उल्लास के तीन दिन

अक्टूबर का महीना व्रत-उपवास, देवी स्तुति और त्योहारों से भरपूर होता है। दुर्गा पूजा भी इसी समय होती है। दिल्ली स्थित चितरंजन पार्क में इन दिनों भव्य पंडाल लगा कर पूजा की जाती है।

By Edited By: Publish:Wed, 05 Oct 2016 01:45 PM (IST) Updated:Wed, 05 Oct 2016 01:45 PM (IST)
उल्लास के तीन दिन
अक्टूबर का महीना व्रत-उपवास, देवी स्तुति और त्योहारों से भरपूर होता है। दुर्गा पूजा भी इसी समय होती है। दिल्ली स्थित चितरंजन पार्क में इन दिनों भव्य पंडाल लगा कर पूजा की जाती है। एक-डेढ महीने पहले से ही यहां पूजा की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। इसी माहौल का जायजा लेने मैं यहां पहुंची। जगह-जगह विशालकाय पंडालों को बनाने में जुटे कारीगर। यहीं स्थित है काली मंदिर, जहां बडी संख्या में दुर्गा प्रतिमाएं तैयार की जाती हैं। मंदिर के शांत वातावरण में बैठे कलाकारों के मिट्टी सने हाथ बाहरी दुनिया से निर्लिप्त गढते रहते हैं कुछ चेहरे, उंगलियां, नाक, कान और हाथ...जो एकाकार होकर देवी दुर्गा की प्रतिमा में बदल जाते हैं। दुर्गा पूजा पंडालों में ही होती आई है लेकिन चितरंजन पार्क में एक-दो परिवार ऐसे भी हैं, जो घर में पूजा का आयोजन कर रहे हैं। इन्हीं में से एक परिवार से मिल कर जाना, इससे जुडी मान्यताओं और पूजा के बदलते तौर-तरीकों के बारे में। संस्कृति को जानना अब मैं हूं केया गुहा राय और शांतनु के घर...। यह दंपती पिछले 11 वर्षों से अपने घर में दुर्गा पूजा का आयोजन कर रहा है। इन्हें यहां बसे हुए लगभग 37 साल हो गए हैं। केया मूल रूप से कोलकाता की हैं। शादी के बाद यहां आईं और पिछले 27 वर्षों से यहीं रहती हैं। बताती हैं, 'दिल्ली में कोलकाता से ज्यादा घरेलू माहौल है। यहां दुर्गा पूजा एक सामूहिक आयोजन है, जिसमें लोग साथ उठते-बैठते और खाते-पीते हैं। यहां पूजा के माध्यम से बांग्ला संस्कृति को दर्शाने की कोशिशें होती हैं। फिर चाहे वह रविंद्र संगीत हो, थिएटर, खानपान या पहनावा। कोलकाता में दुर्गा की प्रतिमा को देखने का चाव ज्यादा होता है। वहां लंबी-लंबी कतारें लगी रहती हैं। लोग एक-दूसरे को बताते हैं कि किस पंडाल में ज्यादा अच्छी प्रतिमा बनी है। खासतौर पर बच्चों में तो इसका बेहद चाव होता है। दिल्ली में भोग और प्रसाद का वितरण सबको किया जाता है।' केया बताती हैं, 'अब दिल्ली में भी पंडाल बडे हो गए हैं और पूजा कम। लोग फिश, बिरयानी, झाल-मूडी खाने ही आते हैं।' 11 साल पहले केया कहती हैं, '11 वर्ष पूर्व जब पहली बार मेरे पति शांतनु ने घर में पूजा रखने की बात की तो सब हैरान हो गए। यह बेहद मुश्किल कार्य था। मुझे लगता था, यह बहुत बडी जिम्मेदारी है, मैं इसे नहीं संभाल पाऊंगी। मैंने शांतनु को मना कर दिया था। पूजा व्यापक पैमाने पर होती है, इतने लोगों को खिलाना, ठहराना... एक परिवार के लिए यह सब करना काफी मुश्किल काम था। लेकिन शांतनु ने ठान लिया था तो करना ही था। इसके लिए सबसे पहले जरूरत थी दुर्गा प्रतिमा की, जिसके लिए हम कालीबाडी गए और वहां से दुर्गा की प्रतिमा ली। उस समय दुर्गा की भव्य प्रतिमा भी चार-पांच हजार रुपये तक में मिल जाती थी मगर अब वैसी प्रतिमा के लिए 10-25 हजार रुपये तक खर्च होते हैं।' ऐसी क्या वजह रही कि पंडालों से निकल कर घर में पूजा का आयोजन शुरू किया? शांतनु कुछ सोच कर बताते हैं, 'मेरी मां का देहांत वर्ष 2000 में हुआ था। उनसे मेरा लगाव बहुत ज्यादा था। उनके जाने के बाद मैं खुद को बहुत अकेला महसूस करने लगा था। चाहता था, वह किसी भी तरह मेरे साथ घर में रहें। इसका एक उपाय मुझे यही सूझा कि देवी दुर्गा के रूप में मां को वापस घर में लाऊं। जब दोस्तों-पडोसियों को यह बात बताई तो उन्होंने भी सहयोग दिया और धीरे-धीरे आसपास के सभी परिवार इस घरेलू पूजा में शामिल होने लगे...। मेरे पिता भी इस पूजा में शामिल होते थे। कुछ वर्ष पूर्व वह भी दुनिया से चले गए...।' केया और शांतनु हर वर्ष पूजा की एक थीम चुनते हैं। पहली बार सप्तमी, अष्टमी और नवमी को उनके घर पर होने वाली पूजा में 100 लोगों ने खाना खाया था मगर आज यह संख्या बढकर 1000 तक पहुंच गई है। आसपास के सभी लोग अपने-अपने घरों से कोई न कोई सामान लाते हैं। यह पहले ही तय हो जाता है कि कौन क्या देगा। कोई आटा ले आता है तो कोई सब्जियां...। इस तरह मिल कर खाना तैयार हो जाता है। कुछ प्रथाएं बदली भी हैं शांतनु हंसते हुए बताते हैं, 'पहले तो पूजा के दौरान रसगुल्ला या संदेश न हो तो त्योहार जैसा लगता ही नहीं था। यहां तक कि लोग एक-दूसरे को रसगुल्लों की हांडी उपहार में देते थे मगर अब डायबिटीज ने मिठाइयों का चलन कम कर दिया है। वैसे शुगर-फ्री मिठाइयां भी आने लगी हैं। हमने अपनी पूजा में बलि-प्रथा को खत्म कर दिया है। कई स्थानों पर इस अवसर पर ऐसा होता रहा है। दुर्गा पूजा के बाद काली पूजा भी होती है। यह उसी तरह होती है, जिस तरह दीपावली पर लक्ष्मी पूजन होता है। अब पिछले वर्ष से पूजा को ज्यादा रोचक बनाने के लिए नृत्य-संगीत का आयोजन भी किया जाने लगा है। बंगाल से कुछ लोग आकर यहां पारंपरिक वाद्य यंत्र बजाते हैं। ढोल की तरह ही यहां 'ढाक' बजाया जाता है। पूजा की तैयारियों के लिए हम दोस्तों-रिश्तेदारों से सोशल साइट्स पर कनेक्ट रहते हैं। इसी के जरिये सबकी जिम्मेदारियां तय होती हैं। लोगों की इच्छा के हिसाब से उन्हें कार्य सौंपा जाता है। अब तो यह हाल है कि पता भी नहीं चलता कि कैसे सारा काम संपन्न हो गया।' सामूहिकता का एहसास शांतनु-केया के परिवार के लिए दुर्गा पूजा धार्मिक से ज्यादा एक सामाजिक आयोजन है। वे बताते हैं, 'पूजा के बहाने लोग एकत्र होते हैं, साथ बैठकर खाना खाते हैं, बातचीत करते हैं। ऐसा बेहतरीन मौका भला कोई क्यों गंवाना चाहेगा? इस बहाने हम एक-दूसरे से मिल पाते हैं, जो आम दिनों की व्यस्त दिनचर्या में संभव नहीं है। बुजुर्गों-बीमारों को खाना घर पर ही सर्व किया जाता है। उनके लिए अलग से खाने के पैकेट्स तैयार किए जाते हैं, जिन पर उनका नाम लिख कर उनके घर भेजा जाता है।' शांतनु गुरुद्वारा की लंगर प्रथा से प्रभावित हैं। वह ऐसी पूजा करना चाहते थे, जहां हर जाति-धर्म के लोग आ सकें और आपस में विचारों का आदान-प्रदान कर सकें। बडे-बडे पंडालों में लोग कतारों में खडे रह जाते हैं, पूजा नहीं कर पाते। इस घरेलू पूजा में दो पंडित एक साथ पूजा करवाते हैं। यह एक तरह से कम्युनिटी कार्यक्रम है। खाना बनाने में पडोसी मदद करते हैं। पिछले 11 वर्षों से एक ही टेंट हाउस है, जो सप्तमी के तीन दिन पहले ही सामान रखवा देता है। इसके बाद वहां के लोग आकर सारी व्यवस्था कर लेते हैं। इस दंपती की बेटी के दूरदराज में रहने वाले दोस्त भी पूजा में शामिल होते हैं। रात्रि में बांग्ला संगीत और क्लासिक बांग्ला सिनेमा भी दिखाया जाता है। षष्टी के दिन जैसे ही दुर्गा प्रतिमा आती है, सोसाइटी की लडकियां आकर खूबसूरत रंगोली सजा जाती हैं। लोग खुद ही सारा अरेंज्मेंट कर लेते हैं। केया बताती हैं, 'इन दिनों हम रात 12 बजे तक जागते हैं और अगली सुबह 5 बजते ही उठकर नहा-धोकर पूजा के लिए चले जाते हैं। आम दिनों में लगातार ऐसी दिनचर्या हो तो थकान हो जाती है लेकिन आस्था में इतनी ताकत होती है कि न थकान होती है, न भूख लगती है और न ही नींद आती है। दूसरों को खिलाने और सामूहिकता में जीने का सुख ही शायद अलग होता है। शांतनु-केया के घर होने वाली इस पूजा की खासियत है कि यहां जाति-धर्म या वर्ग का भेदभाव नहीं है। शायद इसीलिए यहां रहने वाले सभी लोग पूजा में शामिल होते हैं और तीन दिन तक चलने वाले इस कार्यक्रम का हिस्सा बनते हैं। ऐसे शुरू हुई दुर्गा पूजा पूजा-अनुष्ठान, सुगंधित पकवान, खरीदारी, रेडियो-सीडीज पर चंडी पाठ का रसास्वादन....दुर्गा पूजा के अनिवार्य नियम हैं। माना जाता है कि हर वर्ष दुर्गा अपने पति को हिमालय पर छोड कर 10 दिन के लिए पीहर आती हैं। प्रतिमा की पूजा होती है सप्तमी, अष्टमी और नवमी के दिन। नवरात्र के छठे दिन प्रतिमा को लाया जाता है और पंडाल में उनकी प्राण-प्रतिष्ठा होती है। लकडी पर जूट और भूसे से ढांचा तैयार किया जाता है, मिट्टी में धान के छिलके (भूसे) को मिला कर मूर्तियां तैयार की जाती हैं। खूबसूरत रंगों से इन्हें अंतिम रूप दिया जाता है। फिर वस्त्र और आभूषण पहनाए जाते हैं। प्रतिमा के पंडाल में आने पर शाम को 'बोधन' के साथ प्रतिमा का आवरण हटाया जाता है। इस दिन स्त्रियां उपवास रखती हैं। शाम को 'लुचि-तरकारी' यानी पूरी-सब्जी का लुत्फ उठाया जाता है। सभी लोग नए कपडे पहनते हैं। दुर्गा पूजा के इन चार दिनों में रोज सुबह जल्दी उठ, नहा-धोकर नए वस्त्र पहन कर मां को पुष्पांजलि अर्पित की जाती है। पंडालों में सुबह से ही लाल पाड की साडी पहनी स्त्रियां पूजा-अर्चना करती दिखाई देती हैं। ढाक (ढोल) के साथ मां की आरती होती है और भोग लगाया जाता है। फूल की थाली बजाई जाती है। दोपहर को खिचुडि (खिचडी) और तरकारी का प्रसाद वितरित होता है। शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रमों और प्रतियोगिताओं की चहल-पहल होती है। रविंद्र संगीत बजता है। अष्टमी के दिन संधि-पूजा होती है। मंत्रोच्चार के साथ 108 दीप प्रज्वलित होते हैं और निर्जल उपवास रखा जाता है। नवमी पर 'कुमारी पूजा' होती है, जिसमें छोटी कन्या की पूजा होती है। बंगाल में इस दिन शाम को धुनुचि नाच व शंख वादन प्रतियोगिताएं होती हैं। दशमी की सुबह प्रतिमा विसर्जन होता है। मां को सिंहासन से उतारा जाता है। इससे पूर्व 'सिंदूर खेला' होता है, जिसमें प्रतिमा को सिंदूर लगाकर, मिठाई व पान का भोग लगाया जाता है। सुहागिन स्त्रियां एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं। मां की विदाई पर सब वैसे ही उदास हो जाते हैं जैसे बेटी की विदाई के समय होते हैं।
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