22 जून से कामख्‍या मंदिर में देवी होंगी रजस्‍वला, साधना के लिए दुनियाभर से जुटेंगे तांत्रिक

दुनियाभर के तांत्रिकों के लिये असम का गुवाहटी सबसे प्रसिद्ध स्‍थान है। क्‍योंकि यहां पर तंत्र साधना की देवी कामख्‍या का मंदिर है। जो देवी के सभी शक्तिपीठों में से एक है।

By prabhapunj.mishraEdited By: Publish:Wed, 21 Jun 2017 12:28 PM (IST) Updated:Wed, 21 Jun 2017 02:04 PM (IST)
22 जून से कामख्‍या मंदिर में देवी होंगी रजस्‍वला, साधना के लिए दुनियाभर से जुटेंगे तांत्रिक
22 जून से कामख्‍या मंदिर में देवी होंगी रजस्‍वला, साधना के लिए दुनियाभर से जुटेंगे तांत्रिक

असम में स्थित है देवी कामाख्या मंदिर

असम के गुवाहाटी से लगभग 9 किलोमीटर दूर नीलांचल पहाड़ी पर देवी कामाख्या मंदिर स्थित है। इस मंदिर को देवी के सभी शक्तिपीठों में से बहुत खास माना जाता है। धर्म ग्रथों के अनुसार यहां पर देवी सती का योनिभाग गिरा था। यहां पर देवी की मूर्ति नहीं बल्कि योनिभाग की ही पूजा होती है। जिसे हमेशा फूलों से ढ़ककर रखा जाता है। योनिभाग गिरने के कारण यहां पर मान्यता है कि यहां हर साल देवी रजस्वला होती है। जब देवी रजस्वला होती है उसे अम्बुवाची पर्व कहा जाता है। हर साल यह पर्व जून में तिथी के अनुसार मनाया जाता है। 

तांत्रिकों की सुप्रीम कोर्ट है यह मंदिर

कामाख्या देवी मंदिर तांत्रिकों और अघोरियों का गढ़ भी माना जाता है। यहां सालभर तांत्रिकों और अघोरियों का आना-जाना लगा रहता है। इस बार यह पर्व 22 जून से 24 जून के बीच मनाया जाएगा। अम्बुबाची मेले के दौरान यहां तांत्रिकों का खास उत्सव होता है। इस पर्व में शामिल होने के लिए दुनियाभर के तांत्रिक और अघोरि आते हैं। इस जगह को तांत्रिकों की सुप्रीम कोर्ट भी कहा जाता है। मान्यता है कि जो साधना कहीं नहीं फलती वह यहां साकार होती है। अम्बुवाची मेले के दौरान जब मां कामाख्या रजस्वला होती हैं तब देवी के योनि कुंड से जल प्रवाह कि जगह रक्त प्रवाह होता है। 

कलयुग में हर वर्ष में एक बार होता है अम्बुवाची पर्व

इस दौरान यहां के कुंड के आस-पास सफेद रंग का कपड़ा बिछा दिया जाता है। जिसके बाद मंदिर को बंद कर दिया जाता है। 3 दिनों बाद मंदिर को धूम–धाम और उत्सव के साथ खोला जाता है। तब वह सफेद वस्त्र लाल हो चुका होता है। मान्यता है कि ये वस्त्र देवी के रक्त से लाल होता है। इस पवित्र वस्त्र को अम्बुवाची वस्त्र कहां जाता है। इसे ही प्रसाद के रूप में भक्तों को बांटा जाता है। शास्त्रों के अनुसार यह पर्व सतयुग में 16 वर्ष में एक बार। द्वापर युग में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में सात वर्ष में एक बार और कलियुग में हर वर्ष में एक बार मानाया जाता है।

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