क्‍यों जरूरी है संगम धर्म और संस्कृति का

दीपावली हमारी संस्‍कृति और धर्म दोनों का अभिन्‍न हिस्‍सा है। इस त्‍योहार को मनाने के पहले समझ लें अपनी संस्‍कृति और परंपरा का ज्ञान क्‍यों आवश्‍यक है।

By Sakhi UserEdited By: Publish:Thu, 12 Oct 2017 03:15 PM (IST) Updated:Fri, 13 Oct 2017 03:14 PM (IST)
क्‍यों जरूरी है संगम धर्म और संस्कृति का
क्‍यों जरूरी है संगम धर्म और संस्कृति का

संगम धर्म और संस्कृति का
जीवन में सच्ची सफलता और सुख-शांति हासिल करने के लिए व्यक्ति का आध्यात्मिक उत्थान बहुत ज़रूरी है। यह तभी संभव होगा, जब वह धर्म और संस्कृति की अहमियत को समझते हुए, सन्मार्ग पर चले।
अगर आप से यह पूछा जाए कि धर्म क्या है?...तो ज्य़ादातर लोगों का  जवाब होगा- मंदिर जाना और पूजा-पाठ करना। यह बात पूरी तरह ठीक है लेकिन धर्म का अर्थ इससे कहीं ज्य़ादा व्यापक है। हमारी संतानों के लिए धर्म के मर्म को समझना ज़रूरी है। मनुष्य का अस्तित्व पांच प्रमुख स्तरों पर टिका होता है-आध्यात्मिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक और शारीरिक। इन पांचों में से सबसे पहले लोग शारीरिक आवश्यकताओं और उसके पोषण का ध्यान रखते हैं। इस संसार में भोजन के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है, जो ग्रहण करने के योग्य है। प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा बनाए गए नियमों और परंपराओं में भी ज्ञान का खज़ाना छिपा हुआ है, जो व्यक्ति को ज्ञानवान और सुसंस्कृत बनाने में मददगार साबित हो सकता है।

जीवन का शाश्वत सत्य
हमारे वेद-पुराणों में जीवन का शाश्वत सत्य समाहित है। चाहे ग्रह नक्षत्रों की गणना से जुड़ा विज्ञान हो या मौसम विज्ञान से जुड़ी भविष्यवाणी, प्राचीनकाल से ही हमारे ऋषि-मुनियों के पास ज्ञान-विज्ञान से जुड़े सभी सवालों के जवाब मौज़ूद थे। हमारे ग्रंथों में छिपा ज्ञान चाहे कितना ही पुरातन क्यों न हो, वह हर युग में प्रासंगिक और शाश्वत है। हमारे वेद-पुराणों के माध्यम से लोगों को यह संदेश देन का प्रयत्न किया गया है कि हमें अपने जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं। आज हर साल बारिश के मौसम में भूस्खलन और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की वजह से जब जान-माल का भारी नुकसान होता है तो हमारे वैज्ञानिक पर्यावरण संरक्षण की सलाह देते हैं क्योंकि पेड़ों और जंगल के नष्ट होने से पर्यावरण में असंतुलन पैदा हो जाता है। इसी वजह से आजकल वृक्षों को बचाने और नए पेड़ लगाने की सलाह दी जाती है। ऐसी बातें हमारी संस्कृति में शुरू से ही शामिल हैं। नदियों, पहाड़ों, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की पूजा करने की परंपरा हमारे समाज में सदियों से चली आ रही है। हमारी संस्कृति में प्रकृति को भी परमात्मा का ही अंश मानकर उसकी पूजा की जाती है। पेड़-पौधों में भी जीवन और संवेदना होती है। इस बात को वैज्ञानिकों ने भले ही बाद में सच साबित किया हो लेकिन हमारी संस्कृति में सदियों से ऐसी मान्यता चली आ रही है कि सूरज ढलने के बाद पेड़-पौधों को हाथ नहीं लगाना चाहिए क्योंकि उन्हें भी हमारी तरह आराम की ज़रूरत होती है। भोजन से पहले अपनी थाली से पशु-पक्षियों के लिए पहला ग्रास निकाल कर रखने की परंपरा भी यही सिखाती है कि पशु-पक्षियों के जीवन की रक्षा करना हमारी जि़म्मेदारी है।

कर्तव्यों का निर्वाह
हम सभी कर्तव्य भावना की बात करते हैं लेकिन प्रेम के बिना बात कैसे बनेगी? प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण के आदर्श हमें जीना सिखाते हैं। हम अपने जीवन की मामूली परेशानियों से उदास हो जाते हैं लेकिन कभी आप भगवान श्रीराम के जीवन को देखिए कि उनके राज्याभिषेक की तैयारी चल रही थी, उसी क्षण उन्हें वनवास का आदेश हो जाता है, तब भी वह अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए सहर्ष वन की ओर निकल पड़ते हैं। उन्होंने पल भर में राजमहल की सुख-सुविधाओं का त्याग कर कर्तव्य पथ पर चलने का निर्णय लिया। जब हम धर्म के व्यापक अर्थों की बात करते हैं तो यह भी एक प्रकार का धर्म है। यहां वह अपने पिता के प्रति पुत्र-धर्म का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। हमारी संस्कृति हमें लाभ-हानि के जोड़-घटाव की मानसिकता से ऊपर उठकर अपने परिवार और रिश्तों के लिए जीना सिखाती है। जब भी व्यक्ति अपने परिवार, देश या समाज की भलाई के लिए कोई बड़ा निर्णय लेता है तो उस दौरान उसे अपनी कई खुशियों का त्याग करना पड़ता है।

स्वस्थ जीवनशैली का संदेश
हमें अपने ऋषि-मुनियों द्वारा दिए ज्ञान पर भरोसा करना चाहिए क्योंकि वे अपने समय के महान वैज्ञानिक थे। उन्होंने हज़ारों वर्ष पहले ही हमारे जीवन की पूरी व्यवस्था को स्थापित कर दिया था। उन्होंने ही विधि-विधान बनाकर यह बताया कि आपको क्या और कैसे खाना चाहिए। हमारी दादी जब कढ़ी बनातीं तो उसमें हींग की छौंक लगाती थीं। इस सदियों पुरानी परंपरा की एक प्रमुख वजह यही है कि हींग भोजन को पचाने में मददगार होता है। इसलिए पारंपरिक जीवनशैली और खानपान अपने देश के मौसम और माहौल के अनुकूल है। हमें अपनी ऐसी अच्छी आदतों को बचाकर रखना चाहिए ताकि हमारी आने वाली पीढिय़ां भी स्वस्थ और खुशहाल रहें।  

करें कन्या का सम्मान 
यह देखकर मुझे बहुत दुख होता है कि जिस देश में कन्या पूजन की परंपरा है, वहीं कुछ स्त्रियां अपने गर्भ में पल रहे कन्या भ्रूण की हत्या कर देती हैं। जब मैं उनसे पूछती हूं कि तुम ऐसा क्यों करती हो तो उनका जवाब होता है कि 'स्त्री होना एक भारी दोष है क्योंकि वह हमेशा दूसरों पर निर्भर रहती है और उसे हर कदम पर दुखों का सामना करना पड़ता है। कई स्त्रियों से ऐसी बातें सुनने के बाद  मैंने यह विचार किया कि अब भारतीय स्त्रियों के लिए यह जानना बहुत ज़रूरी हो गया है कि सतयुग, त्रेता और द्वापर युगों में भारत की नारी कैसी थी? इसी उद्देश्य से हमने वृंदावन स्थित वात्सल्य ग्राम के मां सर्वमंगला मंदिर को 'सांस्कृतिक महातीर्थ बनाने का निर्णय लिया ताकि  वहां लोगों को अपने देश की गौरवशाली संस्कृति का दर्शन हो सके। यहां चारों युगों में भारतीय स्त्री की जीवन यात्रा को वात्सल्य ग्राम, वृंदावन में प्रदर्शित किया जाएगा। 'स्त्रियां दुर्बल और लाचार होती हैं, ऐसी नकारात्मक सोच से ऊपर उठकर हमें नारी जाति का सम्मान करना चाहिए।

ज़रूरी है क्रोध पर नियंत्रण
अपने क्रोध को नियंत्रित करने से पहले हमें जीवन की त्रिगुणात्मक शक्तियों के बारे में जानना ज़रूरी है। इन तीन गुणों में से जो भी अधिक प्रभावी होता है, व्यक्ति के स्वभाव में उसी की प्रधानता नज़र आती है। अपने क्रोध का शमन करने के लिए आप सात्विक आहार और व्यवहार अपनाएं। आप ऐसी भली प्रवृत्ति वाले लोगों के साथ मेलजोल बढ़ाएं ताकि आपके जीवन में सतोगुण का विकास हो। जब आपका सतोगुण बढ़ेगा तो आपका चित्त शांत रहेगा। यदि सामने वाला व्यक्ति आपके साथ दुव्र्यवहार भी करता है तो आप पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। दूसरे व्यक्ति के कटु वचन रूपी अंगारे आपके पास पहुंचते ही शांति के मानसरोवर में डूब कर क्षण भर में ही बुझ जाएंगे। ...लेकिन इसके विपरीत यदि आपका रजो गुण और तमो गुण प्रबल है तो फिर दूसरों द्वारा की गई निंदा आपको ठीक वैसे ही लगेगी, जैसे कोई अंगारा सूखी घास पर आकर गिरते ही धू-धूकर जल उठे। क्रोध व्यक्ति के मन में छिपा हुआ एक ऐसा प्रबल शत्रु है, जो दूसरों के लिए ही नहीं बल्कि खुद के लिए भी बहुत नुकसानदेह साबित होता है। अंतत: यह व्यक्ति के विनाश का कारण बन जाता है। अत: इस दुर्भावना को नियंत्रित करने की कोशिश करें। अपने बच्चों को भी ऐसी ही सीख दें।

भावी पीढ़ी को दें संस्कार
 हमारे धर्म का सबसे बड़ा वैज्ञानिक पक्ष यह है कि यह वैसी अच्छी आदतें सिखाता है, जो किसी व्यक्ति के जीवन को बदल सकती हैं। रोज मंदिर जाना भी उसी प्रक्रिया का एक छोटा सा हिस्सा है। द्वार पर दीपक जलाना इस प्रक्रिया का प्रारंभ है लेकिन जीवन में पूर्णता लाने के लिए अंतर्मन की ज्योति जाग्रत करना भी ज़रूरी है। बाहर भगवान की प्रतिमा का दर्शन अवश्य करें लेकिन आप अपने मूलाधार चक्र पर गणपति, स्वाधिष्ठान चक्र पर ब्रह्मा और अनाहत चक्र पर शिव के भी दर्शन करें। इनको समझने के लिए साधना से गुजरना, उसका अभ्यास और अध्ययन बहुत ज़रूरी है। मैं लोगोंको यह बताना चाहती हूं कि भावी पीढिय़ां भी यह समझें कि हमारा धर्म किस तरह जीवन को सकारात्मक दिशा दे सकता है। जब धर्म प्रदत्त व्यवस्था का संस्कार बचपन से होगा तो व्यक्ति का व्यवहार भी स्वत: अनुशासित होगा। 


आज के दौर में हमारे जीवन का दुखद और कटु सत्य यह है कि दूसरी सामाजिक बुराइयों की तरह धर्म के अंदर भी बहुत सारे पाखंड और आडंबर घुस आए हैं। यदि धर्म आपको डराता है तो फिर समझिए कि कुछ गड़बड़ है। यह बात हमेशा याद रखें कि धर्म मनुष्य को डराने का नहीं बल्कि निर्भय और सशक्त बनाने का माध्यम है। इसके मार्ग पर चलकर ही हमें जीवन में सुख-शांति मिलती है।

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