Bhagwat Geeta: कर्म को क्यों माना जाता है प्रधान? गीता में बताया गया है इसका महात्मय

हिंदू धार्मिक ग्रंथ भगवत गीता मनुष्य मात्र को प्रेरणा देने का काम करती आ रही है। इसकी उपयोगिता न केवल भारत तक सीमित है बल्कि विदेशों में भी गीता के विचारों को अपनाने वालों लोगों की संख्या बढ़ी है। ऐसे में सनातन धर्म में कर्म को मूल सिद्धांत माना गया है जिसका वर्णन गीता समेत कई धार्मिक ग्रंथों में मिलता है।

By Suman Saini Edited By: Suman Saini Publish:Thu, 25 Apr 2024 02:03 PM (IST) Updated:Thu, 25 Apr 2024 02:03 PM (IST)
Bhagwat Geeta: कर्म को क्यों माना जाता है प्रधान? गीता में बताया गया है इसका महात्मय
Bhagwat Geeta: गीता में क्या है कर्म का महत्व?

HighLights

  • हिन्दू धर्म में कर्म को माना गया है प्रधान।
  • कर्म के आधार पर ही तय होता है भविष्य।
  • गीता में बताया गया है कर्म का महत्व।

धर्म डेस्क, नई दिल्ली। Geeta ke Updesh: हिंदू धर्म में कर्म को विशेष महत्व दिया गया है। कई धार्मिक ग्रंथों में भी इसका महात्मय बताया गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होती है। माना जाता है कि जो व्यक्ति के कर्मों के आधार पर अपना जीवन व्यतीत करता है, उसे जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त होती है। ऐसे में यह कहा जाता सकता है कि व्यक्ति का भविष्य उसके कर्म के आधार पर ही तय होता है। यदि व्यक्ति के कर्म अच्छे हैं, तो वह नई ऊचाईंयों को छू सकता है, वहीं बुरे कर्म व्यक्ति को बर्बाद करने की भी ताकत रखते हैं। 

गीता में कही गई हैं ये बात

न हि कश्चित्मक्षमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृतृ

भगवत गीता का यह श्लोक कर्म के महत्व को दर्शाता है। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि निःसंदेह कोई भी क्षणभर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। ऐसे में कर्म करना ही प्रकृति का नियम है और इसका विरोध नहीं किया जा सकता।

यदि हम शरीर से कोई कर्म न भी कर रहे हों, तब भी हम मन और बुद्धि से क्रियाशील रहते हैं। जब तक हम इन गुणों के प्रभाव में रहते हैं तब तक कर्म करने के लिए हम विवश होते हैं। इसलिए कर्म का सर्वथा त्याग करना अंभव है, क्योंकि यह प्रकृति के नियम के विरुद्ध होगा।

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क्या कहते हैं भगवान कृष्ण?

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।।"

गीता के एक अन्य श्लोक में श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन से कहा गया है कि तेरा अधिकार केवल कर्म पर ही है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्म के फल के प्रति आसक्त न हो या कर्म न करने के प्रति प्रेरित न हो।'' अर्थात व्यक्ति केवल अपने कर्म पर ही नियंत्रण कर सकता है, उस कर्म से क्या फल प्राप्त होगा, यह व्यक्ति के हाथ में नहीं है। ऐसे में व्यक्ति को फल की चिंता किए बिना केवल अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए।

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