नदियां जो बल खा रही थीं, वो बिलख रहीं

बगावत पर उतारू पाताल, साथ छोड़ते कुएं, तालाब, ताल-तलैया, सूखते हलक, संकट में संस्कृति और चरमराती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए नदियों को संरक्षित करने की जरूरत महसूस की जाने लगी है।

By Edited By: Publish:Tue, 29 May 2012 01:14 PM (IST) Updated:Tue, 29 May 2012 01:14 PM (IST)
नदियां जो बल खा रही थीं, वो बिलख रहीं

वाराणसी। बगावत पर उतारू पाताल, साथ छोड़ते कुएं, तालाब, ताल-तलैया, सूखते हलक, संकट में संस्कृति और चरमराती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए नदियों को संरक्षित करने की जरूरत महसूस की जाने लगी है। अधिक नहीं दो दशक के ही दौरान पूर्वाचल में लहराती-बलखाती एक दर्जन से अधिक नदियां देखते-देखते विलुप्त हो गईं, जो बची हैं वे नाले में तब्दील होती जा रही हैं। एक तरफ संकट के दौर से गुजर रही गंगा, वरुणा, घाघरा, गोमती, सोन जैसी प्रमुख नदियों को बचाने की गंभीर चुनौती तो दूसरी तरफ पेयजल और सिंचाई सुविधा को बरकरार रखने की जरूरत। ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमें अपनी अगली पीढ़ी से यही कहना पड़ेगा कि ये जो नाले हैं, कभी नदियां हुआ करती थीं।

नदियों के किनारे विकास

विशेषज्ञों का कहना है कि नदियां हमारे देश की धर्म, संस्कृति और अर्थनीति तय करती हैं। इतिहास गवाह है कि सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हुआ। बिना जल के जीवन की आशा नहीं की जा सकती लिहाजा जहां-जहां जलस्त्रोत मिले उसके किनारे-किनारे जनजीवन विस्तार लेता गया और उसी के अनुरूप वहां के आर्थिक, सामाजिक विकास को आधार मिला। एक तरफ डैम, बैराज व नहरों के जरिये नदियों का प्रवाह रोका जा रहा है तो दूसरी तरफ नदियों के जल स्तर को बनाए रखने वाले तालाब, कुंड, कुएं, पोखरे पाट कर कंक्त्रीट की इमारतें खड़ी करने का सिलसिला जारी है। नदियों का खुद का सिस्टम लड़खड़ा गया और बड़े भू भाग में फैले इसके बेसिन क्षेत्र में तापमान वृद्धि, मृदाक्षरण, भूमिगत जल स्तर में गिरावट, पेड़ों के सूखने जैसे हालात बनते जा रहे हैं।

नदी विज्ञान आधारित हो संरक्षण

नदी विशेषज्ञ प्रो. यूके चौधरी कहते हैं कि नदियां केवल जल का नहीं वरन जीव-जंतु, पेड़-पौधों के संवर्धन, वातावरण संतुलन और देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ भी है। इनका संरक्षण सरकारी स्तर पर नदी विज्ञान के आधार पर किया जाना चाहिए। मानव जीवन में नदियों की महत्ता को देखते हुए ही वेद, पुराण, उपनिषद् आदि ग्रंथों में इन्हें तमाम धार्मिक मान्यताओं से जोड़ा गया है। बताया- नदी मॉर्फोलॉजी (आकार, प्रकार और इसका ढलान) को समझे बिना जहां-तहां प्रवाह रोके जाने से नदियां अपना वजूद खोती जा रही हैं। कोई भी नदी उसमें प्रवाहित हो रहे जल के आयतन, उसके गुण और गतिशीलता से ही जानी जाती है। ये तीन उसकी अपनी शक्तियां हैं जो आपस में जुड़ी होती हैं। यह प्रवाह नदी की मॉर्फोलॉजी को परिभाषित करती है। यह मॉर्फोलॉजी हमें बताती है कि कहां से कितना जल, किस विधि से निकाला जाए, विद्युत उत्पादन कहां से और कितना किया जाए। अवजल को नदी में कहां कितनी मात्रा में तथा किस विधि से डाला जाए। नदी मॉर्फोलॉजी के ज्ञान की जरूरत ठीक उसी तरह है जैसे किसी डॉक्टर के लिए शरीर के भीतरी अंगों के बनावट और उसके क्त्रियाकलापों को जानना। नदी मॉर्फोलॉजी को समझे बिना नदी में सतही, भूमिगत व अवजल आने की प्रक्त्रिया और जल निकासी की क्त्रिया को नहीं समझा जा सकता।

जन-जीवन के लिए खतरा

बीएचयू के वर्यावरण विज्ञानी प्रो. बीडी त्रिपाठी कहते हैं कि नदियों का वजूद समाप्त होने से पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है जो जन-जीवन के लिए बड़े खतरे का संकेत है। नदियों का सीधा संबंध वायुमंडल से होता है। अत्यधिक जल दोहन और मलजल की मात्रा बढ़ने से नदियों के जल में लेड, क्त्रोमियम, निकिल, जस्ता आदि धातुओं की मात्रा बढ़ती जा रही है। यह स्थिति वातावरण को जनजीवन के प्रतिकूल बनाती जा रही है। वजह, नदी जल गतिशील होगा तो वह मिट्टी के गुण को कम और वायु के गुण को ज्यादा ग्रहण करेगा। गतिशीलता घटने पर वह मिट्टी के गुण को ज्यादा और वायु के गुण को कम ग्रहण करेगा। लिहाजा नदी का वायु, पानी और मिट्टी के बीच संतुलित संबंध ही वातावरण को नियंत्रित करता हैं। नदी की गतिशीलता घटते ही इसके पानी में टीडीएस (टोटल डिजाल्व सॉलिड) की मात्रा बढ़ने और ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है। इसी अनुपात में वायुमंडल का ताप, दबाव और आद्रता प्रभावित होती है। नदी जल के अत्यधिक दोहन और अवजल की बढ़ती मात्रा के कारण दमघोंटू वातावरण सामने है। नदी के मौलिक जल और अवजल का अनुपात जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे वातावरण जीव-जंतु के विपरीत होगा। दुखद तो यह है कि नदी के प्रदूषण को आंकने की सरकारी स्तर पर अब तक कोई व्यवस्था ही नहीं की जा सकी है।

पूर्वाचल में नदियों का हाल

वाराणसी में कहने के लिए गंगा, वरुणा, नाद, पीली और असि नदियां हैं। इसमें से महज गंगा, वरुणा वजूद में हैं, शेष विलुप्त हो चुकी हैं।

गंगा : देवनदी गंगा का पानी आज स्नान को कौन कहे, आचमन योग्य भी नहीं रहा। गंगा की इस दशा से जहां आस्था आहत हुई हैं तो विश्वास भी रो रहा है। गंगा में उसके मौलिक जल का स्थान सीवर, नाले और कल-कारखानों से निकलने वाले रसायन युक्त जल ने ले लिया है। अधिक नहीं दो दशक पहले तक तीन सौ मीटर चौड़ाई में बहने वाली गंगा का पाट सिकुड़ कर बमुश्किल 70 मीटर तक आ गया है।

वरुणा नदी : यह नदी आज अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है। अतिक्त्रमण की होड़ से जहां इसके पाट सिकुड़ते जा रहे हैं वहीं इसमें गिरने वाले नालों की बढ़ती संख्या ने इसे मैला ढोने वाली नदी बना दिया है। इस नदी के बारे में लोगों की धारणा थी कि इसके पानी में सर्पविष दूर करने का अलौकिक गुण है लेकिन आज यह नाले के रूप में खुद की बेबसी पर बिलख रही है। गनीमत यह है कि पुराना पुल के पास इसका पानी रोक दिया गया है इसलिए इसका वजूद बना हुआ है।

असि नदी : नगर के दक्षिणी छोर पर मिलने वाली असि नदी को अब नदी मानने में कठिनाई होती है। वजह, इसका वजूद अस्सी नाला से तब्दील हो कर नगवा नाला के रूप में है। इसके भू खंड पर आज बड़ी-बड़ी कालोनियां आबाद हो चुकी हैं। इस नदी के हिस्से वाली जमीन पर अतिक्त्रमण का दौर जारी है। गंगा-वरुणा के सतह से काफी ऊंचाई पर बहने वाली यह नदी कॉलोनियों के बीच से एक संकरे-पतले नाले के रूप में बहती है और अस्सी के पास नगवा नाले में जा मिलती है।

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