सुख की तलाश ही परमात्मा की तलाश है : ओशो

जीवन में सुख की तलाश ही परमात्मा की तलाश है। इसके ल‍िए मनुष्य की जन्म की प्रक्रिया को समझना जरूरी है। आइए इसे जानें अध्यात्म गुरू ओशो रजनीश के व‍िचारों में...

By shweta.mishraEdited By: Publish:Thu, 15 Jun 2017 01:12 PM (IST) Updated:Thu, 15 Jun 2017 01:12 PM (IST)
सुख की तलाश ही परमात्मा की तलाश है : ओशो
सुख की तलाश ही परमात्मा की तलाश है : ओशो

 बच्चा डूब नहीं सकता

प्रश्न: आपने कहीं कहा है कि मनुष्य की सुख की खोज ही बताती है कि मनुष्य दुखी है। क्या मनुष्य दु:ख लेकर ही जन्म लेता है? उसका यह बुनियादी दु:ख क्या है? और क्या इस दु:ख का निरसन भी है? मनुष्य की जन्म की प्रक्रिया को समझना जरूरी है। मां के पेट में तो बच्चा अपूर्व सुख जानता है, स्वभावत: न कोई चिंता, न कोई फिक्र। भोजन की भी योजना नहीं करनी होती। वह भी अनायास अपने आप मां से मिलता है। श्वास भी खुद लेनी नहीं पड़ती, मां लेती है और बच्चा तो तैरता है मां के गर्भ में जैसे क्षीरसागर में विष्णु। क्षीरसागर में विष्णु की कल्पना निश्चय ही मां के पेट में बच्चे के तैरने की कल्पना से पैदा हुई है। मां के पेट में जल और नमकों का ऐसा मिश्रण होता है कि बच्चा डूब नहीं सकता। एक विशेष मात्रा में अगर पानी में नमक मिला दिया जाए तो फिर उसमें आदमी डूब नहीं सकता। 

मृत सागर की खूबी 

तुमने भूगोल में पढ़ा होगा, यूरोप में मृत सागर है। मृत सागर की खूबी यही है, उसमें इतना लवण इकट्ठा हो गया है कि उसमें मछली भी जी नहीं सकती। उसमें कोई प्राणी नहीं जीता। इस लिहाज से वह मृत है और उसकी दूसरी खूबी यह है, उसमें तुम किसी आदमी को डुबाना भी चाहो तो डुबा नहीं सकते। आदमी के वजन से ज्यादा वजन पानी का हो गया है। ठीक वही स्थिति मां के पेट में होती है। मां के पेट में तापमान बिल्कुल एक रहता है। नौ महीने बच्चा इस शून्य में, इस ध्यान में, इस सुविधा में, इस सुरक्षा में, इस स्वाभाविकता में जीता है, उसे सुख का अनुभव होता है। हालांकि उसे पता नहीं चलता कि यह सुख है। सुख का पता तो तब चलेगा जब दु:ख का पता चलेगा। सुख की याद तो पीछे आएगी मगर पता चले या न चले, बड़ी सुखद दशा है। 

फिर नौ महीने के बाद एक उपद्रव घटता है और दु:ख की शुरुआत होती है। 

अनजान जगत में प्रवेश

नौ महीने जिस सुविधा में रहा है, वहां से बच्चा एक अज्ञात, अनजान जगत में प्रवेश करता है। बच्चा पैदा हुआ नहीं कि हमने तत्क्षण उसकी नाल काटी। हम झटके देते हैं। बच्चा अगर श्वास नहीं लेता तो डॉक्टर उसकी टांगों को पकड़ कर शीर्षासन करवा देता है, उलटा लटकाकर उसकी पीठ को थपथपा देता है जोर से, ताकि घबड़ाहट में उसकी श्वास शुरू हो जाए। यह कोई जिंदगी को शुरू करने की व्यवस्था हुई? यह तो हिंसात्मक व्यवहार हुआ। फिर सारा शिक्षण अस्वाभाविक है। हम बच्चे के स्वभाव को स्वीकार नहीं करते। हम उसके ऊपर आदर्श थोपते हैं। हम बच्चे को मौका नहीं देते कि वह वैसा जी ले जैसा जीने को पैदा हुआ है। हम उसके चारों तरफ ढांचे, चरित्र, नियम, मर्यादाएं बांधते हैं। हम लक्ष्मण-रेखाएं खींचते हैं। हम बच्चे को विकृत करते हैं, अप्राकृतिक करते हैं फिर दु:ख घना होता जाता है। अस्वाभाविक हो जाने का नाम दु:ख है। 

स्वभाव के अनुकूल होते

स्वाभाविक होने का नाम सुख है। जब भी हम स्वभाव के अनुकूल होते हैं, तब सुख होता है। तुम खुद ही अपने जीवन में थोड़ी जांच करना। जब भी तुम स्वभाव के अनुकूल होते हो, तब एक सुखद आभा तुम्हें घेर लेती है और जब भी तुम स्वभाव के प्रतिकूल होते हो, तब एक दु:ख, पीड़ा, एक घाव, तुम्हारी आत्मा में एक नासूर बन जाता है और हमारी पूरी जीवन-प्रक्रिया जिसको हम शिक्षण कहते हैं। जिसको हम बच्चे को संस्कार देना कहते हैं। अजीब-अजीब संस्कार हैं। फिर जो भी बच्चा करना चाहता है, वही हम गलत बताते हैं। जो भी बच्चे को प्रीतिकर है, उसमें कुछ गलती है और जो भी हम उस पर थोपना चाहते हैं, वह बच्चे को प्रीतिकर नहीं है। इस द्वंद्व में, इस फांसी में जीवन का सारा सुख छिन जाता है और धीरे-धीरे हम एक ऐसे मनुष्य को पैदा करते हैं, जो अत्यंत दु:ख से भरा हुआ मालूम पड़ता है। 

तुम नाम कुछ भी दे दो

तो एक तो प्रत्येक मनुष्य को सुख का कहीं अचेतन में अनुभव है और दूसरा, जीवन बड़ा दु:ख है। जीवन बिल्कुल उससे विपरीत है और इसीलिए सुख की तलाश है। सुख की तलाश ही धर्म है। सुख की तलाश ही परमात्मा की तलाश है। तुम नाम कुछ भी दे दो। आनंद कहो, मोक्ष कहो, महासुख कहो, परमात्मा कहो, निर्वाण कहो, कुछ भेद नहीं पड़ता। आदमी एक ऐसी अवस्था की खोज कर रहा है, जहां दुख न हो, जहां दुख का कांटा न हो, जहां दुख जरा भी साले न और यह खोज स्वाभाविक है। लेकिन इस खोज में बाधा डालने वाले लोग हैं क्योंकि वे चाहते हैं, तुम खोजते ही रहो, खोज न पाओ। खोजते रहो तो उनका धंधा चले। खोज ही लो तो उनका धंधा समाप्त हो जाए।

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