हर हाल में खूबसूरत है जिंदगी

अगर इंसान के इरादे मज़बूत हों तो बड़ी से बड़ी मुश्किलें भी नाकाम हो जाती हैं। नोएडा की प्रिया भार्गव भी एक ऐसी ही बेमिसाल शख़्िसयत हैं, जो सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करना बख़्ाूबी जानती हैं। यहां वह ख़्ाुद ही बयां कर रही हैं अपने संघर्षपूर्ण जीवन की

By Edited By: Publish:Fri, 01 Apr 2016 04:12 PM (IST) Updated:Fri, 01 Apr 2016 04:12 PM (IST)
हर हाल में खूबसूरत है जिंदगी

अगर इंसान के इरादे मजबूत हों तो बडी से बडी मुश्किलें भी नाकाम हो जाती हैं। नोएडा की प्रिया भार्गव भी एक ऐसी ही बेमिसाल शख्िसयत हैं, जो सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करना बख्ाूबी जानती हैं। यहां वह ख्ाुद ही बयां कर रही हैं अपने संघर्षपूर्ण जीवन की कहानी।

अपने बचपन के दिनों में मुझे इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि आने वाले समय में जिंदगी मेरी इतनी कडी परीक्षा लेने वाली है। मेरा बचपन भी आम ब"ाों की तरह बेिफक्री से भरा था। मम्मी-पापा और अपनी बडी बहन प्राची के साथ मैं बेहद ख्ाुश थी। यह 200& की बात है। उन दिनों हम लोग जालंधर में रहते थे। मेरे पापा आर्मी में रह चुके हैं। तब उनकी पोस्टिंग नगालैंड के दीमापुर में थी, जहां परिवार को साथ ले जाने की इजाात नहीं थी। तब मैं बारहवीं में पढती थी। एक रोज अचानक मेरे चेहरे पर लाल रंग के रैशेज दिखने लगे। मम्मी मुझे स्किन स्पेशलिस्ट के पास ले गईं। डॉक्टर को लगा कि सनबर्न की वजह से ऐसा हो रहा है। इसलिए उन्होंने कुछ दवाएं और क्रीम देकर देकर मुझे घर वापस भेज दिया। इससे मुझे थोडा फायदा भी हुआ और ठीक होने के बाद इस समस्या की ओर मेरा ध्यान नहीं गया। बारहवीं के बाद मैंने िफजियोथेरेपी के कोर्स में एडमिशन लिया था और अपनी पढाई में व्यस्त हो गई।

छूट गई पढाई

मामूली स्किन एलर्जी के लक्षणों से शुरू होने वाली यह समस्या बाद में इतना गंभीर रूप धारण कर लेगी, इसका मुझे जरा भी अंदाजा न था। दरअसल मैं ल्यूपस एरिथ्मेटोसस (रुह्वश्चह्वह्य श्वह्म्4ह्लद्धद्वड्डह्लशह्यह्वह्य) नामक गंभीर बीमारी से पीडित हूं। इसीलिए अकसर मुझे 106-107 डिग्री तक बुख्ाार हो जाता था, जिसे उतारने के लिए डॉक्टर्स मलेरिया और टाइफाइड का इलाज करते रहे, पर वे बीमारी की असली वजह को पहचान नहीं पा रहे थे। उन्हीं दिनों एक बार मुझे बहुत तेज बुख्ाार आया। उसके बाद ख्ाून की जांच से मेरी बीमारी की पहचान हुई। आमतौर पर स्वस्थ लोगों के ख्ाून में एंटी बॉडीज की संख्या 100 तक होती है, लेकिन मेरे शरीर में इनकी संख्या &50 से भी ज्य़ादा थी, जो बार-बार शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं पर हमला करके मुझे बीमार कर देते थे। इसी वजह से मेरी तबीयत अकसर ख्ाराब रहने लगी। दवाओं के साइड इफेक्ट्स से मेरे बाल तेजी से झड रहे थे। इससे कॉलेज जाने में मुझे बहुत झिझक महसूस होती। मेरी मांसपेशियां कमजोर होने लगी थीं। जिससे थोडा पैदल चलने पर भी मैं बहुत जल्दी थक जाती थी। अंतत: एक वक्त ऐसा भी आया कि मैंने कॉलेज जाना बंद कर दिया और मेरी पढाई बीच में ही छूट गई।

सिलसिला परेशानियों का

एक रोज मैं घर पर अकेली थी और बाथरूम जाने के बाद टॉयलेट सीट से वापस उठ ही नहीं पाई। जब मम्मी मुझे अस्पताल ले गईं तो मालूम हुआ कि ल्यूपस एरिथ्मेटोसस के एंटी बॉडीज ने मेरी रीढ की हड्डी पर हमला कर दिया है। नतीजतन मेरे शरीर का निचला हिस्सा निष्क्रिय हो गया और मैं हमेशा के लिए व्हीलचेयर पर आ गई। अगर कभी अपने पैरों पर खडे होने की इ'छा होती है तो पल भर के लिए ही खडी हो पाती हूं, पर चलने के लिए मुझे व्हीलचेयर की जरूरत पडती है। इस बीच मेरे इलाज की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए पापा दिल्ली शिफ्ट हो गए। यहां दिल्ली के आर्मी बेस हॉस्पिटल में मेरा इलाज चल रहा था। कई बार मेरे शरीर के अलग-अलग हिस्सों पर इतने गहरे जख्म हो गए कि उसके लिए मुझे सर्जरी करानी पडी। एक बार मुझे सेप्टीसीमिया का इतना गंभीर इन्फेक्शन हुआ कि डॉक्टर्स को ऐसा लगा कि अब मेरा जीवित बचना मुश्किल है, पर मैं स्वस्थ हो कर घर लौट आई। अब तक हॉस्पिटल मे मेरा सेकंड होम बना चुका था।

पेरेंट्स ने बढाया हौसला

इस बीमारी में मेरे जीवन के सबसे कीमती दस वर्ष यूं ही बर्बाद हो गए। महीनों तक मैं गहरे डिप्रेशन में रही। काफी इलाज के बाद नॉर्मल हो पाई। दरअसल मेरे पेरेंट्स जीवन को लेकर बेहद पॉजिटिव नजरिया रखते हैं। उन्होंने ही मुझे इस मुश्किल हालात से लडऩे का हौसला दिया है। ज्य़ादा बीमार होने पर जब भी मुझे ब्लड चढाने की जरूरत होती तो आर्मी के कई जवान मुझे ब्लड देने को तैयार रहते थे, पर हर बार पापा ने ही मुझे ब्लड दिया। अपनी इस कोशिश से वह मुझे यह एहसास दिलाना चाहते थे कि मैं हर हाल में तुम्हारे साथ हूं। मम्मी-पापा हमेशा घर का माहौल ख्ाुशनुमा बनाए रखने की कोशिश करते। उन्होंने कभी भी मुझे इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि मैं बीमार या मजबूर हूं। पेंटिंग मेरी हॉबी है। इसके अलावा मैं लोगों के पोट्र्रेट भी बनाती हूं। जब मैं बेडरिडन हो गई थी तो पापा मेरे लिए बहुत हलका कैनवस लेकर आए, ताकि मैं बेड पर बैठकर ही पेंटिंग कर सकूं। तब मैं घंटों बैठकर पेंटिंग करती, घर की सजावट के लिए क्राफ्ट से जुडी चीजें बनाती और किताबें पढती। ये सारी एक्टिविटीज मेरे लिए दवा की तरह काम करती थीं। मेरे पेरेंट्स ने हमेशा मेरा मनोबल बढाया। इसी वजह से मैं जल्द ही डिप्रेशन के सदमे सें बाहर निकल आई।

मेहनत रंग लाई

मुझे पढऩे-लिखने का शौक बचपन से ही था। इसलिए 2007 में जब मेरी तबीयत थोडी संभल गई तो मैंने इग्नू (इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी) से बीसीए और एमसीए किया। इसके साथ भी बडा ही रोचक वाकया जुडा है। दरअसल 2004 से ही मैंने बच्चों को घर पर बुलाकर उन्हें ट्यूशन देना शुरू कर दिया था। एक रोज मेरे पास एक ब'चे की मम्मी का फोन आया और उन्होंने मुझसे कहा कि आप मेरे बेटे को एक के बजाय दो घंटे पढाएं। मैंने उनसे कहा कि इसके लिए उन्हें डबल पैसे देने होंगे, तब उन्होंने बडी तल्ख्ाी से कहा कि तुम तो मात्र बारहवीं पास हो, मैं तुम्हें इतने पैसे क्यों दूंं? इस बात का मेरे दिल पर इतना गहरा असर हुआ कि मैंने उस वक्त अपने मन में यह ठान लिया कि अब मैं आगे जरूर पढूंगी, ताकि भविष्य में कोई भी व्यक्ति मेरी योग्यता पर सवाल न उठा पाए। इसीलिए मैंने इग्नू से बीसीए और एमसीए किया।

जिंदगी से कोई शिकवा नहीं

हालांकि, अभी मैं पूरी तरह स्वस्थ नहीं हूं और जीने के लिए मुझे स्टीरॉयड्स का सहारा लेना पडता है। यूरिनरी और बॉवल सिस्टम पर शरीर का नियंत्रण ख्ात्म हो चुका है। डॉक्टर्स ने मुझे इन्फेक्शन से दूर रहने की सलाह दी है। इसी वजह से मैं घर से बाहर कम ही निकलती हूं। हां, रोजाना दोपहर से शाम तक मेरे पास स्कूल के ब"ो मैथ्स और साइंस की ट्यूशन के लिए आते हैं। उन्हें पढाकर मुझे स'ची ख्ाुशी मिलती है। अब मैं अपनी ख्ाुशियों के लिए जीना सीख गई हूं। एक बार सोशल मीडिया से मुझे मालूम हुआ एमएमडब्ल्यूआइ (मिस्टर एंड मिस व्हील चेयर) नामक संस्था की ओर से डिफरेंट्ली एबल्ड लडकियों के लिएराष्टीय स्तर पर सौंदर्य प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है। मेरे कई दोस्तों ने मुझसे आग्रह किया कि मुझे भी उसमें शामिल होना चाहिए। हालांकि, ऐसा करते हुए मुझे झिझक हो रही थी। फिर भी मैंने ईमेल के जरिये अपनी कुछ तसवीरें आयोजकों को भेज दीं। यह प्रतियोगिता बेंगलुरू में होने वाली थी। जब मैंने अपने परेंट्स को यह बात बताई तो वे मुझे ख्ाुद वहां लेकर गए। उस प्रतियोगिता में लगभग 250 लडकियां शामिल थीं और मुझे प्रथम स्थान प्राप्त हुआ, जो मेरा आत्मविश्वास बढाने में मददगार साबित हुआ। मैंने सिविल सर्विसेज और बैंकिंग से जुडी प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी भी शुरू कर दी है। अब मैं इस सच्चाई को स्वीकार चुकी हूं कि शादी की जिम्मेदारियां निभा पाना मेरे लिए मुश्किल है। इसीलिए मैं आर्थिक रूप से पूर्णत: आत्मनिर्भर बनना चाहती हूं। सच कहूं तो मुझे जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है।

क्या है एसएलई

एसएलई यानी सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथ्मेटोसस एक ऐसी ऑटो इम्यून डिजीज्ा है, जो व्यक्ति के इम्यून सिस्टम में होने वाली गडबडी की वजह से पैदा होती है। इम्यून सिस्टम का काम किसी भी तरह के संक्रमण से शरीर का बचाव करना है, पर कई बार यही इम्यून सिस्टम अति सक्रिय हो जाता है और यह संक्रमण से लडऩे के बजाय शरीर के सभी अंगों को नष्ट करना शुरू कर देता है। जीन की संरचना में गडबडी और आनुवंशिकता को इसका प्रमुख कारण माना जाता है।

डॉ. विनय कुमार सिंघल,

सीनियर कंसल्टेंट डिपार्टमेंट ऑफ रेमेटोलॉजी

मेदांता हॉस्पिटल, गुडग़ांव

प्रस्तुति : विनीता

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