कुछ बदला है कुछ बदलेगा

फिल्मों में स्त्री किरदार मजबूत हुए हैं। अब नायिकाएं सशक्त भूमिकाओं में नजर आ रही हैं। इसके बावजूद वे महत्वपूर्ण फैसले लेती नहीं दिख रही हैं। उनका पारिश्रमिक भी कम है। फिर भी कुछ बदला है, आगे भी बदलेगा..। फिल्मों में आए इस बदलाव की जानकारी दे रहे हैं अजय ब्रह्मात्मज।

By Edited By: Publish:Mon, 03 Mar 2014 03:15 PM (IST) Updated:Mon, 03 Mar 2014 03:15 PM (IST)
कुछ बदला है कुछ बदलेगा

्रहिंदी फिल्मों में स्त्रियों की मौजूदा स्थिति का आकलन दो स्तरों पर हो सकता है। पर्दे पर दिखते स्त्री पात्रों के अध्ययन-विश्लेषण से हम उनकी बदलती भूमिका को रेखांकित कर सकते हैं। हमें ध्यान रखना होगा कि क्या पर्दे के पीछे स्त्रियों की सक्रियता में कोई बदलाव आया है? दोनों स्थितियों के सम्मिलित निष्कर्ष से धारणा बनाएं तो सटीक होगा।

पर्दे के पीछे स्त्री

पहले हम हिंदी फिल्मों में महिलाओं की स्थिति के दूसरे स्तर यानी पर्दे के पीछे की महिलाओं पर नज्ार डालें। समाज के मूल्य कमोबेश इंडस्ट्री में भी जाने-माने जाते हैं। भारतीय समाज आज भी पुरुष प्रधान है। करियर से समाज तक जारी उनकी प्रभुता से समाज की सोच और दिशा प्रभावित होती है। वह सोच ही महिलाओं की स्थिति में बदलाव या यथास्थिति का कारक होता है। हालांकि भारत कुछ ऐसे देशों में है, जहां लंबे समय तक एक महिला सत्तासीन रहीं। किंतु पारंपरिक मूल्यों में जकडे समाज में उल्लेखनीय बदलाव न दिखा। संविधान निर्माताओं ने महिलाओं की संवैधानिक समानता और उनके अधिकार सुनिश्चित किए, लेकिन असलियत में स्त्रियां घर-परिवार की चौखट नहीं लांघ पाई।

स्त्री प्रधान फिल्में बढीं

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं की स्थिति में खास तब्दीली नहीं आई है। पिछले दिनों दीपिका पादुकोण सफल फिल्मों की वजह से सुर्खियों में रहीं। दर्शक उन्हें पसंद कर रहे हैं। पर वास्तविकता यह है कि दीपिका को प्रति फिल्म पारिश्रमिक किसी भी लोकप्रिय अभिनेता की तुलना में काफी कम मिलता है। अभिनेता और अभिनेत्री के पारिश्रमिक में यह विषमता दशकों से चली आ रही है। कभी कोई अभिनेत्री लगातार सफल होती है, मगर ऐसी अभिनेत्रियों को केंद्र में रख कर निरंतर फिल्मों की कल्पना नहीं की जा सकती। हिंदी फिल्मों में दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपडा, करीना कपूर, विद्या बालन, अनुष्का शर्मा जैसी अभिनेत्रियों का महत्व और प्रभाव बढा है। कुछ तो समकालीन अभिनेताओं की तरह प्रॉफिट शेयरिंग की शर्तो पर भी फिल्में कर रही हैं। फिल्मों के निर्माण में उन्हें भी दांव लगाने का मौका दिया जा रहा है। लेकिन इस सकारात्मक बदलाव का गुणनफल इतना कम है कि बदलाव की स्थिति में गति नजर नहीं आती। अभी तक यह स्थिति नहीं है कि अभिनेत्रियों को बराबर का दर्जा मिले।

अभिनेताओं का वर्चस्व

महिला दिवस के ठीक एक दिन पहले रिलीज होने जा रही गुलाब गैंग में माधुरी दीक्षित और जूही चावला आमने-सामने हैं। सौमिक सेन निर्देशित इस फिल्म के निर्माता अनुभव सिन्हा हैं। वह कहते हैं, जब मैं फिल्म को लेकर निवेशकों से मिलने लगा तो लगभग सभी ने पहला सवाल यही पूछा कि माधुरी और जूही चावला तो ठीक हैं, पर हीरो कौन है? हीरो के बिना हिंदी फिल्मों की कल्पना नहीं की जा सकती। यह नई बात नहीं है। फिल्में अभिनेताओं के नाम पर बनाई-बेची जाती रही हैं। निर्माता और कॉर्पाेरेट हाउस फिल्म की योजना बनाते समय सबसे पहले पॉपुलर मेल ऐक्टर के बारे में सोचता है।

गुलाब गैंग में लीड रोल निभा रही माधुरी दीक्षित ने खास बातचीत में एक बदलाव की ओर इशारा किया, अभी सेट्स पर लडकियों की संख्या उल्लेखनीय है। निर्देशन, मेकअप, प्रोडक्शन, लाइटिंग जैसे तमाम विभागों में सहायक के तौर पर वे दिख रही हैं। मैंने गौर किया कि वे मुस्तैदी, जिम्मेदारी, अधिकार से काम करती हैं। सचमुच फिल्म निर्माण के विभागों तक आ रहा यह बदलाव उल्लेखनीय है। लडकियां अब पुरुषों के लिए सुरक्षित (मेकअप, प्रोडक्शन) विभागों में भी आ चुकी हैं। इस बदलाव के बावजूद उनकी सक्रियता सहायक से आगे नहीं बढ पाती है। उन्हें नेतृत्व नहीं सौंपा जाता। खैर, आशावादी सोच कहती है कि कुछ तो हुआ है.।

महिला डायरेक्टर्स

हर साल दो-चार महिला निर्देशक उभरती हैं, पर पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो पातीं। िफलहाल फराह खान सफल डायरेक्टर हैं। दूसरे विभागों में भी 10-12 से ज्यादा नाम नहीं गिनाए जा सकते। फिल्म निर्माण में महिलाएं नहीं आ पातीं। भट्ट कैंप से निकलने के बाद पूजा भट्ट ने जरूर अपने हस्ताक्षर छोडे। अभिनय की पारी समाप्त होने पर या उसके पहले ही अभिनेत्रियां फिल्म निर्माण में कदम रख रही हैं। असल बदलाव तब होगा, जब गुनीत मोंगा और अशी दुआ जैसी महिलाएं फिल्म निर्माण में उतरेंगी। संख्या, मौजूदगी व सक्रियता में इजाफा होगा तो महिला पात्रों पर भी असर दिखेगा।

आठवें दशक के आरंभ से हिंदी फिल्मों में अचानक हीरो अहम हुआ और हीरोइन गौण हो गई। हालांकि हृषिकेष मुखर्जी, गुलजार, बासु भट्टाचार्य और कुछ अन्य निर्देशकों की फिल्मों में महिलाओं की सम्मानजनक छवि दिखी। मगर मोटे रूप से हीरो के सर्वव्यापी चित्रण से हीरोइनों की भूमिका दोयम दर्जे की हो गई। उन्हें सजावट या नाच-गाने के लिए हरखा जाने लगा। पिछली सदी के अंतिम दशक में सूरत बदली भी तो उनकी भूमिका प्रेमिका और हीरो के लव इंट्रेस्ट तक बनी रही। उन्हें सुंदर, ग्लैमरस, आधुनिक दिखाया गया, मगर वे फैसले लेती नहीं दिखीं। हीरो के सहारे उनकी जिंदगी चलती रही। समानांतर व आर्ट फिल्मों में उन्हें महत्व मिला। निर्देशकों ने महिला चरित्रों को उनके द्वंद्व, संघर्ष समस्याओं के बीच पेश किया और विजयी होते भी दिखाया।

बोल्ड स्त्री का चित्रण

21 वीं सदी में परिदृश्य बदला है। चर्चा है कि विद्या बालन की द डर्टी पिक्चर और कहानी जैसी फिल्मों से सशक्तीकरण का आभास होने लगा है। मगर इन दोनों फिल्मों के किरदारों के बारे में विचार करें वे पुरुष समाज और उसकी सोच से आगे नहीं निकल पाते हैं। द डर्टी पिक्चर की नायिका अंत में नशे में डूबकर आत्महत्या करती है। ऐसे आत्महंता चरित्र तो समाज के आदर्श नहीं हो सकते। कहानी की नायिका एक जगह बोलती है कि गर्भवती होने का नाटक करने में उसे सर्वाधिक आनंद आया। यही संवाद उसकी विजय को बट्टा लगा देता है।

फिर भी कहा जा सकता है कि बदलाव आ रहा है। इसी साल गुलाब गैंग, क्वीन, हाइवे और बॉबी जासूस जैसी फिल्में आएंगी। इनमें नायिकाओं की भूमिका खास और महत्वपूर्ण है। किसी भी फिल्म में स्त्री या पुरुष के महत्व को आंकने की सरल कसौटी यह है कि क्या फिल्म की कहानी उस चरित्र के फैसले या कृत्य से आगे बढती है? अगर नहीं तो अपनी मौजूदगी और पहचान के बावजूद वह अनुगामी चरित्र ही होगा। इस साल आ रही इन चारों फिल्मों में महिलाओं या नारी चरित्र पर निर्देशकों ने बखूबी ध्यान दिया है। इन फिल्मों में पुरुष चरित्र भी हैं, लेकिन वे सहायक और गौण भूमिकाओं में हैं।

उम्मीद का दामन थामें

फिल्म विशेषज्ञ बताते हैं कि हिंदी फिल्मों में पुरुषों का वर्चस्व रहेगा। समाज में परिवर्तन के साथ-साथ फिल्म इंडस्ट्री में भी बदलाव दिखेगा। बदलाव की धीमी प्रक्रिया से निराश होने की जरूरत नहीं है। समय एवं परिवर्तन की गति से हट कर देखें तो दिखेगा कि स्त्री चरित्र और इंडस्ट्री की स्त्रियों की भूमिका में गुणात्मक बदलाव आ चुका है।

अजय ब्रह्मात्मज

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