होली: प्यार के रंगों का पर्व

होली मुक्त व स्वच्छंद हास-परिहास का त्योहार है। नाचने-गाने, हंसी-ठिठोली और मौज-मस्ती की त्रिवेणी है होली। सुप्त मन की कंदराओं में पड़े ईष्र्या-द्वेष, राग-विराग जैसे कलुषित व गंदे विचारों को तन-मन से सदा के लिए निकाल बाहर फेंकने का सबसे सुंदर अवसर भी है होली। लगता है कि दुर्भावनाओं और मन में गहरे बैठ चुके मालिन्य को पूरी तरह से ि

By Edited By: Publish:Tue, 18 Mar 2014 01:23 PM (IST) Updated:Tue, 18 Mar 2014 04:01 PM (IST)
होली: प्यार के रंगों का पर्व

होली मुक्त व स्वच्छंद हास-परिहास का त्योहार है। नाचने-गाने, हंसी-ठिठोली और मौज-मस्ती की त्रिवेणी है होली। सुप्त मन की कंदराओं में पड़े ईष्र्या-द्वेष, राग-विराग जैसे कलुषित व गंदे विचारों को तन-मन से सदा के लिए निकाल बाहर फेंकने का सबसे सुंदर अवसर भी है होली। लगता है कि दुर्भावनाओं और मन में गहरे बैठ चुके मालिन्य को पूरी तरह से मिटाने व परस्पर प्रेमभाव बढ़ाने के लिए ही विधाता ने होली बनाई होगी। तभी तो होली की रंगीली छटा के छाते ही मनमुटाव या आपसी वैर-विरोध सब खत्म हो जाता है।

फागुन की मनभावन बयार ऐसी है जो बिना किसी भेदभाव के सबमें मादकता भरकर मन की थिरकन को और तेज कर देती है। साहित्यिक इतिहास में न केवल संस्कृत के रससिद्ध काव्यकारों ने, बल्कि देशज भाषाओं के अनेक भक्त-कवियों ने भी राधा-कृष्ण के रंगीले होली प्रेम में आसक्त होकर अपनी लेखनी को धन्य बनाया है। इन कवियों की वृत्ताकार काव्य यात्र का केंद्र है राधा-कृष्ण का होली प्रेम और ब्रज के अनूठे फागुनी रंग।

होली वैदिक परंपरा से चले आ रहे चार त्योहारों में एक है। इस संदर्भ में एक तथ्य बहुत कम ही लोग जानते हैं कि होली कृषि और कृषि से जुड़ा पवित्र उत्सव है, जो कदाचित सृष्टि के आदिकाल से ऋषियों और कृषकों द्वारा मनाया जाता रहा है। आश्रमों में ऋषि और वटुक फागुन में 'सामवेद' के मंत्रों का गान करते थे, वहीं नई फसल के पकने पर किसान चटकीले फागुन में रंग-बिरंगी 'होली' खेलते थे। शास्त्र परंपरा ने होली को 'अग्नि' से मिलाया। भला, पके धान्य को ऐसे थोड़े ही खाना है? खेतों में लहलहा रही बालियां कोई साधारण नहीं, बल्कि माता लक्ष्मी का मुख हैं।

इसीलिए खेतों में चमचमा रही जौ-गेहूं की बालियों को सबसे पहले 'अग्नि देवता' को समर्पित किया जाता है। फिर होली की अग्निज्वाला में नवीन धान्य को पकाकर बालियों को प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। स्पष्ट है कि होली हमारे जीवन को चलाने वाला उत्सव भी है।

अब जरा यह राग-अनुराग देखिए, होली पर प्रेम की कैसी आंख-मिचौनी है कि चहुं ओर होली का हुड़दंग मचा हुआ है। होली की उमंग और मादकता ने क्या स्त्री और क्या पुरुष, सभी की लाज-शरम हटाकर रख दी है। कहते है कि पूरे ब्रज में एक भी ऐसी नवेली नारी नहीं जो होली पर नटखट कन्हैया के प्रेम में न रची हो। एक गोपी कृष्ण के सांवरे रंग में ऐसी रंगी कि श्यामसुंदर की सलोनी सूरत को इकटक निहारते हुए कान्हा से याचना करती है। भक्त रसखान यह सब देख रहे हैं-खेलिए फाग निसंक ह्वै आज, मयंक मुखी कहे भाग हमारौ, तेहु गुलाल छुओ कर में, पिचकारिन मैं रंग हिय मंह डारौ,भावे सु मोहि करो रसखान, जू पांव परों जनि घूंघट टारौ, वीर की सौंह हौं देखि हौं कैसे, अबीर तौ आंखि बचाय कै डारौ।

होली में वसंत की महक और फागुन की मस्ती का रसीला वातावरण ऐसा रूप धरता है कि ढप, ढोल, चंग, नगाड़े सभी साज-सजीले होकर जनमानस की उमंगों के संग स्वत: ही बजने लगते हैं। इस अवसर पर जैसा दिव्य रस धरती पर बरसता है वैसा कदाचित वैकुंठ में भी नहीं। दिव्य अध्यात्म में आज सब शरीर की सुध-बुध खो बैठे हैं। रसिकशिरोमणि परमात्मा श्रीकृष्ण के साथ होली खेलने की आत्मा की साधना अब पूरी होगी। फाग का मनोरथ पूरा होगा। संभवत: यह सोचते हुए ही द्वापर में एक गोपी श्रीकृष्ण को ढूंढने अकेली ही निकल पड़ी पर कन्हैया तो अंतर्यामी जो ठहरे। बस, मन से पुकारा और आ गए। अब जरा इधर देखिए, ब्रज की रंगीली गलियों में रस भरी होली हो रही है। रंग-बिरंगे परिधानों में सजे गोप-गोपियों का समूह कन्हैया का अनुराग रस पीने निकल पड़ा। होली की धमा-चौकड़ी से सारा ब्रज क्षेत्र पुलकित हो उठा। रसिकों से सुनी यह कथा कितना मन मोहती है कि होली पर गोकुल गांव में बेचारी बाहर की कोई नई बहू आई। भला वो क्या जाने कन्हैया की होली के रीति-रिवाजों को। जिधर भी जाए उधर ही होली का ऊधम। सांवरिया कन्हैया तो जगह-जगह ठिठोली करते फिर रहे हैं। संत नागरीदास ने इसी अनूठे फाग के रंग में भीगकर इस कथा का बड़ा सुंदर चित्रण किया-और हूं गांव सखी बहुतैं पर गोकुल गांम कौ पैड़ो ई न्यारौ। रसखान, नागरीदास तथा कई कृष्णभक्त कवियों ने होली के बड़े ही सरस वृत्तांत लिखे हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि श्रीकृष्ण हाथ में पिचकारी लेकर हम सभी जीवों को अपने आनंदरस के रंग में रंगने हेतु मोर्चा संभाले बैठे है। जब उनकी आनंद की पिचकारी सतरंगी धार छोड़ेगी तो भला क्या मजाल कि कोई बचकर निकल जाए! ऐसी धार पड़ेगी कि एक ही पिचकारी में जन्म-जन्मांतर रंगीले हो जाएंगे।

पर क्या वह भी कोई होली है जो आज खेलें और कल ही उतर जाए। जीवन में वसंत और होली की जुगलबंदी हो तो ऐसी कि श्रीकृष्ण का साथ और प्रेम का रंग कभी न छूटे। लाल-पीले-हरे-गुलाबी रंगों की वास्तविकता को पहचानने में सफल हो गए तो होली केवल आज के लिए ही नहीं, बल्कि सदा के लिए हमारे भीतर और बाहर को रंगीन बनाने वाली हो जाएगी। होली की ताल से अपनी थिरकन को मिलाकर हम पतझड़ से दूर ऐसे वसंत को जी सकते हैं, जहां हमेशा मिलन और एकता के रंगों की बहार है। हमारे देश के यौवन को रंगने वाली होली के रंग घृणा, द्वेष और कटुता के कालेपन को मिटाने के लिए हैं। इसीलिए होली के रंगों की जरूरत किसी एक दिन और माह के लिए नहीं, बल्कि सदा के लिए और सभी के लिए है। होली एक दिन या पखवाड़े का उत्सव नहीं है। यह पर्व तो आनंद के गीतों का है, एक-दूसरे में प्रेम-रंग रंगने का है। अब भले ही बदलते परिवेश की काली परछाईं हमारी आत्मा से जुड़े परंपरा के इन अनूठे रंगों को बदरंग करने पर तुली है, परंतु यह सनातन रंग तो ऐसा है जिसे बिना आंखों वाले सूरदास भी पहचानते हैं, तभी तो कहते हैं कि चढ़त न दूजो रंग।

(लेखक राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक हैं)

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