संघर्र्षों में छिपा जीवन का सारांश

तीस साल पहले आई फिल्म 'सारांशÓ ने अनुपम खेर को सिनेमा की दुनिया में स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई। कम ही लोग जानते हैं कि पहले इस किरदार के लिए संजीव कुमार का चयन किया गया था। माता-पिता के भरोसे, संघर्ष व जिजीविषा के साथ ही यह कहानी आदर्शों

By Edited By: Publish:Tue, 21 Apr 2015 03:40 PM (IST) Updated:Tue, 21 Apr 2015 03:40 PM (IST)
संघर्र्षों में छिपा जीवन का सारांश

तीस साल पहले आई फिल्म 'सारांश'' ने अनुपम खेर को सिनेमा की दुनिया में स्थापित करने में बडी भूमिका निभाई। कम ही लोग जानते हैं कि पहले इस किरदार के लिए संजीव कुमार का चयन किया गया था। माता-पिता के भरोसे, संघर्ष व जिजीविषा के साथ ही यह कहानी आदर्शों के टूटने की कथा भी कहती है। फिल्म कैसे बनी, बता रहे हैं अजय ब्रह्म्ाात्मज।

तीस साल से ज्यादा हो गए। 'सारांश' 25 मई 1984 को रिलीज हुई थी। राजश्री प्रोडक्शन की इस फिल्म ने महेश भट्ट को नाम और यश दिया। हालांकि इसके पहले 'अर्थ' आ चुकी थी। शबाना आजमी और स्मिता पाटिल की 'अर्थ' विवाहेतर संबंध पर कुछ जरूरी सवाल खडे करती है और औरतों के पक्ष में जाती है। इस फिल्म से प्रभावित होकर ताराचंद बडज़ात्या ने महेश भट्ट को निमंत्रित किया था। उन्होंने महेश भट्ट को खुली छूट दी थी, लेकिन जब फिल्म के वृद्ध नायक बीवी प्रधान के नास्तिक होने की उन्हें जानकारी मिली तो उन्होंने स्क्रिप्ट में बदलाव के लिए दबाव डाला। तब उनके बेटे राजकुमार बडज़ात्या ने सलाह दी कि निर्देशक पर ऐसे दबाव नहीं डाले जा सकते। वह किरदारों को अपनी सोच से ही गढेगा और लिखेगा। इस स्थिति से नाखुश होने के बाद भी उन्होंने फिल्म बनाने की सहमति दे दी थी।

ऐसे आए अनुपम खेर

बीवी प्रधान की भूमिका के लिए महेश भट्ट के दिमाग्ा में संजीव कुमार और अनुपम खेर का नाम प्रमुख रूप से था। संजीव कुमार की खूबी थी कि वे हर उम्र के किरदार को निभा ले जाते थे। महेश भट्ट इस भूमिका में बुजुर्ग कलाकार को लेने के पक्ष में नहीं थे। राजश्री की तरफ से दबाव था कि संजीव कुमार को फाइनल किया जाए। अनुपम खेर को युवा फिल्मकार महेश भट्ट से काफी उम्मीद थी। मगर जब उन्हें पता चला कि 'सारांश' के लिए संजीव कुमार का चुनाव हो गया है तो वे हताश हुए। उन्होंने दिल्ली लौटने का मन बना लिया था। फिर भी दिल्ली लौटने से पहले उन्होंने एक बार महेश भट्ट से मिलने और उन्हें राजी करने का प्रयास किया। उन्होंने सोच लिया था कि रोल तो ऐसे भी जा चुका है। वे महेश भट्ट को खरी-खोटी सुना कर मन की भडास निकाल लेंगे। उन्होंने आखिरी मुलाकात में महेश भट्ट की खूब लानत-मलामत की। उन्होंने कहा कि आप जैसे फिल्ममेकर भी स्टार के पीछे भागेंगे तो नई प्रतिभाओं का क्या होगा? आहत अनुपम खेर की बातों से महेश भट्ट द्रवित हुए। उन्होंने ताराचंद बडज़ात्या को बताया कि वे अनुपम खेर को चुन रहे हैं। खलबली सी मच गई। महेश भट्ट के फैसले ने सबको परेशान कर दिया।

जीवंत अभिनय

महेश भट्ट के इस फैसले से संजीव कुमार भी दुखी हुए थे। फिल्म पूरी होने पर महेश भट्ट ने संजीव कुमार को फिल्म दिखाई। फिल्म देख कर संजीव कुमार फूट पडे। उन्होंने महेश भट्ट से कहा कि बीवी प्रधान की भूमिका अनुपम खेर ही निभा सकते थे। वह फिल्म के साथ ऐसा न्याय नहीं कर पाते। 48 से अधिक उम्र के रिटायर टीचर बीवी प्रधान की भूमिका निभाते समय अनुपम खेर की उम्र सिर्फ 28 साल थी। इस किरदार को लेखक ने कायदे से रखा था। अनुपम खेर ने अपनी प्रतिभा से उसे जीवंत कर दिया। उन्हें पत्नी बनी पार्वती की भूमिका निभा रही रोहिणी हटंगडी से भी पूरा सहयोग मिला। फिल्म में नीलू फूले, मदन जैन और सोनी राजदान खास भूमिकाओं में थे। मदन जैन और सोनी राजदान की भी यह उल्लेखनीय फिल्म थी। राजश्री प्रोडक्शन की इस फिल्म में ताराचंद के होनहार पोते सूरज बडज़ात्या महेश भट्ट के सहायक थे। फिल्म में कॉस्ट्ूयम डिजाइन करने की जिम्मेदार अमाल अल्लाना को मिली थी। फिल्म की पटकथा मशहूर लेखक सुजीत सेन की मदद से महेश भट्ट ने लिखी थी। 'सारांश' के संवाद अमित खन्ना ने लिखे थे, जो बाद में महेश भट्ट के सहयोगी बने। फिल्म के आरंभ में अनुपम खेर का नाम नए कलाकार के तौर पर आता है।

संघर्ष और जिजीविषा

'सारांश' मुबई के शिवाजी पार्क में रह रहे प्रधान दंपती की कहानी है। न्यूयार्क पढऩे गए उनके जवान बेटे अजय की हत्या हो जाती है। दुख के इस पहाड को वे आसानी से नहीं संभाल पाते। एक बार तो दोनों आत्महत्या तक की योजना बना लेते हैं। उन्हें लगता है कि उनके जीवन का मकसद नहीं रहा। पार्वती प्रधान आस्तिक हैं, जबकि बीवी प्रधान की देवी-देवताओं में आस्था नहीं है। एक दृश्य में कहते भी हैं, 'पार्वती के देवी-देवताओं ने उसे अजय की मौत बर्दाश्त करने की हिम्मत दे दी है, लेकिन मेरे पास बचाव का ऐसा कोई रास्ता नहीं है।'

फिल्म कस्टम से बेटे की राख हासिल करने से आरंभ होती है। बाद में पेइंग गेस्ट के तौर पर आई सुजाता सुमन और उसके दोस्त बिलास चित्रे की कथा से घटनाओं का विस्तार होता है। प्रधान सुजाता के हक और ख्वाहिश को अपने जीवन का मकसद बना लेते हैं। फिल्म में अनेक नाटकीय मोड आते हैं। अंतिम दृश्यों में जब बीवी प्रधान को लगता है कि उनकी पत्नी अतार्किक आसक्ति से ग्रस्त हो रही हैं तो वे सुजाता और तिबलरस को कहीं और जाने की सलाह देते हैं। फिल्म देश की सामाजिक स्थिति पर भी कटाक्ष करती है। एक दृश्य में सुजाता कहती है, 'न जाने क्यों आज भी ऐक्ट्रेस को लोग ऐसी-वैसी लडकी समझते हैं?' फिल्म में संताप व अवसाद है, मगर संघर्ष और जिजीविषा भी है। दांपत्य जीवन की नैसर्गिक अभिलाषाएं भी हैं। संग-साथ से जीवन आगे बढता है। बीवी प्रधान पत्नी से कहते हैं, 'तुम्हारे चेहरे की झुर्रियों में मेरे जीवन का सारांश है।'

आदर्शों के टूटने की कथा

महेश भट्ट के करियर की यह खास फिल्म है। उनकी शुरुआती फिल्मों में 'अर्थ के साथ 'सारांश' की भी चर्चा होती है। महेश भट्ट बताते हैं, 'फिल्म का जन्म तब हुआ, जब मैंने एक मराठी दंपती को दर्द में डूबे देखा। उनके इकलौते बेटे का न्यूयार्क में इंतकाल हो गया था। वे मेरे गुरु यूूजी कृष्णमूर्ति से मिलने आते थे। वे रैशनलिस्ट थे, इसलिए पुनर्जन्म में यकीन नहीं रखते थे। उनकी बीवी को इससे सुकून मिलता था कि उनके बेटे का फिर से जन्म होगा और वे उससे मिल सकेंगी। यूजी कृष्णमूर्ति उन्हें सुनते थे मगर अपनी असहमति जाहिर कर उनके दुख को बढाना नहीं चाहते थे। मैंने महसूस किया कि हम मौत को स्वीकार नहीं पाते। आदमी अपने अंत का सामना ही नहीं करना चाहता है। पुनर्जन्म की धारणा का जन्म ही इस खौफ से होता है। सुकून तो इसमें है कि हम जल्दी मान लें कि यह जीवन जाएगा। फिल्म में अंत में बीवी प्रधान को अपने जीवन का सारांश पत्नी के चेहरे की झुर्रियों में दिखाई पडता है। जो चला गया, उसका शोक मना रहे हैं और जो जी रहा है उसे गंवा रहे हैं।'

वे आगे कहते हैं, 'मेरी फिल्म में आजादी से हुए मोहभंग की भी कथा है। प्रधान सोचता है कि क्या इसी भ्रष्ट समाज के लिए उन्होंने गांधी के साथ लाठियां खाई थीं। यह एक आदर्शवादी के आदर्शों के टूटने की भी कहानी है। उसे एक छोटा मकसद मिलता है तो उसमें आई तब्दीली दिखाई पडती है। 'सारांश' ऐसी फिल्म है, जिसकी धडकन आज भी सुनाई पडती है। मैं उन मुद्दों को लेकर हमेशा से इतना ही स्पष्ट रहा। अपने ढोंगी समाज से न तो मुझे तब उम्मीद थी और न आज है। मेरी मां कहा करती थी कि तेरी रूह बूढी है। तू पैदा ही बूढा हुआ है। ताराचंद बडज़ात्या ने मुझ पर भरोसा किया था। उनके भरोसे को दर्शकों ने भी सराहा।'

अजय ब्रह्म्ाात्मज

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