आजादी पर पहरे

अस्मिता, सुरक्षा, स्वाभिमान की लड़ाई में स्त्रियां का़फी आगे निकल आई हैं, लेकिन उन्हें पीछे धकेलने के तमाम हथकंडे भी आज़्ामाए जा रहे हैं। कभी ़फतवे दिए जाते हैं तो कभी तुग़्ाल़की ़फरमान..। मुख्य भूमिका में आती स्त्री को हाशिए पर ले जाने की रो•ा नई-नई तकनीकें ई•ाद की जा रही हैं। स्त्री के लिए कैसे एक सुरक्षित व सम्मानजनक माहौल तैयार किया जा सकता है, अलग-अलग विचारों की रौशनी में इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश कर रही हैं इंदिरा राठौर।

By Edited By: Publish:Sat, 01 Dec 2012 11:03 AM (IST) Updated:Sat, 01 Dec 2012 11:03 AM (IST)
आजादी पर पहरे

लडकियां मोबाइल का प्रयोग न करें, जींस न पहनें। घर से बाहर निकलते हुए सिर पर पल्लू रखें, बाज्ार  न जाएं..।

लडकियों की शादी कम उम्र में कर देनी चाहिए। इससे बलात्कार की घटनाएं कम होंगी और वे सुरक्षित रहेंगी..।

बलात्कार के 90  फीसदी मामले आपसी सहमति के होते हैं..।

लडकियों को देर रात घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए..।

ये सारे बयान और फरमान देश के ज्िाम्मेदार लोगों द्वारा दिए गए हैं। ऐसे समय में जबकि स्त्रियां हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर रही हैं, ऐसे बयान हास्यास्पद हैं। ये स्त्रियों के प्रति संवेदनहीन नज्ारिए का जीवंत उदाहरण हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली क्राइम कैपिटल में तब्दील हो रही है। सेंटर फॉर सोशल रिसर्च ने दिल्ली में जनवरी 2009 से जुलाई 2011 के बीच दर्ज मामलों के अध्ययन के बाद एक रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली में महिलाएं दिन में भी सुरक्षित नहीं हैं। साथ ही, देश में हर घंटे में 18 स्त्रियां प्रताडना की शिकार होती हैं। बलात्कार के 13 मामले ऐसे थे, जिसमें 10 साल से कम उम्र की बच्ची के साथ रेप किया गया। 18 मामलों में स्कूल-कॉलेज जाने वाली लडकियों के साथ रेप हुआ। आरोपी 18 से 50 वर्ष तक की आयु के थे।

महिलाओं की सुरक्षा को लेकर भारत पिछडा हुआ देश है, यह मानना है न्यूज्ावीक मैगजीन का। 165  देशों पर हुए इस सर्वे में भारत का स्थान 141वां है। स्त्री पर हमले के नए-नए तरीके रोज्ा ईज्ाद  हो रहे हैं, तुर्रा यह कि इसके लिए भी उसी को ज्िाम्मेदार माना जाता है।

संवेदनहीन दृष्टि

असम की राजधानी गुवाहाटी में हुई दर्दनाक घटना लोगों के ज्ोहन से अब तक शायद न उतरी हो। एक लडकी के साथ सडक पर सरेआम दु‌र्व्यवहार किया जाता रहा और लोग तमाशबीन बने देखते रहे।

दिल्ली में लडकियों से छेडखानी, बलात्कार की घटनाएं आम हैं। सडक, स्कूल-कॉलेज, मॉल्स या पार्क के अलावा वे घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। मुंबई को दिल्ली की अपेक्षा अधिक सुरक्षित माना जाता है, लेकिन वहां भी महिलाओं की सुरक्षा चिंता के घेरे में है। दिल्ली के एक आइएएस अधिकारी की वकील बेटी की मुंबई में उसके किराये के घर में गार्ड ने हत्या कर दी। हत्या बलात्कार में नाकाम रहने के बाद की गई। लडकी की गलती यह थी कि रात में घर की बिजली गुल होने पर उसने गार्ड से मदद मांगी थी। संवेदनहीनता इतनी कि वह चीखती-चिल्लाती रही और पडोसियों के घर कॉलबेल बजाती रही, लेकिन महानगर के शोर में एक अकेली लडकी की च ीख भला किसे सुनाई देती है!

ख्ास चेहरों की पीडा

संवेदनहीनता के भी कई रूप हैं। यह न सिर्फ शारीरिक सुरक्षा के भय से ग्रस्त करती है, बल्कि मानसिक-भावनात्मक तौर पर भी स्त्री को कमज्ाोर करने पर आमादा है। ऐसा भी नहीं है कि आम स्त्रियां ही इस संवेदनहीन नज्ारिए को झेलती हैं। कई बार ख्ास हस्तियों को भी इसका सामना करना पडता है। अभिनेत्री प्रीति  ज्िांटा कुछ समय पहले दिल्ली आई तो भीड की ज्यादती से परेशान हुई। पहले भी कई अभिनेत्रियों ने शिकायत की है कि लोग उनके साथ दु‌र्व्यवहार करते हैं और भद्दे कमेंट्स करते हैं। हालांकि पुरुष सलेब्रिटीज्ा के साथ भी ऐसा होता है, लेकिन अगर वह स्त्री है तो भीड हदें भी पार कर देती है। इस घटना से आहत प्रीति  ने कहा कि लोग यह नहीं सोचते कि सलेब्रिटीज्ा  भी इंसान हैं। उन्हें भी परेशानी होती है।

इन पंक्तियों को लिखे जाने के दौरान दो राजनेताओं के बीच ट्विटर वार चल रहा था, जिसमें पत्नी का नाम लेकर भद्दे कमेंट्स किए जा रहे थे। पुरुषों की लडाई के बीच स्त्री जाने-अनजाने निशाना बन जाती है। देवी बना कर पूजे जाने और गालियों से नवाज्ो जाने के बीच एक इंसान के तौर पर उसे नहीं देखा जाता। यह मध्ययुगीन मानसिकता है कि किसी को नीचा दिखाना हो तो उसके घर की स्त्रियों पर निशाना साधें।

पितृसत्ता की छटपटाहट

समाजशास्त्री डॉ. ऋतु सारस्वत कहती हैं, ये घटनाएं इसका संकेत हैं कि पितृसत्ता  की चूलें  हिल रही हैं और वह हर कीमत पर इसे बनाए रखना चाहती है। दूसरी ओर स्त्रियां हर बाधा को तोड कर तेज्ाी से आगे बढ रही है। कहते हैं, दिया बुझने से पहले तेज्ा जलने लगता है। शायद यह पितृसत्ता की आख्िारी  छटपटाहट हो। सत्ता हिलेगी तो वह उसे हर कीमत पर बचाना चाहेगा। यह सामंती सोच सिर्फ पुरुष वर्ग की ही नहीं है, आधी आबादी का बडा हिस्सा भी पितृसत्ता के सम्मोहन से जकडा हुआ है। ऐसी स्त्रियां भी दूसरी स्त्रियों को काबू में रखना चाहती हैं। एक लडकी के साथ कोई हादसा होता है तो न केवल वह या उसके परिवार वाले प्रभावित होते हैं, बल्कि हर माता-पिता और लडकी के मन में डर बैठ जाता है। ये हमले इसलिए होते हैं ताकि लडकी फिर से अपने खोल में घुस जाए, बाहर निकलने का साहस न करे।

प्रॉपर्टी सेंस

दिल्ली की क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट  डॉ. गगनदीप कौर कहती हैं, स्त्रियों को सेक्स ऑब्जेक्ट और प्रॉपर्टी समझने का दौर तभी से शुरू हुआ, जबसे श्रम-विभाजन हुआ। पहले मातृसत्तात्मक समाज था, फिर यह तय हुआ कि स्त्री घर देखेगी और पुरुष बाहर काम करेगा। इस तरह पुरुषों का बाहरी दुनिया में दख्ाल बढा और स्त्री घर में सिमटती गई। यहीं से धीरे-धीरे उसका वज्ाूद सिमटने लगा। पितृसत्ता के मोह से ग्रस्त स्त्रियां भी ख्ाुद से कमज्ाोर स्त्री पर शासन की इच्छा रखती हैं। कई बार हम देखते हैं कि मां अपनी बेटी को कमतर समझती है। सास बहू पर अत्याचार करती है। शोषित वर्ग के पास सर्वाइवल के दो तरीके होते हैं, या तो ताकतवर समूह का शासन स्वीकारे या उसी समूह में शामिल हो जाए। लिहाज्ा स्त्रियों की एक बडी संख्या भी पितृसत्ता के मोह से ग्रस्त दिखती है और जाने-अनजाने उन्हीं मूल्यों को स्थापित करने की कोशिश करने लगती है।

आज्ादी की कीमत

डॉ. गगनदीप फिर कहती हैं, स्त्री के प्रति एक संवेदनशील माहौल बने, इसके लिए तीन स्तरों पर कोशिश करनी होगी। स्त्री ख्ाुद का सम्मान करे, अपनी इच्छाओं व ज्ारूरतों को समझे, पुरुष उसे साथी माने और समाज का नज्ारिया संवेदनशील हो। प्रकृति ने स्त्री-पुरुष को विरोधी नहीं, पूरक बनाया है, ताकि दोनों टीम की तरह काम करें। पुरुष शारीरिक तौर पर ताकतवर है तो स्त्री भावनात्मक तौर पर संतुलित है। टीम भावना से काम करने पर ही सभ्य-सुसंस्कृत समाज का निर्माण हो सकेगा और स्त्री सम्मानजनक जीवन जी सकेगी।

स्वस्थ समाज कैसे बन सकता है, इस पर अलग-अलग विचारों से रूबरू हों आगे।

बोर्डरूम में महिलाएं

स्त्रियों को केंद्रीय भूमिका में आना होगा मीनाक्षी रॉय, सीनियर वाइस प्रेसिडेंट (एचआर), आरबीएनएल, मुंबई

पिछले 10 वर्षो में बडा बदलाव देखने को मिला है। जब समाज के एक हिस्से में बदलाव आता है तो दूसरे हिस्से पर भी इसका असर पडता है। बदलाव पहले महानगरों में आया और धीरे-धीरे मझोले शहरों में भी स्त्रियों के प्रति न•ारिया बदला। पुरुष स्त्रियों की नई-नई आज्ादी को स्वीकार करने की प्रक्रिया से गुज्ार रहे हैं। मैं मुंबई की बात करूं। यहां देर रात तक महिलाओं का काम करना आम बात है लेकिन दिल्ली में अभी यह संस्कृति आने में कुछ समय लगेगा। मेरे 20 साल के करियर में ऐसे पुरुष भी मिले, जो मेरी योग्यता को स्वीकार करने में झिझकते थे। उनकी परवरिश पुरुषप्रधान समाज में हुई है, वे अपने घर में मुखिया की भूमिका में रहे। उनके लिए कार्यस्थल में किसी स्त्री को बॉस के रूप में स्वीकार करना थोडा मुश्किल होता है। अगर वे बाहर स्त्री के प्रति बराबरी का व्यवहार करेंगे तो घर में भी उन्हें ऐसा करना होगा। यह एक संकट है उनके सामने। अपने यहां मैनेजमेंट में मैं लगभग 15 साल से अकेली स्त्री हूं। मैंने यही कोशिश की कि ख्ाुद को अपने काम से साबित करूं। इसलिए अगर कुछ पुरुष सहकर्मियों में झिझक होती भी है मुझे स्वीकारने में तो मेरे काम से वह ख्ात्म हो जाती है। मेरा मानना है कि स्त्री बेहतर और भिन्न है। वह एक साथ कई स्तरों पर काम कर सकती है। इसलिए मैं अपने महिला स्टाफ के लिए हमेशा फ्लेक्सिबल समय रखती हूं। मुझे पता है कि उन्हें लचीलापन चाहिए, इमोशनल स्तर पर वे बेहतर हैं, उनमें सहनशीलता है, इसलिए वे बेहतर परफॉर्मेस दे पाती हैं।

रही बात स्त्रियों की सुरक्षा की तो जितनी तेज्ाी से वे बाहर निकलेंगी, उतना ही सुरक्षित माहौल बन सकेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें केंद्रीय भूमिका में आना होगा। अभी महिलाओं के बारे में पुरुष बयान दे रहे हैं और वही कह रहे हैं कि स्त्रियों को क्या करना चाहिए-क्या नहीं। जब तक स्त्रियां अपने बारे में खुद टिप्पणी नहीं करेंगी, तब तक स्थिति नहीं बदलेगी। कहते हैं कि दिए की लौ बुझने से पहले और तेज्ाी से जलती है। यह भी शायद पुरुष प्रधान सोच ख्ात्म होने से पहले की छटपटाहट हो। स्त्रियों को मुख्यधारा में आना होगा। अभी वे इस स्तर पर कम हैं। जब तक टॉप लेवल पर नहीं आएंगी, स्थितियां तेज्ाी से नहीं बदलेंगी। स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता सिर्फ परिवार के स्तर पर ही नहीं, समाज के स्तर पर भी ज्ारूरी है। परिवार और समाज दोनों जगह सपोर्ट सिस्टम हो। हमारे संस्थान में जो महिलाएं काम कर रही हैं, उनके विकास में हमारी भागीदारी सुनिश्चित हो। अगर मैं अपने महिला स्टाफ को सपोर्ट करूंगी तो वे भी कंपनी के प्रति समर्पित भाव से काम करेंगी। अब कई कंपनियों ने महिलाकर्मियों को छूट देनी शुरू की है कि वे ऑफिस टाइम में लचीलापन रखें, कुछ काम घर से कर लें, क्योंकि उन्हें ऑफिस के साथ घर व बच्चे की ज्िाम्मेदारी भी निभानी होती है। इस फ्लेक्सिबिलिटी के बेहतर नतीजे भी मिलने लगे हैं।

पुरुष अपना अहं छोडें और सहयोगी बनें

अजीत गांधी, मार्केटिंग हेड फायरफॉक्स बाइक्स लिमिटेड, दिल्ली

स्त्रियां अभी कुछ स्थानों पर कम हैं, लेकिन मैं मानता हूं कि कुछ खास स्तरों पर वही बेहतर काम कर पाती हैं। मार्केटिंग में उनकी कम संख्या के पीछे कारण यह है कि यहां काम के घंटे अनिश्चित हैं। ट्रैवलिंग ज्यादा करनी पडती है और लेट नाइट काम करना पड सकता है। महिलाओं के लिए यह थोडा मुश्किल होता है। मैं सिर्फ अपनी कंपनी की बात करूं तो यहां रिटेल में महिलाएं तेज्ाी से आ रही हैं। आउटसोर्रि्सग में फीमेल स्टाफ काफी है। इसके अलावा हमारी कई एजेंसीज्ा में महिलाएं बेहतर पोज्ाीशन में भी हैं, यानी वे बॉस के महत्वपूर्ण पदों पर हैं। सामान्य तौर पर भी देखें तो जहां-जहां स्त्री सीईओ हैं, वहां उन्होंने मिसाल पेश की है। इंदिरा नूई से लेकर चंदा कोचर तक इसका उदाहरण हैं। मेरा मानना है कि अब मेट्रो सिटीज्ा में बदलाव साफ दिख रहा है। महिलाओं को वर्ककल्चर में देखने की आदत भी पुरुषों को पडने लगी है, लेकिन छोटे शहरों में कुछ मुश्किलें हैं। मुझे यह सच्चाई स्वीकारने में कोई हिचक नहीं है कि महिलाएं बेहतर कर्मचारी होती हैं और उनके साथ काम करने या उनकी योग्यता को स्वीकार करने में पुरुष का ईगो आडे नहीं आना चाहिए। कस्टमर सर्विस जैसे काम वही बेहतर कर सकती हैं। अब तो भारत पेट्रोलियम या कुछ सीएनजी फिलिंग सेंटर्स में भी महिलाएं दिखने लगी हैं। इन्हें प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए और कार्यस्थलों पर एक संवेदनशील माहौल तैयार किया जाना चाहिए।

आंकडों की चेतावनी: प्रशासन सुस्त और अपराधी चुस्त

नेशनल क्राइम रिकॉ‌र्ड्स ब्यूरो के अनुसार, पिछले 40 वर्षो में स्त्रियों के प्रति अपराधों में 8.73 फीसदी की वृद्धि हुई है। यह नतीजा 1971 में दर्ज (2,487) मामलों और वर्ष 2011 में दर्ज (24,206) मामलों की तुलना के बाद निकाला गया है। इन आंकडों से साफ है कि बेहतर जीवन-स्थितियों और शैक्षिक सुधारों के बावजूद स्त्री के प्रति दृष्टिकोण में ख्ास फर्क नहीं आया है। स्त्री के प्रति संवेदनहीनता के मामले में 53 बडे शहरों में दिल्ली नंबर वन पर आती है, जबकि दूसरे और तीसरे नंबर पर क्रमश: बैंगलोर और हैदराबाद हैं। यौन-उत्पीडन के सर्वाधिक मामले पश्चिम बंगाल में दर्ज हुए हैं। दिलचस्प यह है कि ऐसी स्थितियां तब हैं जबकि देश में राष्ट्रपति पद से लेकर तमाम बडे राजनीतिक पदों पर महिलाएं आसीन हैं। पूर्व दिल्ली पुलिस कमिश्नर ए.आर. शर्मा के अनुसार, दिल्ली हो या गुवाहाटी, तमाम घटनाएं इस ओर संकेत करती हैं कि कानून और व्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं है। कानून का ख्ाौफ नहीं रहेगा तो असामाजिक तत्वों के हौसले बुलंद होंगे ही।

प्लानिंग कमीशन ने महिला सशक्तीकरण की दिशा में कई योजनाएं लागू करने पर बल दिया है। लेकिन दूसरी ओर उसका यह मानना है कि कई विभाग और मंत्रालय इस दिशा में दिए जाने वाले अनुदान का बहुत छोटा हिस्सा ही ख्ार्च कर सके हैं। यानी महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रति ये उदासीन दिखते हैं। देश की कुल आबादी का 48 फीसदी स्त्रियां हैं। ऐसे में ये आंकडे चौंकाते ही नहीं, डराते भी हैं।

कुत्सित मानसिकता है ज्िाम्मेदार श्रीदेवी, अभिनेत्री स्त्रियों के प्रति संवेदनहीन माहौल हर जगह है, कहीं ज्यादा तो कहीं कम। वैसे बडे शहरों में दृष्टिकोण काफी बदला है। इसके लिए स्त्रियों ने काफी प्रयास भी किए हैं। महानगरों का मध्यवर्गीय समाज तेज्ाी से बदल रहा है। इसकी वजह है आर्थिक स्वावलंबन। लेकिन जहां शिक्षा और सूचना का अभाव है, वहां आज भी लडकियों को बोझ और पराया धन माना जाता है। ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि स्त्रियों के प्रति अपराध के लिए वे स्वयं दोषी हैं। वे मानते हैं कि उनका ड्रेसिंग सेंस इसके लिए ज्िाम्मेदार है। रेप के लिए ड्रेस नहीं, कुत्सित मानसिकता ज्िाम्मेदार है। रेप के जितने मामले साडी या सलवार-सूट पहनी लडकी के साथ हुए हैं, जींस या शॉर्ट ड्रेसेज्ा पहनने वाली लडकी के साथ उससे कम ही हुए हैं। लडकियों के ड्रेसिंग सेंस को लेकर टिप्पणी करने वाले कथित समाज-सुधारकों को अपना मानसिक इलाज करवाना चाहिए। उन्हें अपनी दृष्टि में सुधार की •ारूरत है।

धीमी है सुधार की रफ्तार: प्रीति ज्िांटा

पीछे मुड कर देखें तो मुझे लगता है कि पिछले 20-30 वर्षो में स्थितियां काफी बदली हैं, लेकिन अभी भी विकसित देशों के मुकाबले यहां स्त्रियों की स्थिति दयनीय है। उन्हें कई मोर्चे पर जूझना पडता है। कामकाजी हों तो दोहरी-तिहरी ज्िांदगी जीनी पडती है। स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर जागरूकता अभियानों के बावजूद उनकी अनदेखी होती है। उनके प्रति सम्मान भावना पैदा हो और वे स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें, इसके लिए सबसे पहले पितृसत्तात्मक सोच से बाहर निकल कर बेटा-बेटी का भेद मिटाना होगा और सरकार को इसके लिए आगे आना होगा। हालांकि अब परिवारों का ढांचा बदल रहा है, लोगों की सोच में बदलाव आया है, लेकिन इसकी रफ्तार सुस्त है। इसके लिए सिर्फ अशिक्षित या ग्ारीब ही नहीं, पढे-लिखे और संभ्रांत लोग भी ज्िाम्मेदार हैं। युद्धस्तर पर जन-जागरूकता अभियान चलाने से ही स्त्रियों के प्रति संवेदनहीनता में कमी आएगी।

सुरक्षा का सवाल

व्याकरण के साथ युवाओं को आचरण भी सिखाएं कै. मान सिंह दलाल, दलाल खाप के प्रवक्ता, बहादुरगढ, जिला झज्जर (हरियाणा) मैं खाप प्रवक्ता हूं, इसका अर्थ यह नहीं कि मैं भी फरमान जारी करने लगूं। मैं भी ये बयान पढता हूं, जिसमें कभी लडकियों के लिए मोबाइल और जींस पर प्रतिबंध की बात की जाती है तो कभी कहा जाता है कि ड्रेसिंग सेंस के कारण लडकियों पर अत्याचार बढ रहे हैं। सबसे पहले मैं खाप का अर्थ बता दूं। खै और आप से मिलकर बना है खाप। खै का अर्थ है आकाश और आप का अर्थ है जल। यानी आकाश और जल जैसा पारदर्शी और साफ-निर्मल। दुर्भाग्य से कोई ऐसा बयान दे देता है और खाप उसके ख्िालाफ कार्रवाई नहीं करती तो इससे उन्हें बढावा मिलता है।

लेकिन मैं यह •ारूर कहूंगा कि बच्चों को अच्छे संस्कार दें। मोबाइल-जींस पर रोक लगाने से अपराध नहीं रुकेंगे। खाप का काम फतवे देना नहीं, सुधार करवाना है। इनका काम है-अपराध रोकना, झगडे सुलझाना। पहले हरियाणा में चौपालों का सिस्टम था। गांव के बडे-बूढे बैठ कर कोई मसला हल करते थे। लेकिन अब बुज्ाुर्गो ने भी अपनी ज्िाम्मेदारियां छोड दी हैं। वे दिन भर बैठकर ताश खेलते हैं या शराब पीते हैं तो युवाओं को संस्कार कैसे देंगे! मैं चाहता हूं कि खाप में महिलाओं और युवाओं की भागीदारी बढे ताकि एक संतुलन रहे। अभी तो अधिकतर अनपढ और पुराने विचारों के लोग खापों में आ रहे हैं। पढे-लिखे सुशिक्षित लोग गांव से बाहर चले जाते हैं, उन्हें गांव की चिंता नहीं होती। समाज के प्रति हमारा भी कोई कर्तव्य है। हम न तो घर में और न स्कूल में बच्चों को नैतिक मूल्य दे पा रहे हैं। मेरा मानना है कि व्याकरण के साथ ही आचरण की शिक्षा देना भी ज्ारूरी है। अपराधों को रोकने के लिए विचार और सोच की लडाई लडनी होगी। फतवे जारी करने से कुछ नहीं होगा। अपनी बेटियों को पढाएं-लिखाएं और आत्मनिर्भर बनाएं। बेटों को भी संस्कारवान बनाएं और उन्हें सिखाएं कि किसी महिला के प्रति उनका व्यवहार कैसा होना चाहिए। खाप वाले इन मुद्दों पर क्यों नहीं लडते कि शराब के ठेके बंद हों? एक-एक मृत्युभोज पर लाखों ख्ार्च हो जाते हैं, जहां ये खाप पंचायतें भी जाती हैं। इतने पैसे से लडकियों के स्कूल और उनके बैठने की व्यवस्था की जा सकती है। सवाल पैसे नहीं, सोच की कमी का है। मैं माता-पिता से कहूंगा कि वे अपने बेटों को अनुशासन में रखें और उन्हें संस्कारवान बनाएं, लडकियां स्वयं सुरक्षित हो जाएंगी।

सुरक्षा के नाम पर लडकी की आज्ादी क्यों बाधित हो

कविता कृष्णन, छात्र नेता और राजनैतिक कार्यकर्ता, दिल्ली

लडकियां असुरक्षित तो हैं, लेकिन एक बदलाव यह आया है कि वे अब अपनी बात रख रही हैं। उनमें आत्मविश्वास आया है। लेकिन अभी भी मैं देखती हूं कि जब बाहर से लडकियां यूनिवर्सिटी में पढने आती हैं तो उन पर पारिवारिक दबाव बहुत ज्यादा रहते हैं। भले ही उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हो, लेकिन पेरेंट्स उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं। चिंता वा•िाब भी है। शैक्षिक संस्थानों के प्रधान भी पितृसत्तात्मक सोच से ग्रस्त हैं। कोई घटना होती है तो यही कहा जाता है कि वे रात में बाहर क्यों निकलीं? यह विषय की गंभीरता से बचने और उसका सरलीकरण करने का प्रयास है। यह हिंसा का नया तरीका है कि लडकियों को इतना आतंकित करो कि वे घर से बाहर निकलने का साहस न कर सकें। यह बडा हास्यास्पद है कि लडकियों के साथ ही बुरा घटित हो और फिर उन्हें बचाने के लिए उनकी गतिविधियों को ही सीमित कर दिया जाए। यह तो 21वीं सदी की लडकियों को फिर से 18वीं सदी में ले जाने जैसी बात है। यानी किसी न किसी बहाने पीडित को ही अपराध का दोषी मान लिया जाता है। किसी एक लडकी के साथ बुरी घटना हो तो इसका असर केवल उसी पर नहीं पडता, हर मां-बाप पर पडता है और वे सभी अपनी बेटियों पर रोक-टोक करने लगते हैं। एक ओर पेरेंटल बंदिशें, दूसरी ओर समाज में असुरक्षा का सवाल, दो स्तरों पर जूझ रही हैं आज की लडकियां। खाप पंचायतों की पूरी सोच पितृसत्तात्मक है। अगर वे यह भी कहते हैं कि बलात्कार की घटनाएं रोकेंगे तो इसका अर्थ है कि वे किसी भी स्तर पर जाकर इसे रोकेंगे। यानी इसमें साम-दाम-दंड-भेद जैसे तमाम हथकंडे आ•ामाए जा सकते हैं। हिंसक तरीका किसी सवाल का हल नहीं हो सकता। इसका दूसरा छोर यह है कि लडकी की सुरक्षा के नाम पर उसी की आ•ादी को बाधित किया जाए। •ारूरत इस मुद्दे पर एकजुट होने की है कि महिलाओं के लिए स्वस्थ माहौल तैयार किया जाए और कानून-व्यवस्था को सशक्त बनाया जाए।

आज्ादी की सीमा

बेटा-बेटी दोनों को समान मूल्य दें

स्मिता बंसल, टीवी कलाकार, मुंबई

मेरी दो बेटियां हैं। बडी बेटी 8 साल की है, दूसरी हाल में पैदा हुई है। मैं मानती हूं कि बेटा हो या बेटी, दोनों के लिए ही पेरेंट्स को सावधान रहना होता है। इस ज्ामाने में लडका या लडकी दोनों ही सुरक्षित नहीं हैं। मैं मानती हूं कि बेटा-बेटी दोनों को अच्छे संस्कार देने की ज्ारूरत है। बच्चों का ड्रेसिंग सेंस क्या होगा, यह मां-बाप से ज्यादा दोस्त तय करते हैं। ज्ाबर्दस्त पियर प्रेशर होता है टीनएजर्स पर। माता-पिता होने के नाते हम ज्ारूर यह नहीं चाहेंगे कि हमारी बेटी कुछ भी पहन कर घूमे। हम उसे सही-ग्ालत तो समझाएंगे। मुझे लगता है लडकियों को तो हम टोकते हैं, लेकिन लडकों की परवरिश पर अभी हम कम ध्यान दे रहे हैं। मैं नहीं मानती कि लडकियों के साथ होने वाली घटनाओं के लिए उनका ड्रेसिंग सेंस •िाम्मेदार है। अगर 50 लडकियां ऐसे कपडे पहन रही हैं तो एक के साथ ही ऐसा क्यों होता है। दरअसल हम यह मान बैठते हैं कि लडकी के साथ ग्ालत हुआ है तो वही ग्ालत होगी। जिस लडके ने ग्ालत किया है, वह भी तो ग्ालत है। हम आज भी दकियानूसी समाज में जी रहे हैं। लोगों को अपनी सोच बदलने की ज्ारूरत है। बेटों को रोकेंगे नहीं और बेटियों की सुरक्षा के लिए चिंतित रहेंगे। ऐसे में तो असंतुलन होगा ही। इसका नुकसान पूरे समाज को होगा। अब एकल परिवारों का चलन है। पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं। ऐसे में अगर पति का रवैया सहयोगी न हो तो गृहस्थी टूटते देर नहीं लगती। स्त्री के प्रति यह सहयोगी भाव बेटों को सिखाना ज्ारूरी है, ताकि वे आगे अपने जीवन में महिलाओं के प्रति भ्रामक धारणाओं से मुक्त रह सकें। मेरी बेटी है, लेकिन अगर बेटा भी होता तो मैं देर से घर आने पर उसे ज्ारूर टोकती और पूछती कि वह कहां रह गया। बच्चों की समान ढंग से परवरिश हो, समान मूल्य दें और लडका-लडकी दोनों के लिए समान चिंताएं हों तो आधी समस्याएं हल हो जाएंगी।

कानून-व्यवस्था दुरुस्त हो

मुर्तजा, टीवी और रंगमंच कलाकार, मुंबई

मैं 23 साल का हूं। हम दो भाई-बहन हैं। मेरी दीदी 26 साल की हैं और उन्होंने प्रेम विवाह किया है। हमारा परिवार प्रोग्रेसिव विचारों वाला है। मेरे माता-पिता ने हम दोनों भाई-बहनों को पूरी आज्ादी दी है। मैं यह •ारूर कहना चाहूंगा कि अगर पेरेंट्स लडकियों के देर शाम घर से बाहर रहने पर ¨चतित होते हैं तो इसका कारण यही है कि वे अपनी बेटी को सुरक्षित देखना चाहते हैं। लडकियों की सुरक्षा के पीछे लचर पुलिस और कानून-व्यवस्था भी काफी हद तक •िाम्मेदार है। मुंबई में लडकियों को आज्ादी है और देर रात भी वे बाहर निकल सकती हैं। इसकी एक बडी वजह है यहां का पुलिस प्रोटेक्शन। यहां कानून कडे हैं। यहां के समाज ने सामंतवादी सोच से काफी हद तक मुक्ति पा ली है। मुंबई को पूरी दुनिया में दूसरे नंबर का श्रेष्ठ शहर माना जाता है। यह लडकियों की ग्ालती नहीं है कि उन्हें आज्ादी मिल रही है, यह उनका हक है। लेकिन लोगों के भीतर यह डर होना चाहिए कि अगर वे कुछ ग्ालत करेंगे तो उन्हें कठोर सज्ा मिलेगी। मुंबई में हर आदमी घर से निकलता है तो यह सोच कर निकलता है कि वह सही काम करेगा। अगर मैं ड्राइविंग कर रहा हूं तो ध्यान रखता हूं कि मेरे पास लाइसेंस, आईडी कार्ड और बाकी सभी ज्ारूरी चीज्ों हों। क्योंकि मैं जानता हूं कि ज्ारा सी भी लापरवाही से नुकसान हो सकता है। सामाजिक स्तर पर भी लोगों में जागरूकता पैदा करने की •ारूरत है। इसकी शुरुआत घर से करनी होगी। अगर हम घर में अपनी मां, बहन, पत्नी और बेटी के प्रति संवेदनशील रहते हैं तो बाहर भी हम वैसे ही रहेंगे। हम कुछ युवा मिल कर अभी स्ट्रीट प्ले कर रहे हैं। कॉमेडी प्ले के ज्ारिये हम तमाम सामाजिक मुद्दे उठाते हैं और सामाजिक चेतना लाने की कोशिश करते हैं। मेरा मानना है कि जिस समाज में लडकियों के प्रति संवेदनशील न•ारिया और सम्मान की भावना हो, वही समाज सही मायने में सुसंस्कृत समाज है।

स्त्री को पहले इंसान तो समझें

फराह ख्ान, कोरियोग्राफर

एक ज्ामाना था, जब भारतीय समाज स्त्री-शिक्षा का विरोधी था। लडकियों को घर की दहलीज लांघने की अनुमति नहीं थी। बचपन में शादी हो जाती थी। बेटियों को केवल इसलिए पढाया जाता था ताकि वे धार्मिक पुस्तकें पढ सकें। लेकिन धीरे-धीरे लडकियां बाहर निकलीं और उनका जीवन भी बदला। हालांकि अभी बहुत कुछ करना बाकी है। समाज के कुछ वर्गो में स्त्री के प्रति सोच प्रोग्रेसिव हुई है। लडकियां अपनी आज्ादी के साथ सुरक्षित माहौल में जी सकें, इसके लिए समाज और सरकार दोनों को काम करना होगा। कडे कानून बनाने होंगे। लोगों को भी यह समझना होगा कि स्त्री वस्तु नहीं, इंसान है। उसे एक इंसान के सारे अधिकार मिलने चाहिए।

आत्मनिर्भरता है समाधान

सोनाक्षी सिन्हा, अभिनेत्री

उदारीकरण के बाद से स्त्रियों की स्थिति में काफी सुधार आया है। स्त्रियां जितनी आत्मनिर्भर होंगी, समाज का रवैया उतना ही बदलेगा। फिल्म इंडस्ट्री इसकी मिसाल है। यहां पितृसत्तात्मक सोच पूरी तरह खत्म हो चुकी है। मैं अपनी बात करूं तो मेरे सामने कभी जेंडर का सवाल नहीं उठा। लडकियों को कैसे रहना चाहिए, क्या पहनना चाहिए या कहां घूमना चाहिए, इसका फैसला समाज के कथित ठेकेदार नहीं कर सकते। मेरे रहन-सहन, ड्रेस, मेकअप, हेयरस्टाइल या घूमने-फिरने को लेकर मेरे पेरेंट्स, भाइयों या दोस्तों ने कभी कोई सवाल नहीं खडा किया। मैंने ज्िांदगी अपने तरीके से जी, लेकिन आज्ादी का नाजायज्ा फायदा नहीं उठाया। मुझे अपनी ज्िाम्मेदारियों के बारे में अच्छी तरह पता है। हर लडकी अपनी •िाम्मेदारी समझती है। उसे मालूम है कि उसे कितनी आ•ादी चाहिए और उसकी सीमाएं क्या हैं।

मुंबई से इंटरव्यू : अमित कर्ण

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