कविता पुस्तक समीक्षा

बिहार के नवादा जिले में जन्मी असीमा भट्ट ने मगध विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एम.ए. किया और फिर दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनय में डिप्लोमा किया।

By Edited By: Publish:Tue, 05 Jul 2016 02:27 PM (IST) Updated:Tue, 05 Jul 2016 02:27 PM (IST)
कविता पुस्तक समीक्षा
बिहार के नवादा जिले में जन्मी असीमा भट्ट ने मगध विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एम.ए. किया और फिर दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनय में डिप्लोमा किया। वह रंगमंच, टीवी और फिल्मों की संवेदनशील अभिनेत्री हैं, साथ ही बेबाक-साहसी और बेहतरीन कवियित्री भी हैं। अब तक कई संस्मरण, कविताएं और लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। संप्रति : मुंबई में रहकर अभिनय और लेखन में व्यस्त। एक लडकी थी एक लडकी थी आजाद रूह आजाद शख्सियत थोडी-थोडी पागल रातों को उठ-उठ कर सडकों पर भाग जाती थी रात-रात भर तारों के साथ जागती थी और उनसे बातें करती थी पूछती थी- तुम कौन हो? कहां जाना है? किसके लिए जागते हो? चांद के लिए? क्या तुम रास्ता भटक गए हो? तुम खो गए हो? क्या ढूंढ रहे हो? क्या तुम चांद को ढूंढ रहे हो? मन ही मन मुस्कुराती थी खुद पर इतराती थी करती थी उलटे-सीधे सवाल और वो भटके हुए तारों को टॉर्च दिखाती थी...। कौन कहता है वक्त बुरा है... दुर्दिन में भी मासूम बच्चे खिलखिला कर हंस रहे हैं क्यारियों में अब भी खिल रहे हैं फूल तितलियां अब भी नृत्य कर रही हैं बुलबुल अब भी गा रही है तराने प्यार में धोखा खाई प्रेमिकाएं अब भी कर रही हैं प्यार चूम रही हैं अपने प्रेमी का माथा कौन कहता है वक्त बुरा है...। अंतराल मिलने और बिछडऩे के अंतराल को ऐसे रखना कि कभी बाद बहुत बाद भी कहीं राह चलते मिल जाऊं तो मुझसे मेरा हाथ पकड कर पूछ सको मेरा हाल मुस्कुरा सको मुझे देख कर जैसे पहचाने हुए राही से फिर मुलाकात हो जाती है किसी दूसरी राह पर मिलूंगी जरूर वैसे ही, जैसे पहले कभी मिली थी...। माफ करना माफ करना दोस्त तुम कितने भी बडे आदमी बन जाओ कुछ भी हासिल कर लो तुम अपनी जिंदगी में कितने भी झंडे गाड लो कामयाबी के... मैं तुमसे प्रभावित नहीं होती क्योंकि तुम बहुत डरे हुए आदमी हो और डरे हुए आदमी से मुझे बहुत डर लगता है...। बोध कभी बैठना एकांत में सोचना, टटोलना खुद को और पूछना अपनी आत्मा से क्या खोया और पाया तुमने अचानक ही जवाब पाओगे कि किसी बहुमूल्य पत्थर को कंकड समझकर अनजाने ही पानी में फेंक चुके हो तुम...। किताबों की दुनिया माता कालिया की कहानियां जमाने के साथ चलती हैं। 'दौड', 'दुक्खम-सुक्खम' जैसे उपन्यासों में उन्होंने ग्रामीण परिवेश के ताने-बाने, विवशताओं और समस्याओं को इंगित किया था। अब समाज में हो रहे बदलावों को देखते हुए 'सपनों की होम डिलिवरी' उपन्यास लिखा है। इसकी कहानी आधुनिक दौर की है, जहां व्यक्ति निजी पहचान के साथ-साथ संबंधों की ऊष्मा को भी बचाना चाहता है। नायिका रुचि मुंबई की करियवुमन है। बखूबी जानती है कि कौन सा करियर उसे नाम-दाम दिला सकता है। वह एक टीवी चैनल पर पाक-कला विशेषज्ञ और कुकरी प्रोग्राम प्रस्तोता है। एक ओर जहां उसकी सहेलियां उम्र ढलने के साथ जॉब में आउटडेटेड हो रही हैं, वहीं अनुभवी रुचि की मांग अपने पेशे में बनी हुई है। वह अकेली रहती है और ऐसे पुरुष की तलाश में है, जो उसका हमसफर तो बने पर उसकी आजादी में बाधक न हो। नायक सर्वेश खोजी पत्रकार है, जो क्राइम की एक्सक्लूसिव खबरें जुटाने के लिए कुछ भी कर सकता है। उसके दिल में भी अच्छा जीवनसाथी पाने की हसरतें बाकी हैं। दोनों शादीशुदा हैं लेकिन उनका वैवाहिक जीवन विफल रहा है। एक-एक बेटे के माता-पिता रुचि व सर्वेश की मुलाकात एक टीवी शो में होती है। वे एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं और फिर मुलाकातें बढऩे लगती हैं। एक-दूसरे की निजी जिंदगी में हस्तक्षेप न करने की शर्त पर वे शादी कर लेते हैं। रुचि अपने बेटे का सच छुपा लेती है। जीवन के किसी मोड पर उसे नशे की गिरफ्त में आए बेटे को सहारा देना पडता है। सर्वेश को पता चलता है तो आक्रोश में रुचि पर हाथ उठाने की कोशिश करता है। इसके बाद वे अलग हो जाते हैं...। सर्वेश अपने नशेडी बेटे को खो देता है। फिर वह रुचि के बीमार बेटे को घर लाता है और पूरे मन से उसकी सेवा करता है। नायक-नायिका का फिर मिलन होता है। उपन्यास की कहानी छोटी और रोचक है। एक सिटिंग में इसे पढा जा सकता है। स्मिता
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