चुनौतियां पसंद है मुझे: संजना कपूर

बॉलीवुड में कपूर खानदान का एक अलग स्थान है। इसी खानदान की लड़की हैं संजना कपूर, जिन्होंने ग्लैमर की चकाचौंध भरी दुनिया के बजाय थिएटर को चुना। पहले पृथ्वी थिएटर और अब जुनून के माध्यम से सामाजिक बदलाव का सपना देखने वाली संजना से लंबी बात की सखी की संपादक प्रगति गुप्ता ने।

By Edited By: Publish:Tue, 02 Jul 2013 02:32 PM (IST) Updated:Tue, 02 Jul 2013 02:32 PM (IST)
चुनौतियां पसंद है मुझे: संजना कपूर

थिएटर के बारे में बात करते हुए संजना कपूर की आंखें चमक उठती हैं और चेहरे पर बच्चों सा उत्साह झलकता है। ब्रिटिश मां जेनिफर और हिंदुस्तानी सुपर स्टार पिता शशि कपूर की इस बेटी ने लीक से हटकर थिएटर को चुना। उनके दादा पृथ्वी राज कपूर ने मुंबई में पृथ्वी थिएटर की स्थापना की थी। पिता और भाई के साथ संजना बरसों तक पृथ्वी से जुडी रहीं और पिछले एक वर्ष से दिल्ली में थिएटर संस्था जुनून चला रही हैं। पैर में हेयरलाइन फ्रैक्चर के बावजूद वह गर्मजोशी से मिलीं और काफी देर तक अपनी महत्वाकांक्षाओं, सपनों और थिएटर के बारे में बातें करती रहीं।

संजना आपने फिल्मों से करियर की शुरुआत की थी, फिर थिएटर की ओर कैसे आ गई? आपने 36 चौरंगी लेन, उत्सव, हीरो हीरालाल जैसी कई फिल्में कीं?

अरे! मेरे पिता की फिल्में हैं ये, इन्हें न गिनें (हंसते हुए)। फिल्में तो मेरे परिवार का हिस्सा हैं। परंपरा थी कि कहीं न कहीं छोटा-मोटा रोल मिल जाता था। जुनून में भी छोटी सी भूमिका थी (हंसते हुए)। हां, हीरो हीरालाल में मैं प्रमुख भूमिका में थी। केतन मेहता की फिल्म थी यह। इससे पहले उन्होंने मिर्च मसाला बनाई थी। मैंने उनसे कहा कि मैं आपके साथ काम करना चाहती हूं, क्योंकि मुझे इस फिल्म में आपका काम पसंद आया है। फिर 1-2 साल यूं ही निकल गए। तब तक सोचा नहीं था कि फिल्में करनी हैं या थिएटर, यहां रहना चाहती हूं या लंदन में। मैं नहीं जानती थी कि ऐक्टर बनने के लिए क्या करना होगा। ..इसके बाद मैं न्यूयॉर्क गई, हर्बर्ट बर्गफ स्टूडियो में नौ महीने का कोर्स किया ड्रामा का। यह जीवन का बहुत बडा और दिलचस्प अनुभव था। यहां सारे टीचर्स प्रोफेशनल थे। वहां एक खास बात यह थी कि प्रोफेशनल ऐक्टर्स भी हमें पढाते थे। भारत लौटने के बाद महसूस किया कि मैं थिएटर ही करना चाहती हूं, भले ही इसमें संघर्ष करना पडे। ..उस समय पृथ्वीराज कपूर का पृथ्वी थिएटर था, जेफरी केंडल का शेक्सपियराना, हबीब तनवीर का नया थिएटर..कुछ और भी ट्रैवलिंग थिएटर कंपनियां थीं। इसके अलावा कोई थिएटर कंपनियां नहीं थीं। मेरे दादा, नाना-नानी थिएटर कलाकार थे। मेरे दादा पृथ्वी राज कपूर फिल्मी दुनिया के शीर्ष पर थे, जब उन्होंने 1944 में थिएटर कंपनी शुरू की थी। 1960 तक उन्होंने पूरे भारत में घूम कर थिएटर किया था। उन्हें विश्वास था कि थिएटर से समाज में जागरूकता आएगी, इसमें अथाह ताकत है। उन्हें लगता था कि थिएटर में आप सीधे संवाद करते हैं, जो फिल्मों में संभव नहीं है। राज कपूर, शम्मी कपूर, शशि कपूर.. सभी ने शुरुआती ट्रेनिंग पृथ्वी से ली। ..

इसके बाद पापा जेनिफर केंडल (मेरी मां) से मिले, दोनों में प्रेम हुआ और फिर पिता ने दो साल के लिए शेक्सपियराना जॉइन किया। यह इंग्लिश ट्रैवलिंग थिएटर कंपनी थी, जिसमें 14 लोग थे, जबकि पृथ्वी में 150 से भी ज्यादा लोग थे। सब ट्रेन के थर्ड क्लास में चलते थे, साथ खाना खाते थे। तीन बोगी बुक रहती थीं। लेकिन इतने लोगों को लेकर चलना आर्थिक तौर पर संभव नहीं था। ..तो पृथ्वी शेक्सपियराना में मिल गया। यहां पिता को शेक्सपीयर पढना पडा। हालांकि डॉन बॉस्को में उन्होंने शेक्सपीयर को पढा था, लेकिन यहां तो परफॉर्म करना था। वे डायरी में नोट लिख कर ले गए थे। लेकिन पहली बार वह मंच पर आए तो उनके मुंह से शब्द ही नहीं निकल रहे थे..(जोर से हंसते हुए) लेकिन मां बहुत उदार थीं, उन्होंने पिता को ट्रेनिंग दी, बार-बार सिखाया। आखिर शेक्सपीयर में पिता की रुचि जगी..। अब मेरा बेटा हमीर शेक्सपीयर पढने लगा है। कुछ दिन पहले ही उसे सॉनेट समझा रही थी..।

मुझे याद है, हर्बर्ट बर्गफ स्टूडियो के ऑडिशन में मुझे शेक्सपीयर का मोनोलॉग करना था। उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हें किसने पढाया है? मैंने कहा, किसी ने नहीं। उन्होंने कहा, तुम झूठ बोल रही हो? मैंने आहत होते हुए कहा, मैं झूठ नहीं बोलती। मैं इसी भाषा के साथ बडी हुई हूं। मुझे अलग से इसे नहीं सीखना पडा। मैं भाग्यशाली हूं कि मुझे नाना जेफ्री केंडल और नानी लॉरा के साथ यात्राएं करने का सौभाग्य मिला। मैं शेक्सपीयर की कहानियां सुनते हुए बडी हुई। मैं पांच साल की थी, जब पृथ्वीराज कपूर का देहांत हुआ, तो उन्हें बहुत नहीं जानती थी। कुछ साल पहले हमने उनका जन्मशती वर्ष मनाया। इसमें देश भर से उनके वे नाटक चुने, जो सामाजिक संदेश देते थे। उनकी थिएटर कंपनी का मोटो था, कला देश की सेवा में। तब मुझे पता चला कि उनका काम कितना गंभीर था।

..लेकिन मेरे ब्रिटिश नाना मेरे रोल मॉडल हैं। वह मेरे हीरो हैं, जिन्होंने मुझे बहुत प्रेरणा दी। मॉडर्न क्लासिक्स में भी उन्होंने कई प्रयोग किए। यह करीब 70 के दशक के अंतिम दौर की बात है, वे अपनी कंपनी में केवल दो ही लोग रह गए थे। वे पूरे यूरोप के स्कूलों में जाते थे। वे शेक्सपीयर के नाटकों के कुछ दृश्यों का मंचन करते थे। मैं उनके साथ आयरलैंड के एक टूर पर गई, उनके साथ कुछ दृश्य भी किए..। अपने टीनएज में मैं इस गहरी भावना से गुजरी कि जिंदगी सिर्फ एक बार मिलती है। धीरे-धीरे कन्फ्यूजन खत्म हुआ। मुझे समझ आया कि फिल्में मेरे लिए नहीं हैं। मुझे रिहर्सल करना और रोज काम करना अच्छा लगता था।

फिल्मों का ग्लैमर आपको प्रभावित नहीं करता था?

नहीं, बल्कि इससे मुझे डर लगता था। शायद यह ब्रिटिश परवरिश का असर है कि हम बहुत प्राइवेट किस्म के लोग हैं। मैं कभी पिता के साथ मुंबई में नहीं घूमी। हालांकि हम अपने गोवा वाले घर में आजादी से रहते और घूमते थे। वहां हमें कोई नहीं पहचानता था, न कोई पिता को स्टार की तरह ट्रीट करता था। हम कोंकणी बोलते थे, मछुआरों के साथ उठते-बैठते थे। मेरी ब्रिटिश मां की परवरिश ऐसी थी कि तीन चीजें हमारे घर में प्रतिबंधित थीं- टीवी, कॉमिक्स, कोल्ड ड्रिंक्स। हालांकि अमर चित्रकथा, टिनटिन, एस्ट्रिक्स जैसी मैग्जींस आती थीं।

..मैं 15-16 साल की थी, जब मां का निधन हो गया। वह लंदन में थीं। मेरे भाई करन की पढाई लंदन में हुई। सोचती हूं, उस उम्र में पिता के लिए अकेले मुझे संभालना कितना मुश्किल रहा होगा! थिएटर और शिक्षा दोनों में मुझे दिलचस्पी थी। मेरी मां की दिलचस्पी अकादमिक्स के बजाय रीअल एजुकेशन में थी। मुझे लगता है स्कूल्स की जिम्मेदारी बहुत बडी है। जुनून के जरिये मैं यही कोशिश कर रही हूं कि शिक्षा और कला के प्रति वास्तविक दिलचस्पी पैदा हो सके।

पृथ्वी से जुनून तक का सफर कैसा रहा? पृथ्वी क्यों छोडा?

हां, 1978 में दोबारा पृथ्वी थिएटर स्थापित किया गया और मैं इसके कई साल बाद इससे जुडी। मेरे जीवन में कुछ प्लान करके नहीं हुआ। जिंदगी स्वाभाविक ढंग से एक से दूसरी राह पर मुडी। शुरू में कई साल मैं पृथ्वी से इसलिए दूर रही, क्योंकि मैं बहुत बडी जिम्मेदारी उठाने से घबराती थी। मेरी उम्र भी कम थी। 15 साल की थी मैं.., यह 1983 की बात है, पृथ्वी के पांच साल पूरे हुए थे। मां को लगा कि इसे सेलिब्रेट करना चाहिए। मुझे याद है वह माहौल-वह ऊर्जा..। मेरी मां लोगों को जुटाना चाहती थी। हालांकि इसके एक साल बाद 1984 में ही उनका निधन हो गया। 1991 से मैंने धीरे-धीरे काम शुरू किया। एक साल तक मैं हर शो देखती थी, सीखती थी। भाई कुणाल और फिरोज अब्बास खां को असिस्ट करती थी। फिर कुछ दूसरे काम शुरू किए। आर्ट गैलरी, समर कार्यक्रम, कैफे, प्रोडक्शन कंपनी..। पृथ्वी और लिटिल पृथ्वी के नाटक शुरू हुए। अभी मेरा एक और सपना है- बडी सी लाइब्रेरी बनाना, जिसमें आर्ट व थिएटर के बारे में सब कुछ मिले। पिता पृथ्वी से जुडे रहे। उनसे ही प्रेरणा व आत्मविश्वास मिलता था। वह ईमानदार दर्शक-आलोचक थे।

..2003 में पृथ्वी के 25 साल पूरे हुए। मैं निर्णायक मोड पर थी। यह बडा तामझाम था, लेकिन मेरे लिए यह खुद से सवाल करने का समय था कि हमने क्या हासिल किया है? मेरे सामने चुनौतियां थीं। ये न हों तो जिंदगी नीरस हो जाती। मैं अकेलेपन से गुजर रही थी। क्या करना है, कैसे इसे आगे बढाना है..। सोचा, पृथ्वी से अलग भी कुछ करना होगा, तो छोटे-छोटे प्रोजेक्ट्स शुरू किए। वार्षिक बैठकें, सेमिनार, मैनेजमेंट ट्रेनिंग प्रोग्राम्स.., मकसद यही कि थिएटर को मजबूत बनाएं।

फिल्मों व टीवी के जमाने में थिएटर की कितनी पहुंच है..?

थिएटर एक दिलचस्प माध्यम है। माफ करें, लेकिन मुझे सचमुच ऐसा लगता है कि फिल्में बुरी बन रही हैं। टीवी में भी कुछ अच्छा नहीं है। थिएटर में ही हम कुछ बेहतर कर सकते हैं। समय अब बहुत बदल चुका है। 20-25 साल पहले तक लोग नौकरी करते थे, शाम को कुछ वक्त थिएटर को देते थे, यह एक शौक की तरह था। लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। अब युवा पूरा समय देने को तैयार हैं..।

आपके भाई कुणाल भी थिएटर से जुडे हैं?

हां, मां के बाद कुणाल ही पृथ्वी को देख रहे हैं। करन लंदन में अपने बिजनेस में व्यस्त हैं। वे फोटोग्राफी करते हैं। मेरे पेरेंट्स ने हम पर कभी किसी तरह का दबाव नहीं डाला। हम जो भी करें, उन्होंने हमेशा हमारा समर्थन और मार्गदर्शन किया।

जुनून पृथ्वी से कैसे अलग है?

..मैं थिएटर को रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल करना चाहती हूं। मैं स्कूलों व छोटे शहरों में थिएटर को स्थापित करना चाहती हूं। अगर हम शांत-सभ्य देश चाहते हैं तो थिएटर को समृद्ध करना होगा, संवेदनाएं जगानी होंगी, जोकि व्यस्तता में खो रही हैं। थिएटर के जरिये दुनिया को देखने की अलग दृष्टि मिलती है। हम स्कूल्स, छोटे शहरों, स्थानीय संस्थाओं, कॉर्पोरेट व‌र्ल्ड से पार्टनरशिप के जरिये थिएटर को आगे ले जाना चाहते हैं। भारत में कई संस्कृतियां व परफॉर्मिग आ‌र्ट्स हैं और उन्हें एक साथ लाना बडी चुनौती है, इसे अकेले नहीं किया जा सकता..। ऐसे लोग जो समान विचारधारा के हैं, साथ आएं तो काम आसान हो जाता है। लोगों को जानना चाहिए कि राज कपूर ने थिएटर के लिए बहुत काम किया। शशि कपूर ने भी थिएटर से ट्रेनिंग ली है। वे इसे जारी रखते, अगर ऐसा आर्थिक रूप से संभव हो पाता..।

मुंबई में पहले से पारसी, गुजराती और मराठी थिएटर काम कर रहे हैं, ऐसे में हिंदी थिएटर के लिए संभावनाएं हैं?

बिलकुल.., मुंबई में पृथ्वी ने एक रीअल नर्चरिंग ग्राउंड तैयार किया है। ऐसा ही नर्चरिंग ग्राउंड चाहिए। पृथ्वी से हिंदी थिएटर को नई जगह मिली, कंटेंपरेरी हिंदी थिएटर शुरू हुआ। यह एक लेबोरेट्री है, जिसने 25-30 थिएटर कंपनियों को संरक्षण दिया। इसे चलाना इतना आसान नहीं रहा है। मराठी, गुजराती कमर्शियल थिएटर की अपनी समस्याएं हैं। पारसी थिएटर तो अब नहीं है। केंद्र सरकार ने थिएटर के लिए कई स्कीम्स चलाई हैं, लेकिन उन संस्थाओं को भी तो बेहतर बनाना चाहिए, जिनसे थिएटर मजबूत होता है। सही स्पेस नहीं होगा तो थिएटर कैसे करेंगे? यह एहसास, संवेदना व सुकून के लिए है। परफॉर्मर और दर्शक सभी को सुकून मिलना चाहिए, यह ध्यान रखना होगा।

आप बच्चों के लिए भी बहुत काम कर रही हैं, युवाओं के साथ काम करने में कुछ बदलाव महसूस करती हैं?

यह दिलचस्प अनुभव है। इंग्लैंड में क्रिसमस जैसे मौकों पर ही बच्चे थिएटर देखते हैं। बाकी समय वहां बडे ही दिखते हैं, लेकिन मुंबई, दिल्ली में युवा थिएटर देख रहे हैं। उनकी पॉकेट में 200-300 रुपये के टिकट खरीदने की क्षमता है और वे खर्च करते हैं। माता-पिता अपने बच्चों को थिएटर की ओर ला रहे हैं। मैं कई सालों से समर थिएटर कर रही हूं। पहले यह हॉबी क्लासेज्ा की तरह था, लेकिन पिछले कुछ सालों में लोग गंभीर हुए हैं। हमने मुंबई में 32 सफल वर्कशॉप्स कीं। हम प्रोफेशनल कलाकारों को बुला रहे हैं। बच्चों, टीचर्स के अलावा हम पेरेंट्स वर्कशॉप भी कर रहे हैं।

कपूर परिवार का नाम जुडने से क्या आपकी राहें आसान रहीं?

हां, मैं भाग्यशाली हूं। मेरे परिवार का बहुत सम्मान है। बस एक बार मुझे बुरा लगा। मैंने सरकार के पास फंड के लिए एक प्रपोजल भेजा था। बाद में मुझे पता चला कि उन्होंने कहा कि शशि कपूर के पास तो बहुत पैसा है, उन्हें पैसा क्यों चाहिए। मुझे लगता है सेमिनार, ट्रेनिंग कार्यक्रमों पर सरकार को खर्च करना ही चाहिए।

आपके पापा सुपरस्टार थे। क्या कभी ऐसा लगा कि उनके पास समय नहीं है? या जरूरत के समय वे हमेशा साथ होते थे?

परवरिश का जिम्मा मां का था, उन्होंने ही हम तीनों को पाला-पोसा। लेकिन कभी यह नहीं लगा कि पापा साथ नहीं हैं। बाकी दिन तो वह शूटिंग्स में व्यस्त रहते थे, लेकिन संडे पूरी तरह परिवार के लिए होता था। सुबह 7.30 पर ब्रेकफस्ट होता था, आठ बजे हम स्कूल जाते थे। सीरियल्स, एग्स, जूसेज व फ्रूट्स से हमारी टेबल भरी होती थी। पापा भले ही रात में देर से लौटे हों, सुबह नहा-धोकर डायनिंग टेबल पर होते थे। वे बहुत अनुशासित हैं। शायद टीनएज में मैं उनके बहुत करीब नहीं थी, उस उम्र में व्यक्ति कई नियम तोडना चाहता है, लेकिन 20 की उम्र के बाद पापा से मेरा संवाद बढा। हम पिता को फॉर ग्रांटेड लेते हैं। पीछे मुडकर देखती हूं तो कई बातें समझ आती हैं..।

यात्राओं के दौरान आप होम फ्रंट को कैसे मैनेज करती हैं?

बेटा अब 10 साल का हो गया है, मैं थोडा फ्री हूं। जब मैं नहीं होती हूं तो मेरे पति दोनों की भूमिका निभाते हैं। परवरिश जटिल काम है। मैं जब इतनी बडी थी, मां हमेशा मेरे साथ होती थी। समर वर्कशॉप्स में तो बेटे को साथ ले जा सकती हूं, उसकी छुट्टियां होती हैं। लेकिन स्कूल के दिनों में मैनेज करना मुश्किल होता है।

स्त्री होने के नाते कभी कोई मुश्किल हुई?

मैं भाग्यशाली हूं कि ऐसा नहीं देखना पडा। मुंबई और दिल्ली में फर्क है। देश के अलग-अलग हिस्सों में स्त्रियों के प्रति अलग नजरिया है। एक बार मैं अपनी दोस्त के साथ राजस्थान में ड्राइविंग कर रही थी। सामने से ट्रक आ रहे थे, पतली सी सडक थी लेकिन वे रुके नहीं। दोस्त ने कहा, तुम्हीं रुको। वे महिला ड्राइवर के सामने नहीं रुकेंगे..।

थिएटर के अलावा आपके अन्य क्या शौक हैं?

मैं स्कूबा डाइविंग सीखना चाहती हूं, स्विमिंग मुझे पसंद है। हम गोवा, लक्षद्वीप, मालदीव में रहे। लोग पहाड जाते हैं और मुझे समुद्र आकर्षित करते हैं। हमीर को भी पानी पसंद है। पानी, मछलियां, प्रकृति..। हम कई बार जंगल भी जाते हैं। यह मेरे पति (वाल्मीक थापर, टाइगरकंजर्वेशनिस्ट) का पैशन है।

अपनी पहचान पाने का सुख क्या है?

मैंने तो जुनून को शुरू ही किया है। मैं काम करती हूं क्योंकि यह मुझे पसंद है और चुनौतियां भी। मैं रोज कुछ नया करती हूं-सीखती हूं। मैं बचपन से ही कुछ चीजों पर सोचती रही हूं कि हम दुनिया को कैसे देखना चाहते हैं, थिएटर को कैसा होना चाहिए, मेरे भय क्या हैं, मेरी ताकत क्या है..। छोटी-छोटी चीजों में मुझे खुशी और थ्रिल का एहसास होता है। कोई कहे कि उसने मुंबई के ऑपरा हाउस में पृथ्वी राज कपूर के नाटक देखे तो मुझे खुशी मिलती है। मुंबई में एक यंग स्ट्रगलर ने पृथ्वी गैलरी में हुई किसी पेंटिंग एग्जीबिशन के बारे में चर्चा की तो अच्छा लगा। इतने साल बाद भी उसे हमारा काम याद है तो यह बडी बात है। शायद यही मेरी पहचान है।

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