बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी..

स्त्री अस्मिता का सवाल अब बंद कमरों का विषय नहीं रहा। यह सड़कों पर लामबंद हो चुका है। युवाओं की भूमिका इसमें सबसे अहम है। समाज के हर स्तर पर इसकी गूंज सुनाई दे रही है और देश में एक हलचल है। हर तरफ एक ही स्वर है- बहुत हो चुका, अब हमें बदलना ही होगा। बदलाव की यह आंधी अब नहीं थमने वाली। बात निकली है तो दूर तलक जाएगी..। बदलाव की इस राह पर चलें इंदिरा राठौर के साथ।

By Edited By: Publish:Fri, 01 Mar 2013 11:26 AM (IST) Updated:Fri, 01 Mar 2013 11:26 AM (IST)
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी..

नन्ही सी इक नदी

जानिबे-मंजिल चली

राह में मिले पत्थर-चट्टान

टकराती-संभलती आगे बढी

साल दर साल गुजरते रहे

पत्थर घिसे, झुके, टूट गए

छोटी सी नदी के आगे

हौसले उनके पस्त हुए

नन्ही सी इक नदी

बेखौफ फिर बढ चली..।

नन्ही सी यह नदी अपनी राह खुद बनाने को आतुर है, चाहे इसके लिए पत्थरों-चट्टानों से टकराना पडे और पहाडों से गुजरना पडे..।

वर्ष 2012 में ऐसा बहुत कुछ हुआ, जिसने इंसानियत से भरोसा उठा दिया, लेकिन भरोसे की दीवार गिरने के बाद जो आक्रोश जगा और जिस तरह युवाओं व महिलाओं ने एक शांतिपूर्ण-सकारात्मक आंदोलन को जन्म दिया, उसने कई उम्मीदें बंधाई हैं। यह युवाओं का नया चेहरा है और युवा ताकत ही किसी आंदोलन को मंजिल तक पहुंचा सकती है।

इसके बावजूद स्थिति भयावह है। लोकतांत्रिक देश में यदि लडकियों को इतनी भी आजादी न हो कि वे सडकों पर बेखौफ चल सकें, सुरक्षित सफर कर सकें, अपना म्यूजिकल बैंड बना सकें, घरों-दफ्तरों में सुरक्षित महसूस कर सकें, एक इंसान की तरह सम्मानपूर्ण जिंदगी जी सकें तो ऐसे देश को अपने मूल्यों और संस्कृति पर पुनर्विचार की जरूरत है। बदलाव की जरूरत किस-किस स्तर पर है, इसे समझने से पहले जानें कि स्त्रियों पर इन हमलों की जडें कहां छिपी हैं।

अपराध का कोई चेहरा नहीं

दिल्ली स्थित मूलचंद मेडिसिटी के सलाहकार मनोचिकित्सक डॉ. जितेंद्र नागपाल कहते हैं, अपराधी का कोई अलग चेहरा नहीं होता। वह भीड का ही हिस्सा होता है। वह कहीं भी और कोई भी हो सकता है। कलीग या मंगेतर, सहयात्री या साथ चलता राहगीर..। वह कभी वेटर, कभी इलेक्ट्रीशियन, कभी वॉचमैन बन कर हमला कर सकता है और अंकल, पडोसी या ब्वॉयफ्रेंड बन कर भरोसे का कत्ल कर सकता है। ऐसे लोग समाज के दो वर्गो से आ रहे हैं। वे या तो पावरफुल हैं या फिर गरीब, बेरोजगार और कुंठित। अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, नशाखोरी और पुरुषोचित अहं जैसे कारण मिल कर एक साइकोपैथिक बिहेवियर को अंजाम देते हैं। बलात्कार या छेडखानी के पीछे सेक्स की इच्छा के साथ ही सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विकार भी जुडे होते हैं। संभव है कि ऐसे अपराधी बचपन में चाइल्ड अब्यूज, गरीबी, झगडों और नशे जैसी स्थितियों से गुजरे हों। भावनात्मक असुंतलन और बदले की भावना इन्हें अपराध में धकेलती है। स्त्री को सेक्स ऑब्जेक्ट माना जाता है और हमला उसी पर किया जाता है जिसे कमजोर या अकेला समझा जाता है। यही वजह है कि स्त्री उनका निशाना बनती है।

पावर का है खेल

कई बार सिर्फ मजा लेने के लिए भी अपराध किए जाते हैं। लेकिन खुद से कमजोर समझने वाले व्यक्ति का विरोध देख अपराधी का गुस्सा बढ जाता है। इसकी यह हिम्मत कि मना करे..अब देखो इसका क्या हाल होता है.., यह भाव अपराध की मंशा को और साफ कर देता है, कहती हैं दिल्ली की क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट गगनदीप कौर। वह कहती हैं, समस्या पावर से भी जुडी है। स्त्री के प्रति समाज के एक खास वर्ग की मानसिकता नहीं बदल पा रही है। खाप पंचायतों में फतवे कौन दे रहा है? ये सभी पुरुष हैं, लगभग अशिक्षित हैं और संस्कृति का सारा ठेका इन्होंने अपने सिर पर ले रखा है। खाप में स्त्रियां नहीं हैं। छेडखानी, यौन अपराधों और अश्लील फब्तियों के पीछे भी पावर गेम है। अपराध के पीछे स्त्री को कंट्रोल करने की इच्छा भी होती है।

सामाजिक विषमताएं

दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर नीलिका मेहरोत्रा कहती हैं, निम्न वर्ग भी हिंसा का शिकार है। मगर उसके पास विरोध के लिए न समय है, न यह समझ है कि विरोध कैसे करे। वह हिंसा के बीच पल-बढ रहा है। माचो मैन, रीअल मैन को जिस तरह महिमामंडित किया जाता है, उससे मर्दवादी सोच को बल मिलता है। हिंसा को लेकर चल रहे अध्ययन बताते हैं कि अपराधों में वे लोग ज्यादा लिप्त हैं, जिन्हें कभी न कभी सताया गया है। पारिवारिक नियंत्रण भी एक सीमा के बाद काम नहीं करता। ठेके या अड्डे पर खडे होकर शराब पीना, लडकियों पर छींटाकशी करना आम दृश्य हैं। फिल्में, पीअर ग्रुप, समाज के अन्य लोग इस मर्दवादी सोच में इजाफा ही करते हैं। तुम पुरुष हो-गुस्से, हिंसा की भावना तुम्हारे भीतर होनी ही चाहिए और जिसके भीतर नहीं है, वह जनाना यानी स्त्री है, यही सीख हर स्तर पर मिल रही है।

टीनएजर्स की परवरिश

दिल्ली सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री किरण वालिया ने पिछले दिनों एक बयान में कहा,अब समय है कि बेटों की परवरिश के तरीके बदले जाएं। उन्हें बताया जाए कि माचो का अर्थ सुसंस्कृत होना और महिलाओं से बराबरी का व्यवहार करना है। कानून के जरिये स्थिति को एक हद तक बदला जा सकता है, लेकिन समस्या को जड से खत्म नहीं किया जा सकता।

संस्कारों और मूल्यों की पहली पाठशाला घर है। बेटे को पता होना चाहिए कि किसी स्त्री के पैर छूने या उसे राखी बांधने भर से उसका सम्मान नहीं होता। दूसरी ओर लडकी को पराया धन या घर की इज्जत मानने की परंपरा भी खत्म होनी चाहिए। सबसे बडी बात है कि पिता आदर्श प्रस्तुत करे। यदि वह पत्नी का सम्मान करेगा तो उसका बेटा भी अपने जीवन में आने वाली स्त्रियों का सम्मान करेगा।

शैक्षिक संस्थाओं का दायित्व

परिवार के बाद शैक्षिक संस्थान आते हैं। दिल्ली के एल्कॉन इंटरनेशनल स्कूल के प्रधानाचार्य अशोक पांडे कहते हैं, स्कूलों में नैतिक शिक्षा भले ही अलग विषय के रूप में न हो, लेकिन मूल्य और संस्कार एक सतत प्रक्रिया हैं। विडंबना है कि पिछले 20 वर्षो से इसी को लेकर बहस चल रही है कि वैल्यू एजुकेशन है क्या? इसके मायने क्या हैं, मेथडोलॉजी क्या है। वैल्यूज की वैल्यू को ही लेकर हम उलझे हुए हैं। लेकिन मॉरल एजुकेशन स्कूलों में अलग-अलग स्तरों पर दी जा रही है। लगभग हर स्कूल में मॉर्निग असेंबली से ही इसकी शुरुआत हो जाती है। हर दिन अलग थीम होती है। जैसे- पर्यावरण सुरक्षा, भाईचारा, विश्वबंधुत्व, केयरिंग, शेयरिंग..। क्लास रूम से लेकर खेल के मैदान तक ये मूल्य दिखाई देते हैं। छात्रों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रोजेक्ट्स दिए जाते हैं। रोड रेज, स्ट्रीट चिल्ड्रेन की समस्याओं, महिला सुरक्षा से जुडे मुद्दों को लेकर ग्रुप प्रोजेक्ट्स होते हैं। आजकल वर्चुअल व‌र्ल्ड में छात्र काफी ऐक्टिव हैं। सोशल साइट्स में वे कैसे अपनी पहचान गुप्त रखें, कैसे अपराधियों से सुरक्षित रहें, ऐसे तमाम विषयों पर भी हम एक्सप‌र्ट्स को बुला कर वर्कशॉप कराते हैं। मनोवैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, एनजीओ के माध्यम से भी ट्रेनिंग प्रोग्राम्स कराए जाते हैं। इसे पीअर लीडरशिप कहा जाता है। इसमें 2-3 छात्रों को चुना जाता है। उन्हें एंगर मैनेजमेंट, फेमिली बॉन्डिंग, संतुलित व्यवहार जैसे विषयों पर ट्रेनिंग दी जाती है। फिर ये छात्र अपने अन्य सहपाठियों को ट्रेनिंग देते हैं। इससे बच्चों में टीम भावना पैदा होती है। कहने का अर्थ यही है कि नैतिक मूल्य निरंतर प्रक्रिया के तहत किसी न किसी किसी रूप में दिए जा रहे हैं।

सांस्कृतिक प्रदूषण से बचें

मनोरंजन माध्यमों की भी जिम्मेदारी है कि वे समाज को सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाएं। आइटम नंबर्स, विज्ञापनों, हास्य व मनोरंजन के नाम पर यह छूट क्यों मिले कि जो जी करे-दिखाएं। पिछले दिनों भोजपुरी गायिका शारदा सिन्हा ने एक फिल्मी गीत की किसी पंक्ति को गाने से इसलिए मना कर दिया कि वह उन्हें अश्लील लग रही थी। ऐसा साहस अन्य गायक, गीतकार-संगीतकार और ऐक्टर्स क्यों नहीं दिखा सकते? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अश्लील मनोरंजन तो जंगल राज को ही बढावा देगा।

कानून का खौफ जरूरी

कानून का खौफ जरूरी है। कुछ भी कर लें-बच जाएंगे, यह सोच अपराधों में इजाफा कर रही है। फिलहाल 18 वर्ष से नीचे के किशोर को जुवेनाइनल माना जाए या नहीं, इसी को लेकर सर्वाधिक बहस छिडी हुई है। दिल्ली हाईकोर्ट की एडवोकेट रेखा अग्रवाल कहती हैं, 18 वर्ष से नीचे के युवक को जुवेनाइल कहा जाता है, लेकिन यह कानून वर्षो पहले बना था। तब से वक्त बहुत बदल चुका है। किशोरों का एक्सपोजर बढा है। जरूरत से ज्यादा और समय से पहले सूचनाएं मिल रही हैं। हम जुवेनाइल की उम्र 16 वर्ष करने की मांग नहीं कर रहे, लेकिन उसे सिर्फ इसलिए भी माफ नहीं किया जाना चाहिए कि वह माइनर है। अपराध की गंभीरता को देखते हुए तय हो कि क्या उस बच्चे द्वारा किया गया अपराध रेयरेस्ट ऑफ द रेयर की श्रेणी में आता है! अगर वह सुरक्षित है और कानून उसका कुछ नहीं बिगाड सकता तो यह समाज के लिए बहुत भयावह स्थिति का संकेत है।

एक नजर समस्याओं पर

स्त्री-अस्मिता का सवाल कई स्तरों पर सुधार की मांग करता है। जैसे-

1. महिला पुलिस : महिला पुलिस हो तो स्त्रियां रिपोर्ट दर्ज कराने में सहज रहती हैं, लेकिन पुलिस विभाग में महिलाएं नदारद हैं। दिल्ली में महज 7 फीसदी महिला अधिकारी हैं। वैसे यहां पुलिस फोर्स कम नहीं है, लेकिन एक तिहाई ही वास्तविक पुलिसिंग कर रही है, बाकी वीआइपी सुरक्षा में तैनात रहती है।

2. लचर ट्रांसपोर्ट व्यवस्था : पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल महिलाएं अधिक करती हैं, लेकिन राजधानी दिल्ली तक के ट्रांसपोर्ट सिस्टम में कई खामियां हैं, बाकी देश की बात क्या करें! छोटी-छोटी दूरियां तय करना भी महिलाओं के लिए जोखिम भरा है।

3. नागरिक सुविधाएं : हमारे शहर न्यूनतम नागरिक सुविधाओं से भी वंचित हैं। सुनसान सडकें, खराब स्ट्रीट लाइट्स, सीसीटीवी कैमरे न होना, सार्वजनिक शौचालयों की बुरी स्थिति भी अपराधों को बढावा देती है।

4. हिंसा की स्वीकार्यता : घरेलू हिंसा, गालियों, चुटकुलों, भद्दे मजाक और मौखिक हिंसा को हमारे समाज में अपराध माना ही नहीं जाता। न तो इनके खिलाफ मामला दर्ज होता है, न कोई इनका विरोध करने की जहमत उठाता है।

5. संवेदनहीनता : लोग खुद में ही इतने मसरूफ हैं कि दूसरे की तकलीफ से कट गए हैं। कई घटनाएं रोज आंखों के सामने होती हैं लेकिन हमें क्या और पचडे में क्यों पडें जैसी मानसिकता चुप रहने को प्रेरित करती है। स्त्रियों से संबंधित खबरों में भी गंभीरता कम और सनसनी पैदा करने का भाव ज्यादा है।

6. जागरूकता की कमी : एसोचैम के एक सर्वे के मुताबिक 88त्‍‌न महिलाओं को कानूनों की जानकारी नहीं है। यह कामकाजी स्त्रियों का सच है। भारत के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर का कहना है कि महिला-शिक्षा जरूरी है, खास तौर पर उन्हें कानूनी शिक्षा जरूर देनी चाहिए।

7. परिवारों का ढांचा : परिवारों का ढांचा पितृसत्तात्मक है। हम बेटियों की सुरक्षा को लेकर सजग रहते हैं और चाहते हैं कि बेटियां शाम 7-8 बजे से पहले घर लौट आएं, लेकिन ऐसी चिंता बेटों को लेकर नहीं होती। अगर वे रात 8-9 बजे तक बाहर हैं तो इसे माता-पिता भी सामान्य भाव से लेते हैं। बेटों को यह अतिरिक्त छूट भी हानिकारक है।

8. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी : जब नेता स्त्रियों को देर रात तक बाहर न रहने की हिदायत दें, उनकी ड्रेस को लेकर वक्तव्य दें, उन्हें सुविधाओं (मोबाइल या कंप्यूटर) से वंचित करें तो जाहिर है महिला-सुरक्षा के सवालों पर ईमानदार इच्छा का अभाव है।

तसवीर का दूसरा रुख

कुछ स्तरों पर बदलाव की शुरुआत हो चुकी है और इसका नमूना है जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट। इसमें महिला सुरक्षा को लेकर कई सकारात्मक पहलू जोडे गए हैं। समय है कि स्त्रियों का मनोबल बढाने वाली बातों पर ध्यान केंद्रित किया जाए। क्या यह गर्व की बात नहीं है कि शैक्षिक परीक्षाओं में लडकियां लगातार अव्वल आ रही हैं? क्या 20-25 वर्ष पहले इस बात की कल्पना की जा सकती थी कि छोटे-छोटे राज्यों से लडकियां दिल्ली या मुंबई में पढने या नौकरी करने आएं या उच्चशिक्षा के लिए विदेश जाएं? आज लडकियां बडे शहरों में अकेले रह रही हैं, अकेले सफर कर रही हैं, हर फील्ड में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। वे हमलों के भय से घरों में नहीं छुप रहीं। माता-पिता का रवैया भी बदला है। शिक्षा का आंकडा बढा है और कन्या भ्रूण हत्याओं का ग्राफ घटा है। ऐसा पहली बार हुआ, जब दिल्ली में यौन अपराधों के खिलाफ वे महिलाएं भी सामने आई, जिन्होंने कभी इनका सामना किया था। यह बहुत बडा बदलाव है। घर से लेकर बाहर तक हर स्तर पर सुधार की जरूरत है। बदलाव का सफर जारी है। छोटी-छोटी सफलताएं इस संघर्ष-यात्रा के सुखद पडावों की तरह हैं। मगर ये पडाव सुस्ताने के लिए नहीं, अपनी ऊर्जा को संजो कर तेजी से आगे बढने के लिए हैं।

गीत-संगीत समाज से ही आता है

समीर, गीतकार

फिल्मों का सीधा कनेक्शन समाज से है। मेरे खयाल से समाज ही फिल्मों का आईना है। हम गीतकार हैं, हमें भी वही लिखना होता है, जो लोगों को पसंद आए। कई बार इसमें हमारी सोच शामिल होती है-कई बार नहीं भी होती। हम हवा से तो आइडिया नहीं लाते। समाज में जो कुछ हो रहा है, उसे ही कहानी और गीत-संगीत में ढाला जाता है। देखिए अगर हमें स्त्री अस्मिता की बात करनी है तो इसके लिए सुधार की शुरुआत अपने आप से करनी होगी। सरस्वती चंद्र जैसी फिल्म लोग आज पसंद करेंगे तो चंदन सा बदन.. जैसा गीत बनाना होगा। दबंग जैसी फिल्म बनेगी तो मुन्नी बदनाम.. और फेविकोल.. जैसे गाने बनेंगे। इन गानों पर इतनी ज्यादा हाय तौबा क्यों मचती है, यह मुझे समझ में नहीं आता। जरा सुदूर इलाकों में जाकर देखें, वहां समारोहों में किस तरह के गाने सुने और एंजॉय किए जाते हैं? आपको समझ में आ जाएगा कि पंच वाले गाने क्यों बन रहे हैं? फिर जब आइटम नंबर से सेंसर बोर्ड को कोई प्रॉब्लम नहीं है तो बाकी क्यों इतना हो-हल्ला मचाते हैं। चोली के पीछे. गाने पर जब विवाद मचा तो मामला कोर्ट में गया। कोर्ट को उस गाने में कोई प्रॉब्लम महसूस नहीं हुई और गाने पर बैन नहीं लगा। हालांकि लोगों की पसंद का खयाल रखते हुए इसके बाद वैसे गाने नहीं बने। अच्छे गानों का क्या प्रभाव पडता है, इस पर कोई चर्चा नहीं करता, फिर किसी गाने के बोल थोडा सा बोल्ड हो जाएं तो बवाल क्यों मच जाता है? फिल्मों जैसी स्थिति तो हर किसी की है। क्यों आज भी ज्योतिष मीडिया का प्रिय विषय है या नाग-नागिन की कहानियां बडी लोकप्रिय हैं। क्यों हिंदी के साथ अंग्रेजी का चलन बढ रहा है। जाहिर है, जो पब्लिक को अच्छा लगता है, उसे ही सब दिखाना चाहते हैं और बेचना भी चाहते हैं। पब्लिक चाहेगी तो आइटम नंबर चलेंगे, जिस दिन वह ठान लेगी कि इन्हें नहीं सुनना है तो ऐसे गीत नहीं बनेंगे।

स्त्री को वस्तु बना दिया है विज्ञापनों ने

वैजयंती माला, ऐक्टर, राजनेता

मेरे खयाल से विज्ञापनों, आइटम नंबर्स और बोल्ड कंटेंट ने स्त्री की छवि बिगाडी है। मेरा सीधा सा सवाल है कि अधिकतर विज्ञापन स्त्री-शरीर केंद्रित ही क्यों होते हैं? क्या स्त्री-शरीर के जरिये विज्ञापन प्रमोट करने से मार्केटिंग में इजाफा होता है? अगर ऐसा है तो मैं इसे नैतिक तौर पर गलत मानती हूं। ध्यान देने की बात है कि विज्ञापन ने स्त्री के परंपरागत रूप को ही महत्व दिया है। स्त्री का आधुनिक रूप यहां गायब है। उन्हें महज ऐसी मॉडल बना कर छोड दिया गया है, जिनका काम सिर्फ हैंगर पर टंगने का है। वे विज्ञापनों में धडल्ले से विभिन्न वस्तुओं की खरीदारी करती नजर आती हैं, पुरुष के फैसले पर अमल करती दिखाई जाती हैं, यह तो उनका पारंपरिक रूप है। खुद फैसले लेने वाला उनका मॉडर्न रूप यहां कहां है? विज्ञापन की यह स्त्री असल स्त्री को फिर से सामंती व्यवस्था में धकेल रही है। यह व्यवस्था उसे मुक्त सोच और मुक्त कार्य की आजादी से वंचित करती है। स्त्री की दोयम स्थिति को ही यथावत बनाए रखने की कोशिशें चल रही हैं। फिल्मों में जिस तरह आइटम नंबर्स ठूंसे जा रहे हैं, वे इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि फिल्मों का इरादा क्या है? इन दिनों तो आइटम नंबर्स फिल्म की हुक लाइन बन चुके हैं। फिल्म को प्रमोट और हिट करने के लिए उनका इस्तेमाल किया जाता है। फिल्मकार अब इस सस्ती लोकप्रियता के लिए नीचता की सीमा पार करने लगे हैं। लेकिन इसके नतीजे अच्छे नहीं हैं। युवा, खासतौर पर टीनएजर्स इससे भ्रमित हो रहे हैं। उनके स्टाइल आइकॉन फिल्म ऐक्टर्स ही हैं। इसलिए जो ऐक्टर्स करते हैं, उसको युवा आदर्श मानते हैं।

दोहरे मूल्यों में जी रहे हैं हम

अनुष्का शर्मा, ऐक्टर

मुझे नहीं लगता कि आइटम नंबर्स या गीतों से नैतिक मूल्य कम होते हैं। ये तो समाज के दोहरे मूल्य हैं। जिनकी सोच गंदी है, वे हर स्त्री को सेक्स ऑब्जेक्ट ही समझेंगे। हमारे समाज में हिप्पोक्रेसी बहुत है। फिल्मों को दोष देने से पहले अपने घर में पत्नी या बेटी के प्रति थोडे संवेदनशील बन जाएं तो स्थितियां सुधर सकती हैं। भारतीय पुरुषों का रवैया अपनी पत्नी के प्रति कैसा है, यह कोई छुपी बात नहीं है। ऐसे लोग अगर फिल्मों को दोष देते हैं तो बुरा लगता है। सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का माध्यम है और गीत-संगीत से मनोरंजन होता है, समाज बिगडता नहीं।

फिल्मों ने बहुत कुछ बदला है

मैं कतई नहीं मानता कि विज्ञापनों और फिल्मों में दिखाए जाने वाले बोल्ड कंटेंट से युवा भ्रमित होते हैं। स्त्री को आधुनिक बनाने की बात हो तो उसकी ड्रेस को लेकर बात करना जरूरी है। मेरा मानना है कि एक स्तर पर परिधान ही वह पहली कसौटी है, जिस पर समाज आधुनिक लडकी की छवि बनाता है। ऐसा जरूरी नहीं कि आधुनिक परिधान पहनने वाली लडकियां मिजाज से भी खुली हों और साडी या परंपरागत कपडों वाली लडकियां जीवन के फैसले भी न ले पाती हों। देखिए, लडकियों को दोहरे हमले झेलने पडते हैं। एक ओर पितृसत्ता और परंपरा की चाहत होती है कि वे पर्दे या बुर्के में रहें। इससे आगे जाएं तो भी उन्हीं कसौटियों के हिसाब से तथाकथित शालीन यानी देह ढकने वाले कपडे पहनें, जबकि बाजार के कंधों पर आ रही आधुनिकता स्त्रियों को नग्न कर देने पर आमादा है और इसे उसी की आजादी का नाम भी दे रही है। जाहिर तौर पर कोई भी आधुनिक लडकी अपने ढंग से तय कर सकती है कि वह क्या पहने और क्या नहीं? क्या हम उसे इतना भी स्वस्थ माहौल नहीं दे सकते कि वह अपनी मर्जी से अपने कपडे चुन सके। ऐसा करते हुए न परंपरा की लाठियां उसे झेलनी पडें, न बाजार के लॉलीपॉप से वे प्रभावित हों। लोग आधुनिकता को नॉर्मल तरीके से लें, इसके लिए जरूरी है कि उन्हें उस तरह का माहौल मुहैया कराया जाए। खुलेपन क ो आश्चर्यचकित भाव से न देखे बाजार। ऐसी सोच डेवलप करने में विज्ञापन और फिल्में ही अपनी भूमिका निभा रही हैं।

फिल्मों से नहीं गिरते नैतिक मूल्य

सिद्धार्थ रॉय कपूर, यूटीवी प्रमुख

समाज की हर बुराई को फिल्मों पर मढ दिया जाए, यह ठीक बात नहीं है। अगर फिल्मों के बोल्ड कंटेंट से लोग बिगडते हैं तो पारिवारिक-नैतिक मूल्यों वाली फिल्में देख कर उन्हें सुधरना भी चाहिए। फिल्में महज मनोरंजन का साधन मात्र हैं। लोग दो-तीन घंटों के लिए सिनेमाहॉल में जाते हैं। फिल्में देखते हैं और भूल जाते हैं। फिर जब कोई नई पिक्चर लगती है, उसे देखने जाते हैं। यहां की फिल्मों को बोल्ड कहने लगें तो हॉलीवुड में जो दिखाया जा रहा है, उसे क्या कहेंगे? मेरे खयाल से दुनिया बदल रही है, उसके प्रभाव से कोई अछूता नहीं है। यहां के लोगों की सोच और पसंद भी बदल रही है। लोगों के सोचने का ढंग बदला है। लडकियां आजादी से सोच रही हैं। वे अपनी खूबसूरती को आइडेंटिफाई करना चाहती हैं। विज्ञापन जगत की बात करें तो वहां कंपनियों को हर हाल में अपने उत्पाद की बिक्री सुनिश्चित करनी है। इसलिए वे लोगों की पसंद के मुताबिक ही विज्ञापन बनाती हैं। लोग उन्हें स्वीकार करते हैं। मैं नहीं समझता कि ऐसा करने में कोई बुराई है।

दोनों जगह एक से हैं स्त्री सुरक्षा के मसले फहमीदा रियाज, शायरा-ऐक्टिविस्ट, पाकिस्तान मोमबत्ती जलाने से पहले मशालें लेकर चलें

गुरप्रीत घुग्घी, कमेडियन

गुरु गोविंद सिंह की एक उक्ति है, जबै बाण लाग्यो तबै रोष जाग्यो यानी जब तीर चुभता है तभी क्रोध पैदा होता है। अगर तीर लगने के बाद भी आप चुप हैं तो इसका अर्थ है कि आप मरना ही चाहते हैं। अब चुप रहने का वक्त नहीं है। यह सचमुच संतोष की बात है कि युवाओं, खासतौर पर लडकियों ने बिना डरे एक बडे आंदोलन को जन्म दिया है। हमारे समाज में विरोध की कमी है। जब कोई दुर्घटना हो जाती है तब हम मोमबत्तियां जलाते हैं। हम पहले ही मशाल लेकर लोगों को क्यों नहीं जगाते। हम सभी आर्टिस्ट्स, बुद्धिजीवी और जागरूक नागरिकों की जिम्मेदारी है कि निजी स्तर पर प्रयास करें। मैं पंजाब में पिछले 15-20 वर्ष से सामाजिक कुरीतियों-विषमताओं पर सटायर्स कर रहा हूं। मैंने कन्या भ्रूण हत्या पर काम किया है और नशामुक्ति के लिए भी। अगर आप राजनेताओं से यह उम्मीद करते हैं कि वह स्त्री के हक में कुछ करेंगे तो आप भूल कर रहे हैं। आम लोगों को ही आगे आना होगा। पहले कोई ढांचा तो खडा करें, उस पर अमल तो फिर होगा। हमारी सहनशीलता ही हमारा अवगुण बन गई है। हम विरोध करने से हिचकिचाते हैं। मैं अपनी बात को शायर वसीम बरेलवी के शब्दों से स्पष्ट करना चाहता हूं, अब कहींकोई कतरा भी गर उभरता है/तो समंदर के ही लहजे में बात करता है/शराफतों का जमाना रहा नहीं वसीम/किसी का कुछ न बिगाडो तो कौन डरता है..।

मुंबई से इंटरव्यू अमित कर्ण

इंदिरा राठौर

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