सिद्धियां अंत:स्थल से जन्म लेती हैं

सिद्धियां अंत:स्थल से जन्म लेती हैं, बाहर से नहीं आतीं। जड़ें भूमि से रस लेकर पौधे को पुष्ट करती हैं, भले ही वे भूमि के भीतर रहने के कारण दृष्टिगोचर न हों। फूल व फल उन्हीं की प्रतिक्रिया हैं।

By Edited By: Publish:Thu, 27 Dec 2012 11:30 AM (IST) Updated:Thu, 27 Dec 2012 11:30 AM (IST)
सिद्धियां अंत:स्थल से जन्म लेती हैं

सिद्धियां अंत:स्थल से जन्म लेती हैं, बाहर से नहीं आतीं। जड़ें भूमि से रस लेकर पौधे को पुष्ट करती हैं, भले ही वे भूमि के भीतर रहने के कारण दृष्टिगोचर न हों। फूल व फल उन्हीं की प्रतिक्रिया हैं। यह विचार करना गलत है कि इंद्रदेव आकाश से विमान पर आते हैं और पेड़ों पर फल-फूल की वर्षा करके चिपका जाते हैं। देवता अनुग्रह अकारण नहीं करते। उनके भी अपने सिद्धांत हैं। वृक्ष अपनी चुंबकीय शक्ति से बादलों को भूमि पर आमंत्रित करते हैं। जहां पर वृक्ष नहीं होते, वहां आकर्षण के अभाव में बादल ऊपर होकर उड़ जाते हैं। हरीतिमा रहित क्षेत्र रेगिस्तान बन जाते हैं। चुंबक अपने सहधर्मी लौह कणों को रेत में से दूर से खींच लेता है और खदानों की आकर्षण शक्ति अपने सजातीय कणों की वृद्धि के कारण भारी होती जाती है। साधना के माध्यम से हम अपने व्यक्तित्व को विकसित करते हैं, फलस्वरूप अंत:क्षेत्र की प्रसुप्त गरिमा ऋद्धि-सिद्धि बनकर प्रकट होती है। ऐसे ही पराक्रमी लोगों पर देवताओं की अनुकंपा बरसती है।

देवतागण की कोई स्तुति न करें तो उनका कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं। जो निंदा स्तुति से ऊपर हैं, वही देवता हैं। फूल जैसा जीवन खिले देवता के चरणों में समर्पित हो, चंदन की भांति हम अपने निकट में उगे हुए झाड़-झंखाड़ों को भी सुगंधित बनाएं। दीपक की भांति स्वयं जलकर प्रकाश दें। यह शिक्षण उपचार माध्यमों से स्वयं को ही देना होता है। जरा से अक्षत से तो गणेश जी के चूहे का भी पेट नहीं भर सकता, फिर देवता पर अक्षत चढ़ाने का क्या औचित्य? इसका उद्देश्य इतना ही है कि हम अपनी कमाई का, समय श्रम का, एक अंश नियमित रूप से देवताओं या परमार्थ के लिए लगाते रहें। यदि पूजा-उपचार के द्वारा आत्मशिक्षण की बात भुला दी जाए और देवता को फुसलाने का प्रयास करें, तो यह मछली मारने, चिडि़या फंसाने जैसी विडंबना होगी, जो लालच दिखाकर उन्हें शिकार बनाते हैं। हमें पूजन का मर्म समझना चाहिए। भ्रम जंजाल में भटकने की अपेक्षा यही ठीक है कि हम जो भी कार्य करें, सोच समझकर, उसके मर्म को आत्मसात कर करें।

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