कृष्ण – एक मनमोहक और प्यारा चोर

कृष्ण का पूरा जीवन ही लीला और माधुर्य से ओतप्रोत है, लेकिन 8 के इस अंक से प्रेरित हो कर, उनकी 8 अनूठी लीलाएं ।

By Preeti jhaEdited By: Publish:Sat, 20 Aug 2016 01:18 PM (IST) Updated:Sat, 20 Aug 2016 01:23 PM (IST)
कृष्ण – एक मनमोहक और प्यारा चोर

भगवान कृष्ण को मधुरता का भगवान कहा जाता है। श्रीमद वल्लाभाचार्या ने अपनी रचना मधुराष्टकं के द्वारा, 8 पदों में, श्री कृष्ण के हर कायाकलाप, उनके हाव-भाव, उनके व्यक्तित्व और उनसे जुड़ी हर सजीव और निर्जीव वस्तु की मधुरता का वर्णन किया है। भगवान के जन्म की तिथि, कृष्ण जन्माष्टमी , भी श्रावण के कृष्ण पक्ष की अष्टमी का दिन है।

वैसे तो भगवान कृष्ण का पूरा जीवन ही लीला और माधुर्य से ओतप्रोत है, लेकिन 8 के इस अंक से प्रेरित हो कर, हमने उनकी 8 अनूठी लीलाएं चुनने का फैसला किया। आइये जानते हैं इन लीलाओं की मिठास:

भगवान श्री कृष्ण का अवतरण

वासुदेव और देवकी की आठवीं संतान आने से पहले कंस बहुत घबरा गया। वासुदेव और देवकी को नजऱबंद करके रखा गया था, लेकिन बाद में वासुदेव को जंजीरों में बांध दिया गया और देवकी को एक कारागार में डाल दिया गया। भाद्र कृष्ण अष्टमी को आधी रात को देवकी के यहां आठवीं संतान ने जन्म लिया। उस वक्त बादल गरज रहे थे और तेज बारिश हो रही थी। कुछ होने के डर से कंस ने किसी को भी कारागार में जाने की अनुमति नहीं दी थी। उसने पूतना नाम की अपनी एक भरोसेमंद राक्षसी को दाई के तौर पर देवकी पर नजर रखने को कहा था। योजना कुछ इस तरह थी कि जैसे ही बच्चे का जन्म होगा, पूतना उसे कंस को सौंप देगी और उसे मार दिया जाएगा। प्रसव पीड़ा शुरू हुई। दर्द होता और कम हो जाता, फिर होता और फिर कम हो जाता। पूतना प्रतीक्षा करती रही, पर कुछ नहीं हुआ। तभी वह अपने घर गई। शौचालय से लौटकर जैसे ही वह वापस कारागार आने के लिए निकली, मूसलाधार बारिश होने लगी। सडक़ों पर पानी भर गया और इस स्थिति में पूतना वापिस कारागार नहीं पहुंच सकी। उसी समय बच्चे के जन्म के साथ एक चमत्कार हुआ। कारागार के द्वार स्वयं खुल गए। सभी सिपाही सो गए और जंजीरें खुल गईं।

शीघ्र ही वासुदेव ने अंतर्ज्ञान से दैवीय शक्ति को पहचान लिया, और बच्चे को लेकर यमुना नदी की ओर चल दिए। हालांकि सब जगह पानी बह रहा था, फिर भी उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि नदी के घाट सट गये और वह सरलता से पार कर गये। वह नदी पार करके नन्द और उनकी पत्नी यशोदा के घर पहुंचे। तभी यशोदा ने एक बच्ची को जन्म दिया था, और वह पीड़ा के कारण बेसुध थीं। वासुदेव ने बच्ची को कृष्ण से बदल दिया, और उसे लेकर वापस जेल में आ गए।

तभी बच्ची रोने लगी। सिपाहियों ने कंस को सूचित कर दिया। तब तक पूतना भी आ चुकी थी।

कंस ने जब लडक़ी को देखा तो उसे लगा कि कुछ गलत हुआ है, इसलिए उसने पूतना से पूछा, ‘क्या तू बच्ची के जन्म के समय वहीं थी ?’ पूतना डर गई और बोली, ‘मैंने अपनी आंखों से देखा है, यह देवकी की ही बच्ची है।’ देवकी और वासुदेव कहने लगे, ‘यह बच्ची तुम्हे नहीं मार सकती। यदि यह लडक़ा होता, तभी तुम्हारा काल बनता। इसलिए इस बच्ची को छोड़ दो।’ लेकिन कंस बोला कि वह कोई संभावना नहीं रखना चाहता। उसने तुरंत बच्ची को उठाया, और जैसे ही वह उसे ज़मीन पर पटकने लगा, वह उसके हाथों से छूटकर आकाश की ओर उड़ गई और हंसकर बोली, ‘तुझे मारने वाला तो कहीं और है!’

अब कंस को सच में वहम हो गया। उसने वहां सब से पूछताछ की। सिपाही सो गए थे और पूतना चली गई थी। जाहिर है, कोई भी कुछ बताने की स्थिति में नहीं था। लेकिन कंस संतुष्ट नहीं हुआ। उस बच्ची की कही गई बात उसे मन ही मन परेशान करती रही। भाद्र का महीना था। उसने भाद्र मास में जन्मे सभी बच्चों को मारने के लिए अपने लोग भेज दिए। शुरू में ये लोग कुछ बच्चों को लेकर आए और उन्हें मार दिया, लेकिन इससे जनता के बीच असंतोष और गुस्सा पनप गया। लोगों ने इसका विरोध किया। कंस को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा। फिर उसने पूतना को बुलाकर कहा, ”सैनिकों द्वारा बच्चों को मारने का विरोध हो रहा है। तुम महिला हो। तुम घर-घर जाओ और भाद्र के महीने में पैदा हुए बच्चों को मार डालो।’ पूतना ने ऐसा करने से मना कर दिया, लेकिन कंस के जोर देने पर उसने हामी भर दी।

पूतना हर घर में जाती और श्रावण मास में पैदा हुए बच्चों को मार देती। इस तरह उसने नौ बच्चों को मार दिया। वह और बच्चों को नहीं मारना चाहती थी। वह कंस के पास गई और बोली, ”काम हो गया है।’ कंस बोला, ”तुम झूठ बोल रही हो। ऐसा कैसे हो सकता है कि भाद्र के महीने में बस नौ ही बच्चे पैदा हुए हों। और भी बच्चे होंगे। जाओ और पता करो।’ पूतना गई और फिर आकर कंस से कहा, ”बस नौ ही बच्चों ने इस महीने जन्म लिया था। मैंने उन सभी को मार डाला है। अब इस महीने पैदा हुआ कोई बच्चा नहीं बचा है।‘

तो इस तरह कृष्ण को पशु पालक समाज में पहुंचा दिया गया। एक राजान्यास का बेटा होने के बावजूद उनका लालन पालन एक आम ग्वाले जैसा हुआ।

कृष्ण की शिशु लीला

जब कृष्ण तीन माह के थे, तब उनके गांव में पूर्णिमा पर्व मनाया जा रहा था, जो कि ग्रामीण संस्कृति का हिस्सा होता था। वैसे तो हर दिन एक त्योहार होता था, लेकिन पूर्णिमा का दिन इसका अच्छा बहाना था। दोपहर में सभी परिवार नदी किनारे एकत्रित होते थे। वहीं भोजन पकाते और सायंकाल नृत्य करते थे। सभी महिलाएं भोजन बनाने में व्यस्त थीं और बालक इधर उधर खेल रहे थे। दिन में धूप के कारण माता यशोदा ने कृष्ण को वहीं खड़ी बैलगाड़ी के नीचे सुला दिया। कुछ देर बाद जब वह उठे तो उन्होंने देखा कि कोई उनकी ओर ध्यान नही दे रहा है। वह भी बाहर जाकर नृत्य करना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने गाड़ी के पहिए को लात मारी और पूरी गाड़ी टूट गई।

यह उनके दैवीय शक्ति का पहला प्रदर्शन था, जिसे वह आवश्यकता पडऩे पर ही इस्तेमाल में लाते थे, नहीं तो वह एक साधारण मनुष्य की भांति ही जीवन के संघर्ष से गुजरते थे। बस कुछ खास मौकों पर वह अपनी अलौकिक शक्तियों का प्रदर्शन करते थे। तो बैलगाड़ी के टूटने से लोग घबरा गए कि कहीं बालक को चोट तो नहीं लग गई, लेकिन उसे कुछ नहीं हुआ था। कुछ बच्चों ने कहा कि कृष्ण ने गाड़ी को लात मारी और वह गिर गई, परन्तु किसी ने भी इस बात पर विश्वास नहीं किया कि तीन माह का बालक गाड़ी को लात भी मार सकता है। सभी बड़ों ने इसे बच्चों की कोरी कल्पना समझकर नकार दिया, लेकिन कृष्ण ने दिव्य शक्तियों का प्रदर्शन करना जारी रखा।

कृष्ण – एक मनमोहक और प्यारा चोर

अगर आप कृष्ण की बालभूमि गोकुल नगरी के बारे में जानना चाहते हैं तो आपको अपने अंदर एक ख़ास स्थिति बनानी होगी। अद्भुत था कृष्ण का बाल्य जीवन – उनका मनमोहक चेहरा, अनुपम मुस्कान, बांसुरी और उनका नृत्य ऐसा था जिससे लोग आनंद में डूब जाते थे। यह एक ऐसा आनंद था, जिसे उन्होंने पहले कभी नहीं जाना था। वह पूरी बिरादरी को इतने बेसुध कर देते थे, कि लोग उनके लिए पागल हो उठते थे। कृष्ण के बालपन के बारे में काफी कुछ कहा और लिखा गया है। उनके ऊपर असंख्य गीत भी लिखे गए हैं। यह कथा लगभग 3500 साल पुरानी है, जबकि ऐसा लगता है जैसे यह कल की ही बात हो।
बछड़े, गाय, चरवाहे और ऊपर टंगी मटकियां उनके बालपन से संबंधित हैं। ये सभी ग्रामीण संस्कृति के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। आज भी भारत के गांवों में दही और मक्खन ऊंची टंगी मटकियों में ही रखा जाता है, ताकि ये चीजें जानवरों और बच्चों से बची रहें।

कृष्ण यह बात बड़ी मस्ती में कहते थे कि मैंने माखन चुराया। अगर मैं माखन नहीं चुराता तो गांववालों को आनंद ही नहीं आता। कृष्ण और उनके मित्र दूसरे लोगों की छतों की खपरैल खोलकर उनके घर में घुस जाते थे। मटकी ऊंचाई पर टंगी होने के कारण वे एक दूसरे के कंधों पर पैर रखकर उस तक पहुंचते थे। अगर मटकी बहुत ऊंचाई पर होती थी तो वे पत्थर मारकर उसमें छेद कर देते थे। इससे उसमें रखा दही या मक्खन टपकने लगता था, और वे उसके नीचे मुंह खोलकर खड़े हो जाते थे। कभी मटकी पूरी फूट जाती थी, तो वे जमीन से उठाकर ही उसे जल्दी-जल्दी खाना शुरू कर देते थे। वे इस मक्खन या दही को मित्रों के बीच बांट लेते थे, लेकिन फिर भी दही और मक्खन बच जाता था। दरअसल, कुछ ही बहादुर बच्चे होते थे, जो इस काम को अंजाम देते थे! ऐसे में वे बचा हुआ दही या मक्खन बंदरों को खिला दिया करते थे।

यह बहुत ही अस्वाभाविक सा लगता है, क्योंकि यह ऐसा है जैसे आपके फ्रिज पर पड़ोस के बच्चों ने धावा बोल दिया हो। इस बात से कुछ महिलाएं नाराज होती थीं तो कुछ दुखी हो जाती थीं, परंतु वे आजकल के लोगों जैसी नहीं थीं। आज लोग ऐसी बातों से आपे से बाहर हो सकते हैं, लेकिन वे ऐसी नहीं थीं। वे नाराज होती थीं, क्योंकि दही और मक्खन उनकी आजीविका थी। वे लगातार कृष्ण की माता जी से शिकायत करती रहती थीं। जब वे उनकी माता से शिकायत करने उनके घर पहुंचती थीं तो वे अपनी माता के पीछे छिप जाते थे, और उन गोपियों की तरफ मासूम सी नजरों से देखने लगते थे, जिससे सब मुस्करा देती थीं। मजे की बात यह है कि ये गोपियां गुस्से में तो और भी अच्छी लगती थीं। बस आप उन की तरफ प्यार भरी नजरों से देख लें, वे अपने आप ही खुश हो जाती थीं।

जब राधा और कृष्ण ने पहली बार देखा एक दुसरे को

जब कृष्ण ने गोपियों के कपड़े चुराए तो यशोदा माँ ने उन्हें बहुत मारा और फिर ओखली से बांध दिया। कृष्ण भी कम न थे। मौका मिलते ही उन्होंने ओखली को खींचा और उखाड़ लिया और फौरन जंगल की ओर निकल पड़े, क्योंकि वहीं तो उनकी गायें और सभी सथी संगी थे।
अचानक जंगल में उन्हें दो महिलाओं की आवाजें सुनाईं दीं। कृष्ण ने देखा वे दो बालिकाएं थीं, जिनमें से छोटी वाली तो उनकी सखी ललिता थी और दूसरी जो उससे थोड़ी बड़ी थी, उसे वह नहीं जानते थे, लेकिन लगभग 12 साल की इस लड़की की ओर वह स्वयं ही खिंचते चले गए।
दोनों लड़कियों ने उनसे पूछा कि क्या हुआ? तुम्हें इस तरह किसने बांध दिया? यह तो बड़ी क्रूरता है! किसने किया यह सब? उन दोनों में जो 12 वर्षीय लड़की थी, उसका नाम राधे था।

जिस पल राधे ने सात साल के कृष्ण को देखा, उसके बाद वे कभी उनकी आँखों से ओझल नहीं हुए। जीवन भर कृष्ण राधे की आँखों में रहे, चाहे वह शारीरिक तौर पर उनके साथ हों या न हों।
खैर, राधे ने कृष्ण को लकड़ी की ओखली से खोलने की कोशिश की। मगर कृष्ण उन्हें रोक दिया और कहा, ‘इसे मत खोलो। मैं चाहता हूं कि इसे मां ही खोले, जिससे उनका गुस्सा निकल सके।’ इन लड़कियों ने पूछा, ‘क्या हम तुम्हारे लिए कुछ और कर सकते हैं?’ इस पर कृष्ण ने अपनी सखी ललिता से कहा, ‘मुझे पानी चाहिए। मेरे लिए पानी ले आओ।’ दरअसल, पानी के बहाने वह उसे वहां से हटाना चाहते थे! ललिता पानी लेने चली गई और सात साल के कृष्ण और 12 साल की राधे साथ-साथ बैठ गए। इस एक मुलाकात में ही ये दोनों एक दूसरे में विलीन होकर एक हो गए और फिर उसके बाद से उन्हें कोई अलग न कर सका।


कृष्ण जब 16 साल के हुए, जिंदगी ने उनके रास्ते बदल दिए। कृष्ण को अपनी बांसुरी पर बड़ा गर्व था। उनकी बांसुरी थी ही इतनी मंत्रमुग्ध कर देने वाली। लेकिन 16 साल की उम्र में जब वह शारीरिक तौर से राधे से अलग हुए, तो उन्होंने न सिर्फ अपनी बांसुरी राधे को दे दी, बल्कि उसके बाद जीवन में फिर कभी उन्होंने बांसुरी नहीं बजाई।

कृष्ण और राधे की पहली रास लीला

गोकुल और बरसाना के ग्वाले, वृंदावन नाम की एक जगह पर जाकर बस गए थे। वृंदावन काफी खुली और हरी-भरी जगह थी। ये नई बस्ती कई मायनों में पुरानी मान्यताओ को तोड़ने वाली और ज्यादा खुशहाल साबित हुई। चूंकि ये लोग अपने पुराने परंपरागत घरों को छोड़कर आए थे इसलिए इनके पास पहले से अधिक आजादी थी। यह नई जगह ज्यादा समृद्ध और खूबसूरत थी। खासतौर पर युवाओं और बच्चों को यहां इतनी आजादी मिली, जिसे उन्होंने पहले महसूस नहीं किया था। यहां चीजें वाकई काफी अलग थीं। इन बच्चों के समूह में राधे थोड़ी बड़ी थीं। वह कभी किसी दायरे में बंधकर नहीं रही और उसे समाज में एक अलग ही आजादी मिली थी। ऐसी आजादी, जिसके बारे में दूसरी लड़कियां सोच भी नहीं सकती थीं। राधे लड़कियों का नेतृत्व करती थीं और जबकि कृष्ण लड़कों का और फिर इन दोनों की अगुआई में हर्ष और उल्लास से भरे मिलाप होते थे। कृष्ण सात साल के थे और राधे 12 की, उनके साथ उन्हीं की उम्र के बच्चों की एक बड़ी टोली रहा करती थी।

वृंदावन में होली का त्योहार आया। इस रंगीन माहौल में, जब हर चीज अपने चरम पर थी, पूर्णिमा की एक विशेष शाम को लड़के और लड़कियों की ये टोलियां यमुना नदी के किनारे इकट्ठी हुईं। नई जगह के इस माहौल की वजह से कई पुरानी परंपराएं टूट गईं और पहली बार ये छोटे लड़के व लड़कियां नहाने के लिए नदी पर एक साथ पहुंचे। पहले तो इन टोलियों ने खेलना शुरू किया।

इसके बाद उनका एक-दूसरे पर पानी उछालने और बालू व मिट्टी फेंकने का खेल शुरू हुआ। इस बीच वे एक-दूसरे को देखकर चिढ़ाते थे और बीच-बीच में गालियां देने का दौर भी चलता था। थोड़ी देर बाद जब इस खेल का जोश बढ़ता गया, तो बच्चों ने मिलकर नाचना शुरू किया और फिर हर्ष व उल्लास के अपने जुनून में वे नाचते गए और नाचते ही गए। लेकिन कुछ देर बाद थकान होने पर वे धीरे-धीरे एक-एक करके गिरने लगे। जब कृष्ण ने अपने इन साथियों को इस तरह थककर गिरते देखा, तो उन्होंने अपने कमरबंद से बांसुरी निकाली और मंत्रमुग्ध करने वाली एक धुन बजानी शुरू कर दी। कृष्ण की बांसुरी की यह धुन अत्यंत मनमोहक थी, जिसे सुनकर सभी उठ खड़े हुए और वे फिर सभी मस्ती में झूमते गए और झूमते गए। वे इस धुन में नाचते-नाचते इतने मगन हो गए कि वे अपने-आप ही कृष्ण के चारों ओर जमा हो गए। नाच का यह दौर लगभग आधी रात तक यूं ही चलता रहा।

कृष्ण के प्रेम-विरह में राधे

जब कृष्ण के प्रति राधा का प्रेम समाज को चुभने लगा तो घर से उनके निकलने पर रोक लगा दी गई। लेकिन कृष्ण की बंसी की धुन सुनकर राधा खुद को रोक नहीं पाती थी।
एक दिन पूर्णिमा की शाम थी। राधे को बांसुरी की मधुर आवाज सुनाई दी। उन्हें लगने लगा कि अपने शरीर को छोडक़र बस वहां चली जाएं। कृष्ण को राधे की इच्छा और उस पीड़ा का अहसास हुआ, जिससे वह गुजर रही थीं। वह उद्धव और बलराम के साथ राधे के घर गए और उसकी छत पर जा चढ़े।

उन्होंने राधे के कमरे की खपरैल को हटाया, धीरे-धीरे नीचे उतरे और राधे को आजाद कर दिया। इतने में ही बलराम भी छत से नीचे आ गए। उन्होंने कृष्ण और राधे दोनों को उठाया और बाहर आ गए। इसके बाद सभी ने पूरी रात खूब नृत्य किया। अगली सुबह जब मां ने देखा तो राधे अपने बिस्तर पर सो रही थीं।
पूर्णिमा का यह अंतिम रास था। कृष्ण ने माता यशोदा से कहा कि वह राधे से विवाह करना चाहते हैं।

इस पर मां ने कहा, ‘राधे तुम्हारे लिए ठीक लडक़ी नहीं है; इसकी वजह है कि एक तो वह तुमसे पांच साल बड़ी है, दूसरा उसकी मंगनी पहले से ही किसी और से हो चुकी है। जिसके साथ उसकी मंगनी हुई है, वह कंस की सेना में है। अभी वह युद्ध लडऩे गया है। वह जब लौटेगा तो अपनी मंगेतर से विवाह कर लेगा। इसलिए तुम्हारा उससे विवाह नहीं हो सकता। वैसे भी जैसी बहू की कल्पना मैंने की है, वह वैसी नहीं है। इसके अलावा, वह कुलीन घराने से भी नहीं है। वह एक साधारण ग्वालन है और तुम मुखिया के बेटे हो। हम तुम्हारे लिए अच्छी दुल्हन ढूंढेंगे।’ यह सुनकर कृष्ण ने कहा, ‘वह मेरे लिए सही है या नहीं, यह मैं नहीं जानता। मैं तो बस इतना जानता हूं कि जब से उसने मुझे देखा है, उसने मुझसे प्रेम किया है और वह मेरे भीतर ही वास करती है। मैं उसी से शादी करना चाहता हूं।’

मां और बेटे के बीच यह वाद-विवाद बढ़ता गया। माता यशोदा के पास जब कहने को कुछ न रहा तो बात पिता तक जा पहुंची। माता ने कहा, ‘देखिए आपका बेटा उस राधे से विवाह करना चाहता है। वह लडक़ी ठीक नहीं है। वह इतनी निर्लज्ज है कि पूरे गांव में नाचती फिरती है।’ उस वक्त के समाज के बारे में आप अंदाजा लगा ही सकते हैं। कृष्ण के पिता नंद बड़े नरम दिल के थे, अपने पुत्र से बेहद प्रेम करते थे। उन्होंने कृष्ण से इस बारे में बात की, लेकिन कृष्ण ने उनसे भी अपनी बात मनवाने की जिद की। ऐसे में नंद को लगा कि अब कृष्ण को गुरु के पास ले जाना चाहिए।

वही उसे समझाएंगे। गर्गाचार्य और उनके शिष्य संदीपनी कृष्ण के गुरु थे। गुरु ने कृष्ण को समझाया, ‘तुम्हारे जीवन का उद्देश्य अलग है। इस बात की भविष्यवाणी हो चुकी है कि तुम मुक्तिदाता हो। इस संसार में तुम ही धर्म के रक्षक हो। तुम्हें इस ग्वालन से विवाह नहीं करना है। तुम्हारा एक खास लक्ष्य है।’ कृष्ण बोले, ‘यह कैसा लक्ष्य है, गुरुदेव? अगर आप चाहते हैं कि मैं धर्म की स्थापना करूं, तो क्या इस अभियान की शुरुआत मैं इस अधर्म के साथ करूं? आप समाज में धार्मिकता और साधुता स्थापित करने की बात कर रहे हैं। क्या यह सही है कि इस अभियान की शुरुआत एक गलत काम से की जाए?’ गुरु गर्गाचार्य ने कहा, ‘धर्मविरुद्ध काम करने के लिए तुमसे किसने कहा?’

कृष्ण ने कहा, ‘आठ साल पहले जब मुझे ओखली से बांध दिया गया था, तो यह लडक़ी मेरे पास आई थी। तभी उसकी नजर मुझ पर पड़ी।

उस पल से मैं ही उसके जीवन का आधार बन चुका हूं। उसका दिल, उसके शरीर की हर कोशिका मेरे लिए ही धडक़ती है। एक पल के लिए भी वह मेरे बिना नहीं रही है। अगर एक दिन मुझे न देखे तो वह मृतक के समान हो जाती है। वह पूरी तरह मेरे भीतर निवास करती है और मैं उसके भीतर। ऐसे में अगर मैं उससे दूर चला गया, तो वह निश्चित ही मर जाएगी। मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब सांपों वाली घटना हुई, अगर मैं वहीं मर जाता तो गांव में दुख तो बहुत से लोगों को होता, लेकिन राधे वहीं अपने प्राण त्याग देती।’ देखो, हर कोई सोचता है कि कृष्ण अजेय हैं, वह मर नहीं सकते, लेकिन खुद कृष्ण अपनी नश्वरता के प्रति पूरी तरह सजग थे। गर्गाचार्य ने कहा, ‘तुम्हें नहीं लगता, तुम पूरी घटना को कुछ ज्यादा ही बढ़ा चढ़ाकर बता रहे हो?’ कृष्ण ने कहा, ‘नहीं, मैं बढ़ा चढ़ाकर नहीं बता रहा हूं। यही सच है।’ गर्गाचार्य ने दोबारा कहा, ‘तुम मुक्तिदाता हो, तुम्हें धर्म की स्थापना करनी है।’ कृष्ण बोले, ‘मैं मुक्तिदाता नहीं बनना चाहता। मुझे तो बस अपनी गायों से, बछड़ों से, यहां के लोगों से, अपने दोस्तों से, इन पर्वतों से, इन पेड़ों से प्रेम है और मैं इन्हीं के बीच रहना चाहता हूं।’ यह सब सुनने के बाद गर्गाचार्य को लगा कि अब समय आ गया है कि कृष्ण को उनके जन्म की सच्चाई बता दी जाए।

कृष्ण ने उतारा महान पहलवान चाणूर को मौत के घाट

कंस ने अपने बहुत पुराने सलाहकार को बुलाया और कहा कि कैसे भी कृष्ण को चाणूर के साथ कुश्ती के लिए अखाड़े में बुलाओ। चाणूर और मुष्टिक, दो बड़े पहलवान थे जो कई सालों से किसी से भी नहीं हारे थे। उन्हें बताया गया कि उन्हें कृष्ण और बलराम को अखाड़े में आने का लालच देकर मार देना है। कंस के सलाहकार और मंत्री ने कहा कि आप ऐसा कैसे कर सकते हैं ? चाणूर महान पहलवान है और वह एक सोलह साल के बालक के साथ नहीं लड़ सकता क्योंकि यह धर्म और खेल के नियम दोनों के खिलाफ है। कंस ने कहा – भाड़ में जाएं नियम। मुझे यह काम पूरा चाहिए वरना इस समारोह के अंत तक तुम जिंदा नहीं बचोगे। खैर, मंत्री को कंस की बात माननी पड़ी और पूरी योजना बना ली गई।
बाहुयुद्ध के नियमानुसार अखाड़े में कोई भी किसी को जान से नहीं मार सकता था। अगर एक पहलवान ने दूसरे पहलवान को जमीन पर पटक दिया और उसका सिर दस से पंद्रह सेकंड तक जमीन से छुआ रहा तो इसे खेल का अंत मान लिया जाता था। इसे चित करना कहते थे। खेल के ये नियम होने के बावजूद चाणूर लोगों को बहुत बुरे तरीके से घायल करता था और उसके बेहद भारी शरीर की वजह से कई बार तो लोग मर भी जाते थे। वह बहुत भारी मांसपेशियों वाला ही नहीं था, बल्कि सूमो पहलवान की तरह उसके शरीर पर बहुत ज्यादा चर्बी थी और उसकी कमर का घेरा भी बहुत बड़ा था।

कई पहलवानों ने कुश्ती लड़ी। बहुत लोग जीते और कई हारे भी। चाणूर ने अखाड़े के चारों ओर चक्कर लगाने शुरू कर दिए। ताल ठोकते हुए उसने लोगों के पास जाकर पूछा – कोई है जो मेरे साथ कुश्ती लड़ सके? वहां एक राजसी घेरा था जिसमें मेहमान और बड़े ओहदे वाले लोग बैठे थे। कृष्ण और बलराम साधारण कपड़े पहने हुए गांववालों के लिए बनाए गए घेरे में बैठे थे, क्योंकि उन्हें कहीं भी जाने के लिए राजसी बुलावा नहीं मिला था। चाणूर जानबूझकर उस घेरे के सामने गया जिसमें कृष्ण और बलराम बड़ी उत्सुकता से खेल देखने के लिए बैठे थे। उसने कृष्ण को ताना मारते हुए कहा – अरे नंद पुत्र, तुम भी आए हो ? सब कहते हैं कि तुम कुश्ती में बड़े पारंगत हो। तुम्हीं मेरे साथ कुश्ती क्यों नहीं लड़ते?
तभी लोगों ने चिल्लाना शुरू कर दिया – नहीं-नहीं, एक छोटा सा बालक तुम्हारे साथ कैसे लड़ सकता है?

चाणूर चाहता था कि कैसे भी कृष्ण को गुस्सा दिलाकर अखाड़े में बुला ले, लेकिन उन्हें गुस्सा नहीं आया और वह हमेशा की तरह शांत रहे। दरअसल, उन्हें गुस्सा तभी आता था, जब वह चाहते थे। उनकी सजगता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उनके लिए यह पूरा जीवन और पूरी धरती एक रंगमंच की तरह थी। अखाड़े में कूदकर अपनी मर्दानगी या किसी और चीज को साबित करना उनके लिए कोई मजबूरी नहीं थी, इसलिए चाणूर के हर ताने का जवाब उन्होंने केवल अपनी मुस्कुराहट से दिया।

यह देखकर चाणूर को गुस्सा आ गया। उसने कहा – ‘तुम मेरे साथ कुश्ती लड़ने क्यों नहीं आते? क्या तुम मर्द नहीं हो?’ यह एक तरह की प्रथा थी कि अगर कोई क्षत्रिय किसी को ललकारता था तो उसे आकर लड़ना पड़ता था। आपको पता है कि पश्चिम में अगर कोई किसी को द्वंद्व युद्ध के लिए उकसाता था तो वह पीछे नहीं हट सकता था क्योंकि ऐसा करने से उसकी प्रतिष्ठा को ठेस लगती थी।

चाणूर के उकसाने पर सोलह साल के कृष्ण ने कहा – ‘मुझे मेरे पिता की आज्ञा नहीं है इसीलिए मैं तुम्हारे साथ नहीं लड़ सकता।’ चाणूर बोला – ‘तुम्हारे पिता तुम्हें लड़ने की अनुमति कैसे देंगे, क्योंकि वह जानते हैं कि तुम ग्वालों के साथ सिर्फ नाच ही सकते हो।’ कृष्ण मुस्कुराकर बोले – ‘हां, मैं सारी रात रास कर सकता हूं।’ चाणूर ने कृष्ण के पिता को गाली देते हुए कहा – ‘तुम सही नस्ल के नहीं लगते, इसीलिए मेरे साथ आकर नहीं लड़ पा रहे हो।’ कृष्ण ने अपने पिता को देखा और कहा – ‘पिताजी, मुझे आज्ञा दीजिए क्योंकि अब यह अपनी सीमा को लांघ चुका है।’ यह कहकर कृष्ण ने अपने राजसी कपड़े उतारे और लंगोटी को बांधकर अखाड़े में उतर आए।
इसी बीच दूसरे चैंपियन पहलवान मुष्टिक ने बलराम पर ताना कसने की कोशिश की। बलराम को ताना मारकर क्रोधित करना आसान था! जैसे ही कृष्ण अखाड़े में उतरे, बलराम भी इसे अपने लिए आज्ञा मानते हुए तुरंत अखाड़े में उतर आए। इससे पहले कि मुष्टिक कुछ कर पाता, बलराम उस पर झपट पड़े और कुछ ही सैकंडों में उसकी गर्दन मरोड़कर उसे मौत के घाट उतार दिया। लोग यह विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि अठारह-उन्नीस साल के एक लड़के ने जिसका अखाड़े जीतने का कोई पुराना रिकॉर्ड भी नहीं है, एक धुरंधर पहलवान की गर्दन मरोड़ दी।

अब पहाड़ की तरह दिखने वाले चाणूर और सोलह साल के फुर्तीले और चुस्त कृष्ण के बीच पहलवानी की प्रतियोगिता शुरू होने वाली थी। लोग चाणूर को कोस रहे थे और कृष्ण की जय-जयकार कर रहे थे। चाणूर कृष्ण को पकड़कर मरोड़ने की कोशिश कर रहा था। इस भागदौड़ की वजह से कृष्ण इतने फुर्तीले हो गए कि चाणूर उन पर अपना हाथ भी नहीं रख पा रहा था। कृष्ण ने चाणूर की एक ऐसी बात पर गौर किया जो अभी तक किसी ने नहीं देखी थी और वह यह कि चाणुर अपने बाएं पैर का इस्तेमाल थोड़ा संभलकर कर रहा था, मानो उसके उस पैर में दर्द हो

जब – जब कृष्ण चाणूर के बाएं पैर में मारते तो उसे बहुत ज्यादा दर्द महसूस होता। कई बार तो वह गिर भी गया। भीड़ यह भरोसा नहीं कर पा रही थी कि एक बालक के मारने से इतना बड़ा पहलवान चाणूर गिर रहा है। कृष्ण ने उसे थका दिया। चाणूर की सारी ताकत उसका भारी शरीर ही था, लेकिन कृष्ण ने उसे इतना दौड़ाया कि वह हांफने लगा।

जब कंस ने देखा कि चाणूर उस बालक को नहीं संभाल पा रहा है तो उसे बहुत गुस्सा आया। वह यह सोचकर भी डर गया कि अगर कृष्ण ने चाणूर को मार दिया तो अगला नंबर उसका होगा। थोड़ी देर बाद कृष्ण ने चाणूर के कंधों पर चढ़कर उसकी गर्दन तोड़ दी। इसी के साथ कुश्ती खत्म हो गई और एक बड़ा जश्न शुरू हो गया।

कृष्ण को हुआ अपने असली स्वरूप का बोध

गर्गाचार्य ने कृष्ण को नारद द्वारा उनके बारे में की गई भविष्यवाणी के बारे में बताया। पहली बार उन्होंने कृष्ण के साथ यह राज साझा किया कि वह नंद और यशोदा के पुत्र नहीं हैं।
कृष्ण बचपन से नंद और यशोदा के साथ रह रहे थे। अचानक उन्हें बताया गया कि वह उनके पुत्र नहीं हैं। यह सुनते ही वह वहीं उठ खड़े हुए और अपने अंदर एक बहुत बड़े रूपांतरण से होकर गुजरे। अचानक कृष्ण को महसूस हुआ कि हमेशा से कुछ ऐसा था, जो उन्हें अंदर ही अंदर झकझोरता था। लेकिन वह इन उत्तेजक भावों को दिमाग से निकाल देते थे और जीवन के साथ आगे बढ़ जाते थे। जैसे ही गर्गाचार्य ने यह राज कृष्ण को बताया, उनके भीतर न जाने कैस-कैसे भाव आने लगे! उन्होंने गुरु से विनती की, ‘कृपया, मुझे कुछ और बताइए।’ गर्गाचार्य कहने लगे, ‘नारद ने तुम्हें पूरी तरह पहचान लिया है। तुमने सभी गुणों को दिखा दिया है। तुम्हारे जो लक्षण हैं, वे सब इस ओर इशारा करते हैं कि तुम ही वह शख्स हो, जिसके बारे में तमाम ऋषि मुनि बात करते रहे हैं। नारद ने हर चीज की तारीख, समय और स्थान तय कर दिया था और तुम उन सब पर खरे उतरे हो।’

कृष्ण अपने आसपास के लोगों और समाज के लिए पूरी तरह समर्पित थे। राधे और गांव के लोगों के प्रति उनके मन में गहरा लगाव और प्रेम था, लेकिन जैसे ही उनके सामने यह राज आया कि उनका वहां से संबंध नहीं है, वह किसी और के पुत्र हैं, उनका जन्म कुछ और करने के लिए हुआ है,तो उनके भीतर सब कुछ बदल गया। ये सब बातें उनके भीतर इतने जबर्दस्त तरीके से समाईं कि वह चुपचाप उठे और धीमे कदमों से गोवर्द्धन पर्वत की ओर चल पड़े।

पर्वत की सबसे ऊंची चोटी तक पहुंचे और वहां खड़े होकर आकाश की ओर देखने लगे। सूर्य अस्त हो रहा था और वह अस्त हो रहे सूर्य को देख रहे थे। अचानक उन्हें ऐसा लगा, जैसे एक जबर्दस्त शक्ति उनके भीतर समा रही है।

यहीं उनके अंदर ज्ञानोदय हुआ और उस पल में उन्हें अपना असली मकसद याद आ गया। वह कई घंटों तक वहीं खड़े रहे और अपने भीतर हो रहे रूपांतरण और तमाम अनुभवों को देखते और महसूस करते रहे।
वह जब पर्वत से उतरकर नीचे आए तो पूरी तरह से बदल चुके थे। चंचल और रसिक ग्वाला विदा हो चुका था, उसकी जगह उनके भीतर अचानक एक गहरी शांति नजर आने लगी, गरिमा और चैतन्य का एक नया भाव दिखने लगा। जब वह नीचे आए तो अचानक वे सभी लोग उनके सामने नतमस्तक हो गए, जो कल तक उनके साथ खेलते और नृत्य करते थे। उन्होंने कुछ नहीं किया था। वह बस पर्वत पर गए, वहां कुछ घंटों के लिए खड़े रहे और फिर नीचे आ गए। इसके बाद जो भी उन्हें देखता, वह सहज ही, बिना कुछ सोचे समझे उनके सामने नतमस्तक हो जाता।
कृष्ण को पता था कि अब उन्हें वहां से विदा लेना है। जाने से पहले उन्होंने एक रास का आयोजन किया। जाने से पहले वह अपने उन लोगों के साथ एक बार और नृत्य कर लेना चाहते थे। उन्होंने जमकर गाया, नृत्य किया।

हर किसी को पता था कि वह जा रहे हैं, लेकिन राधे थीं कि भीतर ही भीतर परम आनंद के एक जबर्दस्त उन्माद से सराबोर थीं और भावनाओं की सामान्य हदों से कहीं आगे निकल गई थीं। वह इतनी ज्यादा भाव-विभोर और आनंदमय हो गईं कि अपने आसपास की हर चीज से वह बेफ्रिक हो गईं। कृष्ण जानते थे कि राधे के साथ क्या घट रहा है। वह उनके पास गए, उन्हें बांहों में लिया, अपनी कमर से बांसुरी निकाली और उन्हें सौंपते हुए बोले, ‘राधे, यह बांसुरी सिर्फ तुम्हारे लिए है। अब मैं बांसुरी को कभी हाथ नहीं लगाऊंगा।’ इतना कहकर वह चले गए। इसके बाद उन्होंने कभी बांसुरी नहीं बजाई। उस दिन के बाद से राधे ने कृष्ण की तरह बांसुरी बजानी शुरू कर दी।

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