कविताएं पुस्‍तक समीक्षा

सब कुछ बनना बंद गली का आखिरी मकान मत बनना, जहां सारी उम्मीदें दम तोड़ दें जहां सपने भी आकर संग छोड़ दें...

By Edited By: Publish:Thu, 29 Dec 2016 03:23 PM (IST) Updated:Thu, 29 Dec 2016 03:23 PM (IST)
कविताएं पुस्‍तक समीक्षा
बिजनौर में जन्मे और पले-बढे मुकुल सरल की कविताएं सामाजिक-राजनीतिक चेतना से भरी हैं। वह कविताएं रचते ही नहीं, जीते भी हैं। शायद इसीलिए ये कविताएं सीधे दिल में उतर जाती हैं। कविता-कर्म मुकुल के लिए शौक नहीं, समय की जरूरत है। उनकी कविताएं समाज के कमजोर और वंचित तबके की आवाज बन कर उभरती हैं। संप्रति : ग्रेटर नोएडा में रहते हुए कविता-कर्म और लेखन जारी। बंद गली का आखिरी मकान सब कुछ बनना बंद गली का आखिरी मकान मत बनना जहां सारी उम्मीदें दम तोड दें जहां सपने भी आकर संग छोड दें दिन अकेला हो, सहमी सियाह रात हो सिर्फ सन्नाटा हो, गम की बारात हो मत बनना, ऐसा बियाबान मत बनना बंद गली का आखिरी मकान मत बनना अगले दरवाजे पे कुछ गलियां जरूर मिलती हों घर की दीवारों में कुछ खिडकियां भी खुलती हों एक नई राह जो भीतर से बाहर आए एक राह जो उफक तक जाए ऐसी एक राह बनाकर रखना आकाश-गंगा तक साथी उडान तुम भरना बंद गली का आखिरी मकान मत बनना दिल की दीवारें इतनी ऊंची न हों कि कोई आ न सके खुशी का गीत रचें और तुम्हें सुना न सकें सितारे चमकेें न सूरज आए चांद भी राह में ठिठक जाए हंसना मत भूलना आंखों को नम मत करना रीत के नाम पर खुशियों का दान मत करना मौन मत ओढऩा-हक मत छोडऩा कुछ भी बनना, महान मत बनना बंद गली का आखिरी मकान मत बनना...। कद पांच फुट चार इंच...पांच फुट छह इंच... नहीं...नहीं... उसका कद तो मुझसे भी ऊंचा है अब आप कहेंगे एक औरत का कद आदमी से ऊंचा कैसे हो सकता है? मुझे लगता है वो ऊंची एडी की सैंडिल पहनती है! पर....पर मैंने तो हमेशा उसे सपाट चप्पल ही दिलवाई हैं जमीन से लगती हुई बेहद हल्की (अलबत्ता मेरे जूते काफी ऊंचे और भारी हैं) नहीं-नहीं वो कोई जादू भी नहीं जानती न ही भगवान को मानती है जो उसे कोई वरदान मिला हो हां, वो घर और बाहर हर मोर्चे पर मुझसे आगे है पर इससे क्या फर्क पडता है...? क्यों? नहीं...नहीं...! वो पंजों के बल भी खडी नहीं होती हां... वो मेरे आगे कभी घुटनों के बल भी नहीं झुकी शायद शायद यही वजह...। किताबों की दुनिया उभयलिंगी पुरुषों के जीवन की सच्चाई पुस्तक - एंड्रोगायनी एेेंड फीमेल इंपर्सोनेशन इन इंडिया - नारीभाव संपादक - तुतुन मुखर्जी नीलाद्रि आर चटर्जी प्रकाशक - नियोगी बुक्स, नई दिल्ली मूल्य - 795 रुपये उभयलिंगी, यानी ऐसे पुरुष जो स्त्रियों की तरह व्यवहार करते हैं। हैदराबाद की तुतुन मुखर्जी और कोलकाता के नीलाद्रि आर चटर्जी जैसे शिक्षाविदों के संपादन में 'एंड्रोगायनी एंड फीमेल इंपर्सोनेशन इन इंडिया : नारीभाव' किताब हाल में प्रकाशित हुई है। बिना किसी लाग-लपेट के यह ऐसे पुरुषों का सच सामने लाती है, जो खुद को स्त्रियों की तरह प्रस्तुत करते हैं। भारत में कई ऐसी कलाएं और साहित्यिक दस्तावेज हैं, जो एक व्यक्ति में स्त्री-पुरुष, दोनों गुणों के मौजूद होने का संकेत देते हैं। भगवान शंकर का अद्र्धनारीश्वर रूप इसी बात की पुष्टि करता है। महाभारत में अज्ञातवास के दौरान वीर अर्जुन को उभयलिंगी बनना पडा। प्राचीन समय में नाटकों में पुरुष ही स्त्री किरदार निभाते थे। पौराणिक कथाओं के मशहूर लेखक देवदत्त पट्टनायक ने अपनी किताब 'शिखंडी' में यही बताने का प्रयास किया कि भले ही भारत में ऐसे लोगों की भत्र्सना की जाती हो, पर कई राष्ट्रों में ये सामान्य जीवन जीते हैं। भारत में भी अब इनकी संख्या न सिर्फ धर्म, थियेटर, नृत्यों में बल्कि फिल्म, टेलिविजन और इंटरनेट में भी बढ रही है। '...नारीभाव' में इस विषय पर न सिर्फ गहरा रिसर्च किया गया है बल्कि कई विशेषज्ञों के इंटरव्यूज और आलेख भी सम्मिलित किए गए हैं। कथकली विशेषज्ञ मार्गी विजयकुमार तथा नाटकों की विशेष विधा आधारनाट्यम को प्रस्तुत करने वाले कलाकृष्ण की बातचीत प्रमुख है। भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर अपने जगत प्रसिद्ध नाटक 'बिदेसिया' में पात्रों को इस रूप में भी प्रस्तुत किया है। किताब में यह बात जोर देकर कही गई है कि हर पुरुष में स्त्रियोचित और स्त्री में पुरुषों वाले भाव होते हैं। इसलिए स्त्रियोचित गुणों का प्रदर्शन करने वाले पुरुषों को हेय दृष्टि से देखना अनुचित है। भगवान कृष्ण ने राधा के वस्त्र पहनकर स्त्रियों सा स्वांग रचाया था, तो फिर उनकी ही संतान आम इंसान के प्रति इतनी घृणा क्यों? स्मिता
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