई करना

परोपकार का अर्थ है दूसरों की भलाई करना। परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है। परोपकार ऐसा कार्य है, जिससे शत्रु भी मित्र बन जाता है। यदि शत्रु पर विपत्ति के समय उपकार किया जाए तो वह भी सच्चा मित्र बन सकता है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अजरुन से कहते हैं कि शुभ कर्म करने वालों का न यहां और न ही परलोक में विनाश होता है। शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है। सच्चा परोपकारी वही व्यक्ति है जो प्रतिफल की भावना न रखते हुए परोपकार करता है। एक बार एक संत आम के पेड़ की छाया में आराम कर रहे थे, तभी कुछ बच्चे आम तोड़ने के लिए पेड़ की ओर पत्थर फेंकने लगे। इसी बीच एक पत्थर संत के सिर पर लगा और खून बहने लगा। अब बच्चों को यह डर सताने लगा कि अब संत उन्हें श्रप देंगे। इस डर से बच्चे वहां से भागने लगे, लेकिन संत ने उनको अपने पास बुलाया और कहा, तुमने वृक्ष पर पत्थर मारा और उसने तुम्हें आम खाने को दिए, लेकिन मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दे पा रहा हूं। संत की परोपकार की भावना सुनकर बच्चे उनके आगे नत्मस्तक हो गए। असल में, सूर्य, चंद्रमा, वायु, अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी, पेड़-पौधे आदि सभी मानव कल्याण में लगे रहते हैं। ऐसे में हर मानव का भी कर्तव्य है कि वह दूसरों के काम आए।
समाज में ऐसे अनेक त्यागी, संन्यासी हुए हैं जिन्होंने मानव-सेवा और मानव कल्याण में अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने उसके बदले में कुछ नहीं चाहा, बल्कि स्वयं अपार कष्ट सहकर भी अपना मार्ग नहीं छोड़ा। महर्षि दधीचि के बारे में सभी जानते हैं कि उन्होंने अपनी अस्थियां तक उन्हें दान दे दी थीं ताकि इंद्र उससे अस्त्र-शस्त्र बनाकर राक्षसों से युद्ध लड़ें और मानव को सुखी बना सकें। देहदान की वह परंपरा आज भी मौजूद है। विज्ञान ने आज इतनी उन्नति कर ली है कि मरने के बाद भी हमारे शरीर के तमाम अंग किसी अन्य व्यक्ति के जीवन को बचाने का काम कर सकते हैं। दान कर देना महान उपकार है। जीवित रहते हुए दूसरों की सेवा करना और मरने के बाद भी दूसरों की पीड़ा दूर करने वाले पुरुष नहीं बल्कि महापुरुष होते हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि एक दिन यह न धन रहेगा, न यह यौवन ही साथ होगा। गांव और घर भी छूट जाएगा, पर रहेगा तो अपना यश, यह तभी संभव है कि हमने किसी का काम किया हो। जब विष्णु भगवान ने परोपकार और मोक्षपद दोनों को तौलकर देखा, तो उपकार का पलड़ा ज्यादा झुका हुआ था।

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