हम तेरे शहर में आए हैं..

दुनिया की ऐसी कोई संस्कृति नहीं है, जो यह दावा कर सके कि वह दूसरों से प्रभावित नहीं हुई। इसका साफ असर आज की सभ्यताओं पर देखा जा सकता है। भाषाओं से लेकर अर्थव्यवस्थाओं तक के बीच लेन-देन की यह प्रक्रिया प्रवासियों के जरिये ही फलती-फूलती रही है। प्रवास के अनुभव बहुत अच्छे भी रहे हैं और कई बार कड़वे भी। इसी एहसास का एक सफर इष्ट देव सांकृत्यायन के साथ।

By Edited By: Publish:Fri, 06 Dec 2013 11:47 AM (IST) Updated:Fri, 06 Dec 2013 11:47 AM (IST)
हम तेरे शहर में आए हैं..

..चेतना, जो तुम्ही हो धरती के सभी जीवों में/ प्रभु, कहा एक जन्मना कलाकार ने/ हम छोड आए हैं अपना शहर पीछे/ अलमस्त सुबह वाले पहाडों के लिए/ अपने ही तरह के भय के लिए/ हमारे भाई को उन्होंने बांध दिया पेड से/ विद्रोह के लिए/ वे धमकाते और डराते हैं/ उन्हें, जिन्हें मुक्त कर सकता है प्रेम/ फिर भी, हवाएं छितरा देती हैं उन पर/ चिडियों और छोटी नदियों का अनुराग/ सागर और बादल के रंग, सौंदर्य जो मिलता नहीं किताबों में/ सच जो चीखता नहीं कभी..

केनेडियन  कवि ब्लिस  कार्मन  की यह लंबी कविता प्रवास पर निकले जीवों के लक्ष्य और सोच के साथ-साथ पीडा का भी बयान करती है। उडने वाली मछली सागर का रहस्य जानने निकली है तो तितली हवाओं से दोस्ती करने। चिनार का बीज पहाड को छाया देना चाहता है तो मेंढक पृथ्वी की अनंत प्यास को जानने पर तुला है। ..लेकिन कलाकार? वह उस सौंदर्य को देखने निकला है जो किताबों में दिख नहीं सकता और उस सच को जानने, जो कभी चीखता नहीं। गहनतम सत्य बोल कर बताया नहीं जा सकता, सिर्फ अनुभव किया जा सकता है और इसीलिए केवल मौन की भाषा में ही संप्रेषित किया जा सकता है।

प्रवास के लिए हम ही नहीं, दूसरे जीव भी निकलते हैं। प्रवास पर आए पक्षियों को देखने हम हजारों मील लंबा सफर कर खुद प्रवासी बन जाते हैं और अपने ही देश के दूरदराज से आए मनुष्य का दिल से स्वागत नहीं कर पाते। उसका भी जिसका हमारे विकास में बडा योगदान रहा होता है। नफरतों की आंधियां जब चल पडती हैं तो उनके शिकार लोग जाति, धर्म, क्षेत्र या भाषा जैसी सीमाओं को छोडकर कुछ देख नहीं पाते। न हुनर, न तहजीब, न योगदान और न ही इरादे।

स्वाद का वैविध्य

ठहरिए! यह जो आप देख रहे हैं वह सच का एक पहलू भर है। दूसरा पहलू देखना चाहते हैं तो चलें अपने किचन में। उत्तर की रसोई में आपको डोसा-इडली जैसी चीजें मिल जाएंगी। ऐसे ही दक्षिण भारत के घरों में भी छोले-पठूरे पहुंच गए हैं। उत्तर के कई घरों की सुबह सुब्बुलक्ष्मी के गायन से शुरू होती है और दक्षिण की सडकों पर आप हिंदी फिल्मों के गाने सुन सकते हैं। उत्तर में ऐसा कौन है जो रजनीकांतको नहीं जानता और क्या आप दक्षिण का कोई ऐसा शख्स बता सकते हैं जो अमिताभ बच्चन को न जानता हो? यह दो ही लोगों के कारण है। या तो वे जो कहीं और से आपके शहर में आए या फिर वे जो आपके क्षेत्र से कहीं और गए। इसी का नतीजा है जो आज आपको यहां हर जगह चाइनीज रेस्टोरेंट मिलते हैं और हर देश में भारतीय रेस्टोरेंट। लेन-देन की यह प्रक्रिया भाषा से लेकर संगीत, नृत्य, साहित्य, सिनेमा, चित्र और हस्तकला तक हर क्षेत्र में देखी जा सकती है। वैज्ञानिक और तकनीकी आविष्कारों ने जिस तरह पूरी दुनिया नापी है और उनसे आज पूरा संसार जो लाभ उठा रहा है, उस बारे में कुछ कहने की जरूरत है क्या! पिज्जा-बर्गर से जोडकर आज आप नई पीढी का मजाक भले उडा लें, पर हर देश के खानपान, पहनावे और नवीनतम तकनीक के प्रति उसका आकर्षण इस बात का गवाह है कि किसी भी तरह की सीमाएं उसे स्वीकार नहीं हैं। वह करियर ही नहीं, पूरे जीवन के लिए खुला आसमान चाहती है। उन्मुक्त पंछी की तरह खुद पूरी दुनिया देखना चाहती है और अपनी खिडकियां भी सबके लिए खोलन की ख्वाहिश रखती है। वसुधैव कुटुंबकम् को साकार करने पर तुले युवाओं को सियासी चालें बहुत दिन बरगला नहीं सकेंगी।

संस्कृतियों का विकास

आने-जाने की इस प्रक्रिया के सच्चे बोध ने ही हमें अतिथि देवो भव जैसा मूल्य दिया, जिसे हम आज तक किसी न किसी तरह सहेजने की कोशिश करते हैं। इसके बावजूद कभी-कभी प्रवासियों को लेकर बडे विवाद खडे हो जाते हैं। ये कभी राजनीतिप्रेरित होते हैं और कभी कतिपय स्वार्थी तत्वों द्वारा बरगलाए जाने के नतीजे। इसके लिए सबसे पहली भ्रांति यह फैलाई जाती है कि प्रवासी हमारी संस्कृति को भ्रष्ट कर रहे हैं। हालांकि यह एक भ्रांति के अलावा और कुछ नहीं। दुनिया की कोई भी संस्कृति आज जिस मुकाम पर है, बारीक अध्ययनों का निष्कर्ष है कि उसने दूसरी संस्कृतियों से बहुत कुछ लिया है और उन्हें बहुत कुछ दिया भी है। इस लेन-देन का ही नतीजा है जो संस्कृतियों ने निरंतर विकास किया। नृविज्ञानी तो यहां तक कहते हैं कि विश्व की सभी नृजातियों का एक-दूसरे से संपर्क हुआ है। इस पर विचार करें तो पहला प्रश्रन् यह उठता है कि ऐसा कैसे हुआ होगा। जाहिर है, प्रवासियों के जरिये। चाहे वे प्रवासी एक दिन के रहे हों, या फिर कुछ पीढियों के। इस तरह देखें तो मनुष्यता के विकास में प्रवासियों का बडा योगदान रहा है।

यूं तो प्रवासियों की परिभाषा के दायरे में दुनिया भर के वे लोग आते हैं जो अपना मूल स्थान छोडकर किसी दूसरे गांव, शहर या देश में रह रहे हैं। लेकिन, फिलहाल हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य का जिक्र नहीं कर रहे और न अवैध आव्रजकों की ही। केवल अपने देश के भीतर अपना मूल स्थान छोड कर दूसरी जगहों पर रह रहे लोगों की संख्या का आकलन करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार भारत के विभिन्न शहरों की आबादी में 30 फीसद से अधिक हिस्सेदारी प्रवासियों की है। इन्हें हम आंतरिक प्रवासी कहते हैं और किसी भी देश के लिए आंतरिक प्रवासियों की इतनी बडी संख्या मायने रखती है।

विस्थापन में स्त्री

इसी क्रम में संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा पूरे एशिया में आंतरिक आव्रजन (इंटर्नल माइग्रेशन) पर कराए गए एक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि विस्थापन की कई वजहें हैं। इसमें भारत जैसे देश में इसका बहुत बडा कारण आर्थिक असुरक्षा है। इसके अलावा राजनीतिक अस्थिरता और प्राकृतिक आपदा जैसी वजहें भी बडी भूमिका निभाती हैं। पुरुषों के विस्थापन का मुख्य कारण अकसर आर्थिक होता है, लेकिन स्त्रियों के विस्थापन के सबसे बडे कारण के रूप में विवाह उभर कर सामने आया। गौर करें, जो स्त्री अपने पति के साथ उसका मूल स्थान छोडकर कहीं और गई, केवल वही नहीं, जो विवाह के बाद आपके परिवार में आई है, वह भी तो अपने मूल से विस्थापित होकर ही आई है। क्या आप अपने परिवार के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास में उसके योगदान का कभी आकलन कर सकते हैं? और उसके भीतर छिपी विस्थापन की पीडा..? एशिया की कोई ऐसी संस्कृति नहीं है, जिसके लोकगीतों में यह पीडा जहां-तहां बिखरी पडी न मिले।

पति या परिवार के साथ प्रवासी की स्थिति में भी स्त्री की पीडाएं पुरुष से भिन्न हैं। जो पीडाएं पुरुषों को झेलनी पडती हैं, वह तो उन्हें झेलनी ही पडती हैं, इसके अलावा उन्हें कुछ ऐसे कष्ट भी झेलने पडते हैं जिनकी पुरुष सिर्फ कल्पना कर सकता है। पहले तो उसे आपके परिवार में ही सामंजस्य बनाने के लिए कई तरह के समझौते करने होते हैं और फिर आपके घर से भी दूसरी जगह जाना.. क्या आप सोच सकते हैं इसमें उसे कितनी तरह के समझौते करने पडते होंगे?

अर्थव्यवस्था में योगदान

जिस तरह आप अपने परिवार के विकास में बाहर से आई स्त्री के योगदान का आकलन कभी नहीं कर सकते, ठीक वैसे ही किसी अर्थव्यवस्था में प्रवासियों के योगदान का आकलन भी संभव नहीं है। वे आपके शहर में रोजगार के लिए जरूर आते हैं, पर उनका इरादा आपसे अवसर छीनने का नहीं होता। आपके विकास में बडी भूमिका निभाते हैं।

यूनेस्को के अध्ययन के अनुसार भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीडीपी) में आंतरिक प्रवासियों का योगदान 10 फीसद से अधिक है और यह मामूली नहीं है। समाजशास्त्री मानते हैं, किसी भी समाज में प्रवासियों को अपना लेने के बडे फायदे हैं। इससे आर्थिक स्वतंत्रता की अवधारणा ही पूरी नहीं होती, श्रम से लेकर विशेषज्ञता तक की समस्याएं भी हल हो जाती हैं।

अपना कर देखें तो

किसी भी परंपरागत सामाजिक व्यवस्था में प्रवासियों को अपनाने के मार्ग में कई बाधाएं आती हैं। इनमें सबसे बडी बाधा स्थानीय लोगों और प्रवासियों दोनों ही का अपनी-अपनी संस्कृतियों के प्रति आग्रह है। दोनों ही यह तो गाते हैं अपनी धुन में रहता हूं, पर इस बहाव को मैं भी तेरे जैसा हूं तक कम लोग पहुंचा पाते हैं। इसका केवल एक कारण है, अपरिचय। उत्तर के किचन में आए दक्षिण और दक्षिण तक पहुंचे उत्तर के पकवान साक्षी हैं कि अपरिचय की यह दीवार तोडने में स्त्री की हमेशा सबसे बडी भूमिका रही है। क्योंकि वह प्रेम और सामंजस्य का महत्व जानती है और इसीलिए वह आज भी गा रही है दो कदम तुम भी चलो, दो कदम हम भी चलें..। असल में वह जानती है, चलते-चलते मिल जाएगी मंजिल प्यार की और किसी भी समाज के विकास का मार्ग तो प्यार से ही प्रशस्त होता है। ध्यान रहे, आज जो अपने ही देश के किसी और क्षेत्र से हमारे यहां मुसाफिर की तरह आया है, केवल वही नहीं, अव्वल तो हम सभी मुसाफिर हैं।

18 दिसंबर : एक दिन प्रवासियों के नाम दुनिया भर में आव्रजन की तेजी से बढती गति और प्रवासियों की संख्या को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 4 दिसंबर 2002 को यह फैसला किया कि अब प्रत्येक वर्ष 18 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय प्रवासी दिवस के रूप में मनाया जाए। वस्तुत: 1990 में इसी दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ही प्रवासी कर्मियों और उनके परिवारों की सुरक्षा के लिए एक सम्मेलन किया था और 1997 से ही प्रवासियों के कुछ संगठन 18 दिसंबर को इस रूप में मनाने लगे थे। इस दिन अब कई देशों में सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा विशेष आयोजन किए जाते हैं। इन आयोजनों में प्रवासियों के मानवाधिकारों तथा उनकी मूलभूत राजनीतिक स्वतंत्रताओं पर चर्चा होती है और इस दिशा में आगे के कार्यक्रम तय किए जाते हैं।

पूरी तरह भारतीय

कट्रीना  कैफ, अभिनेत्री

मैं दिल-दिमाग और मिजाज से खुद को पूरी तरह भारतीय मानती हूं। मुझे उन लोगों पर बहुत गुस्सा आता है, जो मुझे हाफ इंडियन कहते हैं।

बहरहाल, मैं जो भी हूं..मुझे उस पर गर्व है। जब मैं पहली बार भारत आई थी तो मुझे कभी नहीं लगा कि मैं बाहर की हूं। उस वक्त मेरी उम्र महज 17  साल थी। मेरे दिमाग में अपने भविष्य को लेकर कोई खाका नहीं था। मेरी परवरिश दुनिया के कई देशों में हुई है। लिहाजा मेरा संबंध कई देशों से है, पर रोजी-रोटी, शोहरत और अपनापन मुझे हिंदुस्तान में हासिल हुए हैं। यहां की संस्कृति, रीति-रिवाज.. सब में यहां की मिट्टी की खुशबू है। यहां की महिलाएं जिन पारिवारिक मूल्यों में यकीन रखती हैं और रीति-रिवाजों के संबंध में उनकी जो समझ है, मैं खुद को उससे कमतर नहीं समझती। मैं यहां के खाके में पूरी तरह फिट बैठती हूं। यहां के लोग जज्बाती हैं। हर कदम सिर्फ व्यावहारिकता को पैमाना बनाकर नहीं उठाते, जो मुझे अच्छा लगता है। यहां लोग आप का पूरी गर्म जोशी से स्वागत करते हैं। हिलने-मिलने में ज्यादा  समय नहीं लगता। वे आप को पराया महसूस नहीं होने देते।

फिल्मों से जानी अपनी संस्कृति

पल्लवी शारदा, अभिनेत्री

मेरी परवरिश ऑस्ट्रेलिया में हुई, पर मेरे माता-पिता दिल्ली से हैं। मुझे बचपन से ही हिंदी फिल्में देखने का शौक रहा है। माधुरी और श्रीदेवी की अदाओं के साथ-साथ उनका डांस व अभिनय भी मुझे बहुत रोमांचित करता था। हिंदी फिल्मों के जरिये ही भारतीय संस्कृति का भान हुआ। उनके जरिये ही मैं ऑस्ट्रेलिया में बैठे-बैठे अपने देश को जान व समझ सकी। मैं खुद एक प्रशिक्षित डांसर  हूं। हिंदुस्तानी हूं तो कहीं और जाने का कोई मतलब ही नहीं था। जब मेरी डिग्री पूरी हुई तो मैं मुंबई आ गई, तीन साल पहले। मैं यहां किसी को जानती नहीं थी। मैंने सीधा रास्ता अपनाया। अपना पोर्टफोलियो लेकर निर्माताओं व निर्देशकों के चक्कर काटे। ऑडिशन  दिए। उस बीच थिएटर भी करती रही। कोरियोग्राफर  वैभवी मर्चेट की बहन श्रुति के प्ले ताज एक्सप्रेस में काम किया। उसमें मैं बहुत बिजी रही। मैं उसमें मेन लीड थी। अभिनव कश्यप को उसमें मेरा काम अच्छा लगा तो उन्होंने बेशर्म के ऑडिशन के लिए बुलाया। वहां मेरी डांस स्किल  काम आ गई। मैंने 15 साल भरतनाट्यम  सीखा है। इस तरह फिल्मों व डांस से लगाव काम आया। मेरे खयाल से हर देश की संस्कृति की अपनी खासियत है। उनके बीच लेन-देन से ही रूढियां टूटती हैं। इसलिए संस्कृतियों का मेल बहुत जरूरी है। इससे एक किस्म की एकरूपता विकसित होती है। ग्लोबल विलेज  की सोच के पनपने के लिए वह बहुत जरूरी है।

जगाएं एकता का भाव

मणिपुर से दिल्ली आई अलाना गोल्मेई  ने यहां से शोधकार्य पूरा किया और अब यहीं रहते हुए बर्मा सेंटर के लिए काम कर रही हैं। शुरुआती दौर में यहां रहते हुए उन्हें कुछ तल्ख अनुभव हुए। दूसरों को इससे बचाने के लिए नॉर्थईस्ट सपोर्ट सेंटर एंड हेल्पलाइन शुरू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

शुरुआती अनुभव मेरा कुछ खराब  रहा, लेकिन आज जब मैं पीछे मुडकर देखती हूं तो पाती हूं कि दिल्ली ने मुझे बहुत कुछ दिया है। इसने मेरी आंखें खोलीं और मेरे लिए संभावनाओं के दरवाजे खोले। न तो मुझे दिल्ली से कोई शिकायत है और न ही पछतावा। यह जरूर है कि जब भी आप किसी नई जगह जाते हैं तो आपको कुछ परेशानियां झेलनी पडती हैं। खासकर नॉर्थ-ईस्ट  के लोगों को इधर आने पर खानपान से लेकर भाषा तक के चलते दिक्कतें आती हैं। कुछ लोग इन्हें बाहरी समझ कर ठगते भी हैं। कई बार लोग हमें कमतर आंकते हैं। फिर भी दिल्ली दूसरे शहरों से बेहतर है। इतने बडे देश में सब एक जैसे लोग हों, एक जैसी भाषा बोलें और उनका एक ही खानपान हो.. कैसे संभव है? यह समझ हमें अपने पूरे देश में लानी होगी। ऐसा माहौल बनाया जाना चाहिए जिससे पूरे देश में देश के सभी हिस्सों के लोगों के प्रति सद्भाव बने। इसके लिए स्कूलों के कोर्स में बदलाव की जरूरत है। बच्चों को शुरू से बताया जाना चाहिए कि भारत में कितने तरह के मौसम होते हैं, प्रकृति के कितने रूप-रंग पाए जाते हैं, लोगों के कितने तरह के चेहरे होते हैं और कितने तरह के पर्व-त्योहार आदि होते हैं। साथ ही, हर जगह बच्चों को पढाते समय इस बात पर जोर दिया जाए कि इन तमाम विभिन्नताओं के बावजूद हम सब एक हैं।

बहुलता का लाभ ही मिला

विशाखा  सिंह, अभिनेत्री

मेरी पैदाइश अबु धाबी  और पढाई-लिखाई लंदन में हुई है, पर मैं अपने आपको जौनपुर की ही प्रतिनिधि मानती हूं। उत्तर प्रदेश के जौनपुर से मेरी जडें हमेशा जुडी रहेंगी। मैं चाहूंगी कि वहां के लडके-लडकियां भी गंभीरता और पेशेवर तरीके से फिल्मों को बतौर करियर  अपनाएं। देश-दुनिया घूमने और कई जगह रहने का फायदा यह हुआ कि सोच का विकास अलग ढंग से हुआ। अदाकारी के साथ-साथ फिल्म निर्माण की ओर भी ध्यान केंद्रित किया। खेले हम जी जान के न चलने से मैं काफी निराश हो गई थी। मैं लंदन जा चुकी थी। उन्हीं दिनों पता चला कि पेडलर्स के लिए क्राउड  फंडिंग  हो रही है। मुझे लगा कि कम से कम निवेश में इससे अच्छा रिटर्न मिलेगा, इसलिए उसमें पैसा लगा दिया। आगे तो मुझे अदाकारी ही करनी है। फिलहाल साउथ की फिल्में कर रही हूं। इससे मुझे पूरे भारत की संस्कृति को जानने का मौका तो मिल ही रहा है, मेरे पास विकल्प भी रहेंगे। हिंदी में अच्छी फिल्में ही करना चाहती हूं। विभिन्न भाषाओं व संस्कृतियों के माहौल में काम करने का मुझे फायदा मिल रहा है। खुद में काफी विविधता आ रही है।

भाषा को है बडी देन

मूलत:  मेरठ निवासी  भाषाविद अरविंद कुमार को हिंदी के समांतर कोश के संपादन का श्रेय तो जाता ही है, इन दिनों वह पॉण्डिचेरी  में रहते हुए भाषा की उत्पत्ति पर काम कर रहे हैं और केंद्रीय हिंदी निदेशालय की परियोजना हिंदी लोक शब्दकोश  के सृजन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

ऐसी कोई भाषा ही नहीं है, जिसमें दूसरी भाषाओं के शब्द न हों। बहुत सारे बाहरी शब्दों का इस्तेमाल तो सभी भाषाएं बिलकुल अपने जैसे करती हैं। शब्दों की यह यात्रा हमेशा घुमक्कडों और प्रवासियों के ही जरिये होती रही है। यह भारतीय भाषाओं के बीच खूब  हुआ है और दूसरी भाषाओं के बीच भी हुआ है। इससे सभी भाषाएं समृद्ध हुई हैं। जैसे बंगाली लोग देश के दूसरे क्षेत्रों में गए। हिंदी क्षेत्रों में उन्होंने हिंदी अपनाई और उससे हिंदी का एक नया रूप हमारे सामने आया। मॉरीशस  में जो हिंदी बोली जाती है, उस पर भोजपुरी का अच्छा-खासा असर है। हिंदी फिल्मों ने कई मराठी मुहावरों को पूरे हिंदी क्षेत्र में प्रचलित कर दिया है। जैसे वाट लग गई मराठी मुहावरा है और आज हिंदी में यह पूरी तरह प्रचलित हो गया है। ऐसे ही अंग्रेजी से भी कई शब्द हमारे यहां आए हैं और उन्हें हिंदी ने अपने ढंग से अपना लिया है, अपने व्याकरण के साथ। जैसे- अस्पताल, डाक्टर, शाल। कायदे से डाक्टर और शाल जैसे शब्दों पर अब अर्धचंद्र लगाने की जरूरत भी नहीं रही, क्योंकि हिंदी का व्याकरण इन्हें अपने ढंग से स्वीकार कर चुका है। अमीर खुसरो  को देखें। उन्होंने जिस तरह अरबी-फारसी और राजपूती से शब्द लिए और जो प्रयोग किया, उससे भाषा और साहित्य को समृद्धि ही मिली और वह नायाब है। हां, हमें इस मामले में सतर्क जरूर रहना चाहिए कि व्याकरण हम अपना ही रखें। शब्द चाहे जिस भाषा के हों, उन्हें अपनाएं हम अपनी तरह। और साथ ही अपनी संस्कृति के देशज शब्दों को गुम न होने दें। हमारे देश में जो चीज है, उसके लिए हमारी देसी भाषाओं में निश्चित रूप से शब्द हैं। जैसे ग्लेशियर के लिए अब अधिकतर हिमनद शब्द का प्रयोग होता है, लेकिन हिमालय में तमाम ग्लेशियर हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि इसके लिए हमारे पास अपना शब्द न हो? मैंने तलाशा तो पाया कि गढवाली में इसी के लिए गल शब्द है, ऐसे ही हेल्मेट के लिए राजस्थानी में झिलम शब्द है। लोक के उन शब्दों को तलाशने और बचाने की कोशिश करनी चाहिए। इससे सभी भाषाएं समृद्ध होती हैं।

हर सांस में बसा है हिंदुस्तान

अनीषा, अभिनेत्री

मेरा जन्म और मेरी परवरिश लंदन में हुई। मेरे  माता-पिता और भाई अभी भी वहीं रहते हैं। वहां हम सब हर पल हिंदुस्तान को मिस करते थे। मैंने उस कसक को दूर करने के लिए यहां आने का फैसला किया। वहां थिएटर में अपनी पढाई  की और आगे का करियर बनाने के लिए मुंबई बचपन से ही आना चाहती थी। अली फजल वहीं से मुझे मिले थे। हमने साथ-साथ थिएटर किया था। मेरे पेरेंट्स  पहले तो दुखी हुए कि मुझे उनसे दूर जाना पड रहा है, लेकिन अंतत:  वे मान ही गए और उन्होंने मुझे आने को मंजूरी दे दी। मैं मुंबई आई और आते ही मुझे कुछ विज्ञापन फिल्में  मिल गईं। मैंने आमिर खान के साथ भी कुछ विज्ञापन फिल्में  कीं। फिर  एक बार मैं जब उनसे मिली तो कहा कि मैंने आपके साथ काम किया है और आगे भी करते रहना चाहूंगी। मैं पिछले तीन सालों से मुंबई में हूं और फिल्म  व टीवी की दुनिया में काम की तलाश कर रही हूं। मेरे संघर्ष को विराम मिला फिल्म बात बन गई से। इस फिल्म में मैं लीड भूमिका में हूं। मैं अन्य कई अभिनेत्रियों की तुलना में इस बात को मानती हूं कि ड्रीम रोल एक ड्रीम  पूरा होने के साथ ही बदलते रहते हैं। लंदन से मेरे आने की सबसे बडी वजह भी यही थी कि मैं अपने सपनों को पूरा करना चाहती थी। मुंबई आकर मुझे नई ऊर्जा मिली है और कुछ हद तक मैं अपने सपनों की दिशा में आगे भी बढी हूं।

आपकी ताकत है विविधता

फ्रेंच मां और इटैलियन पिता की पुत्री मारीना   फीटानिनी  फिलहाल भारत में यूनेस्को  के सामाजिक एवं मानव विज्ञान सेक्टर की प्रमुख हैं। इससे पहले वह डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-फ्रांस  से बतौर एनवायरमेंटल एक्टिविस्ट  और संयुक्त राष्ट्र से बतौर डिप्लोमेट जुडी रह चुकी हैं।

जितनी अधिक संस्कृतियां आपके ज्ञान और अनुभव का हिस्सा हों, उतना ही बेहतर है.. यह सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हर तरह के विकास के लिए अच्छी बात है। आप गौर करें तो उन लोगों का साहित्य पढने में अधिक आनंद आता है, जिन्होंने कई संस्कृतियों को जाना और जिया है। जहां तक प्रवासियों की समस्याओं की बात है, यह इस पर निर्भर है कि कोई क्यों माइगे्रट कर रहा है। हमारा अध्ययन इंटर्नल माइग्रेशन पर है। कुछ समस्याएं सभी प्रवासियों को समान रूप से झेलनी पडती हैं- आवास, भेदभाव, कुछ नागरिक अधिकारों से वंचित होना। सबसे पहली समस्या वैधानिक पहचान पत्र की होती है। आपको वहां वोट देने का अधिकार नहीं रह जाता। अगर कुछ चीजों पर सब्सिडी मिलती है तो आप उससे वंचित हो जाते हैं। खरीदारी  के लिए मुफीद जगहें और तौर-तरीके न जानने से दूसरी चीजें भी महंगी पडती हैं। एक ही देश में जो लोग एक से दूसरी जगह जाते हैं, उनमें से अधिकतर के माइग्रेशन  का कारण रोजगार होता है। यह वजह भी स्त्री और पुरुष के लिए भिन्न होती है। पुरुष तो केवल रोजगार के लिए घर छोडता है, पर स्त्री शादी के कारण। अगर वह पति के रोजगार के कारण भी अपना घर छोड रही है तो उसमें भी वजह तो शादी ही है। रोजगार में पारिश्रमिक भी कई बार कम मिलता है। इसमें भी भारत और चीन की समस्याएं अलग हैं, क्योंकि ये दोनों ही बहुत बडे देश हैं और बहुत अधिक विविधताओं के साथ। यहां कई तरह की भाषाएं, संस्कृतियां, परंपराएं और ज्ञान की धाराएं हैं। यह विविधता इनकी ताकत है। समाधान के लिए सबसे पहली जरूरत स्वीकार की है। देश भर में ऐसी भावना बनाई जानी चाहिए कि आंतरिक प्रवासियों को लोग सहजता से स्वीकार करें। उनके साथ भेदभाव न हो। दुनिया भर की अर्थव्यवस्था में प्रवासियों का बडा योगदान है, आपके देश में भी। यह बात सबकी समझ में आनी चाहिए। फिर सरकार स्तर से उनके लिए कारगर योजनाएं होनी चाहिए। नगरों का नियोजन इस तरह किया जाना चाहिए कि दूसरे क्षेत्रों से आए लोगों को उसमें आसानी से जगह दी जा सके उन्हें अपने श्रम का सही मूल्य मिले।

इंटरव्यू : दिल्ली से इष्ट देव, मुंबई से दुर्गेश सिंह और अमित कर्ण।

इष्ट देव सांकृत्यायन

chat bot
आपका साथी