यह है जालंधरः दिलावर खान ने बसाई थी बस्ती पठाना, होता था मेवों का कारोबार Jalandhar News

बस्ती पठाना के बाशिंदों की भाषा पश्तो थी परंतु वे जालंधर निवासियों की भाषा भी समझते थे और बोल भी लेते थे। रहन-सहन उन्होंने पख्तूनी ही रखा था।

By Pankaj DwivediEdited By: Publish:Wed, 18 Sep 2019 03:45 PM (IST) Updated:Wed, 18 Sep 2019 03:45 PM (IST)
यह है जालंधरः दिलावर खान ने बसाई थी बस्ती पठाना, होता था मेवों का कारोबार Jalandhar News
यह है जालंधरः दिलावर खान ने बसाई थी बस्ती पठाना, होता था मेवों का कारोबार Jalandhar News

जालंधर, जेएनएन। जालंधर में प्राचीन काल में अफगानिस्तान व पाकिस्तान सहित अन्य इलाकों से आकर बसे लोगों की बस्तियों में एक सरदार बनाने की परंपरा थी। कोई अपराध होने पर ये दोषियों को मौत तक की सजा दे दिया करते थे। इन्हीं बस्तियों में बस्ती पठाना भी शामिल थी। यह बस्ती बहुत तेजी से बसी थी। इसका क्षेत्रफल अन्य बस्तियों से थोड़ा बड़ा था। आरंभिक काल में इसका दिलावर खान नाम का एक सरदार संचालन और प्रबंधन करता था। यहां के लोगों की भाषा पश्तो थी, परंतु वे जालंधर निवासियों की भाषा भी समझते थे और बोल भी लेते थे। रहन-सहन उन्होंने पख्तूनी ही रखा।

दिलावर खान की मौत के बाद उसके छह बेटों ने इस बस्ती को पूरी तरह संभाले रखा। यहां के पठान व्यापार में विश्वास रखते थे। वे शुष्क मेवा और अफगानिस्तान से अन्य जड़ी-बूटियों और फल आदि का कारोबार करके खूब धन कमाते थे। इसीलिए इसे धनाढ्य पठानों की बस्ती कहा जाता था। हालांकि ये पठान छोटी से छोटी बात पर मरने-मारने को तैयार हो जाते थे। उस समय सारा कारोबार बंद हो जाता था। रोजे के दिनों में इस बस्ती में दिनभर सन्नाटा सा छाया रहता था। सांझ ढले बस्ती पठाना में रौनक लौट आती थी। अन्य बस्तियों की तरह यहां भी एक मस्जिद बनाई गई थी। इसकी स्थापना सोलहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में हुई मानी जाती है। यह बस्ती जालंधर के इंडस्ट्रियल एरिया में गुम हो चुकी है।

अकबर से नाराज होकर उसके सैनिक ने बसाई थी बस्ती भूरे खान

इसे विधि का विधान कहिए या हालात की मजबूरी कि जालंधर के समीप जो भी बस्तियां स्थापित हुईं, वे सभी इस्लाम धर्म को मानने वाले लोगों की ही थीं। बस्ती भूरे खान भी एक मुगल सैनिक के नाम पर है। भूरे खान एक पठान था, जिसके पूर्वज पेशावर (पाकिस्तान) के निकट के एक कबीले से संबधित थे। अकबर महान के सेनापति बैरम खान ने अपनी सेना में पठानों को बहुत स्थान दिया हुआ था। जब अकबर बैरम खान से रुष्ट हो गया और उसे हज पर प्रस्थान करने को विवश कर दिया गया, तब उसके कुछ वफादार साथी सेना को छोड़ कर देश के भिन्न-भिन्न भागों में जा बसे थे।

भूरे खान भी उन जैसी हालात से गुजर कर जालंधर में आ बसा था। उसके परिवार में उसकी दो पत्नियां थी, जिनसे सात बच्चे हुए, चार बेटे और तीन बेटियां। उसने कुछ साथियों को लेकर एक पंचायत सी बना ली। वहीं, वह छोटे-मोटे झगड़ों का निपटारा करा दिया करता था। धीरे-धीरे कई अन्य कबीलों के लोग भी यहां आकर बसने लगे। सन 1670 के करीब यह बस्ती पूरी तरह उपनगर की तरह दिखाई देने लगी। हिंदू धर्म को मानने वाले लोगों की आस्था के केंद्र एक शक्तिपीठ के निकट इस मुस्लिम बहुल बस्ती का बसना एक अजीब बात ही अनुभव होती है।

बस्ती माई खाई भी इस बस्ती का ही भाग था। कुछ इतिहासकार यह भी कहते हैं कि एक अन्य पठान की मां जो खाई के नाम से प्रसिद्ध थी। हालांकि, उसे खातून शब्द से पुकारा जाता था, लेकिन यही शब्द खाई हो गया।  माई खाई और भूरे खान के कबीलों के मध्य वर्चस्व की लड़ाई होती रही। ये बस्तियां लब्भू राम दोआबा सीनियर सेकेंडरी स्कूल के पीछे से होते हुए प्रीत नगर के गुरुद्वारे के पीछे वाले क्षेत्र तक सीमित थीं।

औरगंजेब के जमाने में शाह इब्राहिम ने बसाई थी बस्ती

धरती सिकुड़ती गई परिवार फैलते गए। मजे की बात यह है ये सभी बस्तियां देखते ही देखते मात्र एक शताब्दी में विस्तार ले गईं। एक इतिहासकार ने बड़ी दिलचस्प बात लिखी कि इन बस्तियों का फैलना रक्तबीज की तरह माना जाए। जहां एक कबीला आकर रहा, उसके पीछे दस-बीस कबीले और आते गए। कठिनाई आने के बाद ही नई राह निकलती है। ऐसा ही शाह इब्राहिम बस्ती के बारे में कहा जा सकता है। शाह कुली बस्ती में कभी इब्राहिम खान का परिवार भी रहा करता था। उसे अपने भरे-पूरे परिवार के लिए वह स्थान छोटा अनुभव होने लगा था। सन 1665 के आसपास इब्राहिम खान ने अपने परिवार के साथ यहां एक हरे-भरे क्षेत्र में रहना आरंभ कर दिया। नई बस्ती बसाने की योजना धीरे-धीरे परवान चढऩे लगी, तब कई दस्तकार भी आकर रहने लगे और इब्राहिम खान ने सभी को संरक्षण दिया। इसमें लुहार, कुम्हार, बढ़ई और बुनकर भी आकर बस गए। यह दौर औरगंजेब के जमाने का था।

जालंधर के निकट बस्तियों में भी मस्जिदें बनाने में औरगंजेब के दौर में काफी उत्साह मिला। शाह इब्राहिम बड़ी लंबी आयु भोगकर इस जहां से विदा हुए थे। उनके रहते-रहते ही यह बस्ती खूब फल-फूल चुकी थी। आज इस बस्ती के निशान ढूंढने से भी मिल नहीं रहे। किसी शायर ने सच कहा है कि हुए नामवर बेनिशां कैसे-कैसे, जमीं खा गई आसमां कैसे-कैसे। यह बस्ती शायद वहां कहीं थी, जहा आजकल गुलाब देवी अस्पताल है।

(प्रस्तुतिः दीपक जालंधरी - लेखक जालंधर की जानी-मानी शख्सियत हैं)

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