घायल को मिले वक्त पर उपचार
दुर्घटनाओं में रोज करीब 382 मौतें होती हैं। इसकी एक वजह है-समय पर उपचार न मिलना। क्या कहता है इस पर कानून, बता रही हैं सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट कमलेश जैन।
दिन सडक दुर्घटनाओं की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं। समय पर इलाज न होने के कारण कई मौतें भी हो जाती हैं। अधिकतर मामलों में घायल को अस्पताल पहुंचाने में देरी होती है, जिस कारण उसकी मौत हो जाती है। देरी की एक बडी वजह यह है कि लोग पुलिस पूछताछ से बचना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने घायल की मदद की तो पुलिस उन्हीं को परेशान करेगी। नागरिक कर्तव्य हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक आदेश में कहा था,'गुड समेरिटन'(नेक नागरिक या मददगार) को अनावश्यक रूप से पुलिस-चिकित्सक या कानून द्वारा तंग न किया जाए बल्कि उनका सम्मान हो। कम ही लोग जानते हैं कि वर्ष 1989 में ही सर्वोच्च न्यायालय ने पंडित परमानंद कटारा की याचिका पर बताया था कि घायल की मदद कैसे की जानी चाहिए? उसके साथ कैसे पेश आना चाहिए? दुर्घटना होने पर जनसाधारण, पुलिस और चिकित्सक के कर्तव्य क्या हैं। वर्ष 1989 में एक अखबार में प्रकाशित खबर में कहा गया कि 'कानून घायल को मारने में मदद करता है।' ऐसा एक दुर्घटना के सिलसिले में कहा गया था। एक स्कूटर सवार को तेज रफ्तार कार ने टक्कर मार दी। किसी मददगार ने घायल को नजदीक के हॉस्पिटल में दाखिल किया। वहां डॉक्टर्स ने उसका इलाज करने से मना कर दिया। मददगार से कहा गया कि वह घायल को बडे अस्पताल में ले जाएं, जो वहां से करीब 20 किलोमीटर दूर था। इसकी वजह यह थी कि उसी अस्पताल में 'मेडिको-लीगल' केसेजदेखे जाते थे। जब तक मदद करने वाला घायल को अस्पताल पहुंचाता, देर हो गई और यह घायल की जिंदगी पर भारी पडी। यदि पहले अस्पताल में ही इलाज शुरू हो जाता तो शायद वह बच सकता था। इमर्जेन्सी का ध्यान रखे डॉक्टर यह सच है कि चिकित्सक को अपना रोगी चुनने की छूट है लेकिन इमर्जेंसी केसेज में वह ऐसा नहीं कर सकता। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि घायल को बिना समय गंवाए चिकित्सा दी जा सके और यह कार्य हर डॉक्टर करे, चाहे वह सरकारी अस्पताल में हो या प्राइवेट क्लिनिक में। वह चिकित्सा देने से मना नहीं कर सकता। यह जिम्मेदारी राज्य की है कि वह जिंदगी बचाए। दुर्घटना की सूचना पहले पुलिस को देना अनिवार्य नहीं है। वकील, पुलिस या कोर्ट बाद में अपना काम कर सकते हैं लेकिन घायल की जिंदगी इंतजार नहीं कर सकती। इसलिए सर्वोच्च प्राथमिकता इलाज को दी जाए। हर बार कोर्ट बुलाना गलत सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि चिकित्सक को हर दुर्घटना के मुकदमे में अदालत में गवाही के लिए बुलाना गलत है। अति आवश्यक मुकदमों में ही ऐसा होगा। कारण यह कि कई बार चिकित्सक अदालतों के चक्कर लगाने के डर से भी चिकित्सा में टालमटोल करते हैं। इन मामलों में 1985 में ही डायरेक्टर जनरल ऑफ हेल्थ सर्विसेज में ऐसे निर्देश दिए गए थे। उन्हें तात्कालिक रूप से लागू करने का आदेश दिया गया। सरकारी मीडिया, रजिस्ट्री लॉ रिपोट्रर्स और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को निर्देश दिया गया कि वे इस निर्णय की विस्तृत पब्लिसिटी करें। अदालतों, मेडिकल कॉलेज, प्रैक्टिसिंग डॉक्टर्स से भी कहा गया वे इसकी पब्लिसिटी करें। आश्चर्य की बात है कि 27 वर्षों बाद फिर सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड रहा है कि मददगार को कानूनन परेशान न किया जाए। जागरूकता जरूरी आज भी अस्पतालों या सडकों की स्थिति में बडा बदलाव नहीं आया है। एक ऐसे देश में, जहां दुनिया में सबसे ज्य़ादा हादसे सडकों पर होते हैं और अधिकतर मौतें भी, वहां इस कानून की जानकारी देने या उसके प्रति लोगों को जागरूक करने में 27 वर्ष भी कम पड जाते हैं। अब पहले से बडी गाडिय़ां हैं। नाबालिग ड्राइवरों की संख्या बढ गई है और इसी के साथ सडक हादसों में होने वाली मौतों का आंकडा भी बढ गया है। हाल ही में मौजूदा सरकार के एक वरिष्ठ नेता की भी रोड एक्सीडेंट में मौत हो हुई। दूसरी ओर दिल्ली में 32 वर्षीय व्यक्ति को नाबालिग ड्राइवर के कारण जिंदगी से हाथ धोना पडा। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय बेहद जरूरी है। अगर आप किसी कानूनी समस्या से परेशान हैं या फिर उपभोक्ता अधिकारों के बारे में कोई जानकारी चाहते हैं तो हमें लिखें। इस स्तंभ के तहत आपके सवालों का जवाब दिया जाएगा, साथ ही दी जाएंगी कानूनों के बारे में नई जानकारियां भी। पाठकों से निवेदन है कि अपने सवाल या सुझाव हमें स्पष्ट शब्दों या टाइप किए हुए कागज पर हमारे पते पर भेजें या फिर हमें ई.मेल करें :Email:Sakhi@jagran.com कानूनी सलाह/उपभोक्ता कानून जागरण सखी, डी-210, सेक्टर 63 नोएडा, गौतम बुद्ध नगर, उप्र. 201301