अक्षय तृतीया: जानिए, क्या करें इस दिन

अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं। पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक, इस दिन जो भी शुभ कार्य किए जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है। इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है। वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, लेकिन वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई ह

By Edited By: Publish:Mon, 13 May 2013 08:24 AM (IST) Updated:Mon, 13 May 2013 08:27 AM (IST)
अक्षय तृतीया: जानिए, क्या करें इस दिन

नई दिल्ली। अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं। पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक, इस दिन जो भी शुभ कार्य किए जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है। इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है। वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, लेकिन वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है।

भविष्य पुराण के मुताबिक, इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है, सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है। भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था। ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव भी इसी दिन हुआ था। इस दिन श्री बद्रीनाथ जी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए जाते हैं।

प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही पुन: खुलते हैं। वृंदावन स्थित श्री बांके बिहारी जी मंदिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं। जीएम हिंगे के अनुसार, तृतीया 41 घटी 21 पल होती है तथा धर्म सिंधु एवं निर्णय सिंधु ग्रंथ के अनुसार अक्षय तृतीया 6 घटी से अधिक होना चाहिए।

पद्म पुराण के अनुसार, इस तृतीया को अपराह्न व्यापिनी मानना चाहिए। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था। ऐसी मान्यता है कि इस दिन से प्रारंभ किए गए कार्य या इस दिन को किए गए दान का कभी भी क्षय नहीं होता।

मदनरत्न के अनुसार, 'अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥

उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यै:। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥'

महत्व:

अक्षय तृतीया का सर्वसिद्ध मुहूर्त के रूप में भी विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन बिना कोई पंचांग देखे कोई भी शुभ व मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषणों की खरीददारी या घर, भूखंड, वाहन आदि की खरीददारी से संबंधित कार्य किए जा सकते हैं। नवीन वस्त्र, आभूषण आदि धारण करने और नई संस्था, समाज आदि की स्थापना या उद्घाटन का कार्य श्रेष्ठ माना जाता है। पुराणों में लिखा है कि इस दिन [पितृ पक्ष [पितरों] को किया गया तर्पण तथा पिंडदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्रदान करता है। इस दिन गंगा स्नान करने से तथा भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है। यह तिथि यदि सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान, जप-तप का फल बहुत अधिक बढ़ जाता हैं। इसके अतिरिक्त यदि यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए गए जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सद्गुण प्रदान करते हैं, अत: आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान मांगने की परंपरा भी है।

धार्मिक परंपराएं:

अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शांत चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या गेहूं का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात फल, फूल, बरतन, तथा वस्त्र आदि दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है। ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी समझा जाता है। मान्यता है कि इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए। गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान भी इस दिन किया जाता है। यह तिथि वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ का दिन भी है इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जल से भरे घडे, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खड़ाऊं, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी माना गया है। इस दान के पीछे यह लोक विश्वास है कि इस दिन जिन-जिन वस्तुओं का दान किया जाएगा, वे समस्त वस्तुएं स्वर्ग या अगले जन्म में प्राप्त होगी। इस दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल अथवा सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिए।

'सर्वत्र शुक्ल पुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने।

दानकाले च सर्वत्र मंत्र मेत मुदीरयेत्॥'

अर्थात सभी महीनों की तृतीया में सफेद पुष्प से किया गया पूजन प्रशंसनीय माना गया है।

ऐसी भी मान्यता है कि अक्षय तृतीया पर अपने अच्छे आचरण और सद्गुणों से दूसरों का आशीर्वाद लेना अक्षय रहता है। भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा विशेष फलदायी मानी गई है। इस दिन किया गया आचरण और सत्कर्म अक्षय रहता है।

संस्कृति में:

इस दिन से शादी-ब्याह करने की शुरुआत हो जाती है। बड़े-बुजुर्ग अपने पुत्र-पुत्रियों के लगन का मांगलिक कार्य आरंभ कर देते हैं। अनेक स्थानों पर छोटे बच्चे भी पूरी रीति-रिवाज के साथ अपने गुड्डा-गुड़िया का विवाह रचाते हैं। इस प्रकार गांवों में बच्चे सामाजिक कार्य व्यवहारों को स्वयं सीखते व आत्मसात करते हैं। कई जगह तो परिवार के साथ-साथ पूरा का पूरा गांव भी बच्चों के द्वारा रचे गए वैवाहिक कार्यक्रमों में सम्मिलित हो जाता है। इसलिए कहा जा सकता है कि अक्षय तृतीया सामाजिक व सांस्कृतिक शिक्षा का अनूठा त्यौहार है। कृषक समुदाय में इस दिन एकत्रित होकर आने वाले वर्ष के आगमन, कृषि पैदावार आदि के शगुन देखते हैं। ऐसा विश्वास है कि इस दिन जो सगुन कृषकों को मिलते हैं, वे शत-प्रतिशत सत्य होते हैं। राजपूत समुदाय में आने वाला वर्ष सुखमय हो, इसलिए इस दिन शिकार पर जाने की परंपरा है।

प्रचलित कथाएं:

अक्षय तृतीया की अनेक व्रत कथाएं प्रचलित हैं। ऐसी ही एक कथा के अनुसार, प्राचीन काल में एक धर्मदास नामक वैश्य था। उसकी सदाचार, देव और ब्राह्मणों के प्रति काफी श्रद्धा थी। इस व्रत के महात्म्य को सुनने के पश्चात उसने इस पर्व के आने पर गंगा में स्नान करके विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की, व्रत के दिन स्वर्ण, वस्त्र तथा दिव्य वस्तुएं ब्राह्मणों को दान में दी। अनेक रोगों से ग्रस्त तथा वृद्ध होने के बावजूद भी उसने उपवास करके धर्म-कर्म और दान पुण्य किया। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना। कहते हैं कि अक्षय तृतीया के दिन किए गए दान व पूजन के कारण वह बहुत धनी प्रतापी बना। वह इतना धनी और प्रतापी राजा था कि त्रिदेव तक उसके दरबार में अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मण का वेष धारण करके उसके महायज्ञ में शामिल होते थे। अपनी श्रद्धा और भक्ति का उसे कभी घमंड नहीं हुआ और महान वैभवशाली होने के बावजूद भी वह धर्म मार्ग से विचलित नहीं हुआ। माना जाता है कि यही राजा आगे चलकर राजा चंद्रगुप्त के रूप में पैदा हुआ।

स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में उल्लेख है कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने परशुराम रूप में जन्म लिया। कोंकण और चिप्लून के परशुराम मंदिरों में इस तिथि को परशुराम जयंती बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। दक्षिण भारत में परशुराम जयंती को विशेष महत्व दिया जाता है। परशुराम जयंती होने के कारण इस तिथि में भगवान परशुराम के आविर्भाव की कथा भी सुनी जाती है। इस दिन परशुराम जी की पूजा करके उन्हें अ‌र्घ्य देने का बड़ा माहात्म्य माना गया है। सौभाग्यवती स्त्रियां और कुंवारी कन्याएं इस दिन गौरी-पूजा करके मिठाई, फल और भीगे हुए चने बांटती हैं, गौरी-पार्वती की पूजा करके धातु या मिट्टी के कलश में जल, फल-फूल, तिल, अन्न आदि लेकर दान करती हैं। मान्यता है कि इसी दिन जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय भृगुवंशी परशुराम का जन्म हुआ था।

एक कथा के अनुसार, परशुराम की माता और विश्वामित्र की माता के पूजन के बाद प्रसाद देते समय ऋषि ने प्रसाद बदल कर दे दिया था। जिसके प्रभाव से परशुराम ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे और क्षत्रिय पुत्र होने के बाद भी विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए। उल्लेख है कि सीता स्वयंवर के समय परशुराम जी अपना धनुष बाण श्री राम को समर्पित कर संन्यासी का जीवन बिताने अन्यत्र चले गए। अपने साथ एक फरसा रखते थे, तभी उनका नाम परशुराम पड़ा।

जैन धर्म में अक्षय-तृतीया:

जैन धर्मावलंबियों का महान धार्मिक पर्व है। इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारायण किया था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने व अपने कर्म बंधनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार कर लिया। सत्य और अहिंसा के प्रचार करते-करते आदिनाथ प्रभु हस्तिनापुर गजपुर पधारे जहां इनके पौत्र सोमयश का शासन था। प्रभु का आगमन सुनकर संपूर्ण नगर दर्शनार्थ उमड़ पड़ा सोमप्रभु के पुत्र राजकुमार श्रेयांस कुमार ने प्रभु को देखकर उसने आदिनाथ को पहचान लिया और तत्काल शुद्ध आहार के रूप में प्रभु को गन्ने का रस दिया, जिससे आदिनाथ ने व्रत का पारायण किया। जैन धर्मावलंबियों का मानना है कि गन्ने के रस को इक्षुरस भी कहते हैं इस कारण यह दिन इक्षु तृतीया एवं अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हो गया।

भगवान श्री आदिनाथ ने लगभग 400 दिवस की तपस्या के पश्चात पारायण किया था। यह लंबी तपस्या एक वर्ष से अधिक समय की थी अत: जैन धर्म में इसे वर्षीतप से संबोधित किया जाता है। आज भी जैन धर्मावलंबी वर्षीतप की आराधना कर अपने को धन्य समझते हैं, यह तपस्या प्रति वर्ष कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरंभ होती है और दूसरे वर्ष वैशाख के शुक्लपक्ष की अक्षय तृतीया के दिन पारायण कर पूर्ण की जाती है। तपस्या आरंभ करने से पूर्व इस बात का पूर्ण ध्यान रखा जाता है कि प्रति मास की चौदस को उपवास करना आवश्यक होता है। इस प्रकार का वर्षीतप करीब 13 मास और दस दिन का हो जाता है। उपवास में केवल गर्म पानी का सेवन किया जाता है। वर्षीतप जब पूर्ण हो जाता है, तब भारत विख्यात जैन तीर्थ श्री शत्रुंजय पर जाकर अक्षय तृतीय के दिन पारायण किया जाता है। इस दिन विशाल स्तर पर पारायण की व्यवस्था की जाती है। जहां पर तपस्या करने वाले तपस्वियों को उनके संबंधी पारायण कराते हैं। अक्सर तपस्वी बहन को भाई पारायण कराता है। इसे पारणा कहते हैं। चांदी के बने छोटे से आकार के कलश इक्षु के रस के 108 भरे कलशों से पारायण आरंभ होता है। धार्मिक गतिविधियों से ओत-प्रोत इस भव्य समारोह में संवेदनाएं स्वत: ही उमड़ पड़ती हैं। चारों ओर धर्म चर्चा का वातावरण बन जाता है। पुष्पों की बौछार होती है। रंग-बिरंगे परिधान व आभूषण तपस्वी को उनके सगे-संबंधी भेंट करते हैं, फूलों के हार पहनाकर तपस्वियों का आदर सत्कार होता है। चारों ओर हर्ष, उमंग का वातावरण बन जाता है। तपस्वियों का विशेष जलूस समारोह पूर्वक निकाला जाता है और सभी तपस्वियों को तपस्या करने वाले परिवार के सदस्य कुछ न कुछ उपहार भेंट करते हैं। इसे प्रभावना कहते हैं। उपहार में चांदी, स्टील, पीतल आदि के बर्तनों के अतिरिक्त धार्मिक सामग्री भी भेंट दी जाती है। इस प्रकार की तपस्या में हजारों नर-नारी भाग लेते हैं। जिसमें वृद्ध, युवा एवं बाल अवस्था के लोग भी सम्मिलित होते हैं। श्री शत्रुंज्य जैसे महान तीर्थ पर अक्षय तृतीया के दिन विशाल पैमाने पर मेला लगता है, जिसमें देश के विभिन्न भागों से हजारों लोग आते हैं। कई तपस्वी ऐसे होते हैं जो इस तीर्थ पर वर्ष भर रहकर वर्षीतप की आराधना करते हैं। यहां तपस्या करने वाले श्री शत्रुंज्य पर्वत की 99 बार यात्रा करने का लाभ भी उठाते हैं।

भारत वर्ष में इस प्रकार की वर्षी तपश्चर्या करने वालों की संख्या हजारों तक पहुंच जाती है। यह तपस्या धार्मिक दृष्टिकोण से अन्यक्त ही महत्वपूर्ण है, वहीं आरोग्य जीवन बिताने के लिए भी उपयोगी है। संयम जीवनयापन करने के लिए इस प्रकार की धार्मिक क्रिया करने से मन को शान्त, विचारों में शुद्धता, धार्मिक प्रवृत्रियों में रुचि और कर्मो को काटने में सहयोग मिलता है। इसी कारण इस अक्षय तृतीया का जैन धर्म में विशेष धार्मिक महत्व समझा जाता है। मन, वचन व श्रद्धा से वर्षीतप करने वाले को महान समझा जाता है।

प्रांतों में अक्षय तृतीया:

बुंदेलखंड: अक्षय तृतीया से प्रारंभ होकर पूर्णिमा तक बड़ी धूमधाम से उत्सव मनाया जाता है, जिसमें कुंवारी कन्याएं अपने भाई, पिता तथा गांव-घर और कुटुंब के लोगों को शगुन बांटती हैं और गीत गाती हैं।

राजस्थान: अक्षय तृतीया को वर्षा के लिए शगुन निकाला जाता है, वर्षा की कामना की जाती है, लड़कियां झुंड बनाकर घर-घर जाकर शगुन गीत गाती हैं और लड़के पतंग उड़ाते हैं। यहां इस दिन सात तरह के अन्नों से पूजा की जाती है।

मालवा: नए घड़े के ऊपर खरबूज़ा और आम के पल्लव रख कर पूजा होती है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन कृषि कार्य का आरंभ किसानों को समृद्धि देता है।

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